हितेश शंकर
सभ्य समाज को, कमजोर वर्गोें को कठमुल्ला सोच से खतरा है मगर ज्यादा बड़ा खतरा खुद मुसलमानों के लिए है। अपने घर में जिहाद, कन्वर्जन को फर्ज मानने वाले विक्षिप्तों से लड़ाई उनको लड़नी है। अन्यथा कट्टरपंथियों को ‘ड्राईविंग सीट’ पर बैठाकर आगे बढ़ती मुस्लिम सिविल सोसाइटी का सफर निश्चित ही ‘सिफर’ हो जाएगा।
क्या सभ्य समाज को इस्लाम से वास्तव में डरना चाहिए, या फिर ‘इस्लामोफोबिया’ कोई गलत और गढ़ी गई परिकल्पना है!
इस बहस की आवश्यकता एक बार फिर महसूस हुई जब उत्तर प्रदेश से चौंकाने वाली खबर मिली। देश दंग रह गया जब सुव्यवस्थित इस्लामी कन्वर्जन रैकेट का पता चला। बड़ी बात यह कि इसका खुलासा आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) ने किया। संदिग्ध आतंकी सम्पर्कों वाले कुछ मौलाना बेसहारा लोगों को, दिव्यांग लोगों को कलमा पढ़ाने में और हिन्दू धर्म से, सनातन संस्कृति से नफरत बढ़ाने में जुटे थे।
कहा जा रहा है कि हिंदुओं को उनकी मूल आस्था से काटने में लगे जहांगीर कासमी और मोहम्मद उमर गौतम ने एक हजार लोगों का कन्वर्जन कराया। ये आंकड़ा और बड़ा भी हो सकता है।
मगर इसके साथ उठने वाले कुछ प्रश्न हैं, जो ज्यादा बड़े हैं।
● जहांगीर और उमर गौतम कोई अकेले नहीं हैं। हजार लोगों का कन्वर्जन कोई एक घटना में नहीं हुआ। ये एक सिलसिला है। इसमें कई और लोग शामिल होंगे। यह कोई एक स्थान पर सीमित घटना भी नहीं है। केरल के कोषिकोड में एक घटना में एक इसाई लड़की को नशीला पदार्थ पिलाकर बलात्कार किया गया, बलात्कार का वीडियो बनाया गया और वीडियो के आधार पर उसका मजहब बदलने का दबाव बनाया गया। वह नहीं मानी तो उसका छात्रावास से अपहरण करने की कोशिश की गई।
● केरल अल्पसंख्यक आयोग के उपाध्यक्ष जॉर्ज कुरियन एक अध्ययन का हवाला देते हैं कि 2006 से 2009 के बीच केरल में 2600 महिलाओं को लव-जेहाद में फंसा कर उन्हें मुस्लिम बनाया गया।
● बिहार के जमुई में जून के पहले हफ्ते में 15 वर्षीय एक दलित लड़की का अपहरण कर मस्जिद में जबरन उसका मजहब बदला गया और निकाह कराया गया।
महाराष्ट्र में, केरल में, हरियाणा में, उत्तर प्रदेश में, आंध्र प्रदेश में, हर स्थान पर यह सिलसिला चल रहा है। और समाज के कई तबके इनके निशाने पर हैं। इनकी समझ क्या है, ये ऐसा क्यों कर रहे हैं, इस पर भी समाज सवाल उठाएगा क्योंकि किसी भी सभ्य समाज में यह स्वीकार्य नहीं हो सकता। आखिर कन्वर्जन किसके लिए? केवल संख्या बढ़ाने के लिए, उन लोगों की बेहतरी के लिए या जिस आस्था का आप प्रचार कर रहे हैं, उसके बारे में बताने के लिए? अगर उसमें ताकत होती तो उसके बारे में बताते लेकिन इसके बजाय निशाने पर कमजोर वर्ग और गरीब लोग हैं? इसका अर्थ यह है कि विचार में इतनी शक्ति नहीं कि सन्तुलित, तार्किक बात करने वाले स्वस्थ व्यक्तियों को इस्लाम की घुट्टी पिलाना/कन्वर्ट करना सम्भव हो।
इसका अर्थ यह भी है कि ये किसी को अपनी आस्था में शामिल नहीं कर रहे बल्कि कमजोर का शिकार करने वाली मध्ययुगीन कबीलाई मानसिकता से अबतक बाहर नहीं निकल पाए हैं। भाईचारे की बात करने वालों के लिए गरीब, कमजोर, लाचार, दिव्यांग इस्लाम का ‘चारा’ भर है। ये बात आपको समझनी होगी।
ऐसे में मूल प्रश्न यही है कि दुनिया में इस्लामोफोबिया की बहस (कि दुनिया इस्लाम से नाहक भय खाती है और मुसलमानों को बेकार में बदनाम किया जाता है) का औचित्य क्या है?
कन्वर्जन के हथकंडे, जेहादी मंशाएं, लव जेहाद जाल और आतंकवाद क्या सभ्य समाजों को डराते नहीं?
निश्चित ही इस पर बहस होनी चाहिए।
जो लोग इस्लाम के बारे में कहते हैं कि इस्लाम शांतिप्रिय है, वे ऐसी किसी घटना के समय कहां दुबक जाते हैं! उन्हें बताना और इससे भी बढ़कर स्वीकारना चाहिए कि वास्तविकता क्या है?
भारत में जो उजागर हुआ, उस मजहबी पागलपन का ज्यादा साफ चेहरा आप विशुद्ध इस्लामी मुल्क, पाकिस्तान में देख सकते हैं।
● पाकिस्तान में एक इसाई लड़की का कन्वर्जन किया गया, उसका पिता भी इसे रोक नहीं पाया।
● पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान का करीबी मिट्ठू मियां कहता है कि मेरे पुरखों ने भी कन्वर्जन का काम किया था और मैं भी औरों की लड़कियों को बरगला कर उनका निकाह मुसलमानों से करता हूं।
● सतंबर, 2019 में ननकाना साहिब के ग्रंथी की 19 वषीर्या पुत्री का मोहम्मद हसन ने लाहौर से कुछ दूर अपहरण कर लिया गया और लड़की का मजहब बदलकर उससे निकाह कर लिया। इस मामले में एफआईआर तक रद हो गई।
● सिंध प्रांत में वर्ष 2020 में जनवरी के आखिरी हफ्ते में एक दुल्हन को शादी से अगवा कर उसे जहरन मुस्लिम बनाया गया और उसका निकाह एक मुस्लिम से करा दिया गया। फरवरी-मार्च 2021 में सिंध प्रांत में ही तीन लड़कियों को अगवा कर उन्हें जबरन इस्लाम कबूल कराया गया।
● स्वतंत्रता के समय पाकिस्तान में हिंदुओं का जो प्रतिशत था, और आज जो प्रतिशत है, तो यह बताना चाहिए कि उन अल्पसंख्यकों का प्रतिशत इतना घट कैसे गया? उन्हें आसमान निगल गया, धरती निगल गई या फिर इस्लाम निगल गया!
इसी तरह की घटनाओं को देखती, समझती दुनिया क्या आगे आने वाली स्थितियों के लिए तैयार हो रही है? शायद हां! जब आॅस्ट्रिया इस्लामी जनसंख्या के बढ़ने और उनके गढ़ बनने का मानचित्र बनाता है या फ्रांस इस्लामी कट्टरपंथ को रोकने के लिए कानून बनाता है तो आप उन्हें इस्लामोफोबिया का नाम नहीं दे सकते। आप बतायें कि इन घटनाओं को देख कर किसी भी सभ्य समाज को इस्लाम से क्यों नहीं डरना चाहिए?
वैसे, इन घटनाओं से खुद मुस्लिम जगत की बड़ी कमजोरी उजागर होती है। अब यह किसी से छिपा नहीं है कि मुस्लिम जगत की अगुवाई मुस्लिम सिविल सोसाइटी के हाथ में नहीं है, इनकी कमान आतंक का पोषण करने वालों, अधकचरी जानकारी रखने वालों, विज्ञान पर भरोसा ना करने वालों, दूसरों को जिबह करने में यकीन करने वालों के हाथ में चली गई है। इसपर खामोशी है, कोई मातम नहीं है। यानी क्या! यही की इस उन्माद पर मुस्लिम समाज की मौन सहमति है और समाजिक चेतना कठमुल्लों की दहलीज पर मरणासन्न पड़ी है।
ध्यान दीजिए, किसी भी समाज की कमान जिन लोगों के हाथ में होती है, वही उस समाज का ‘मुस्तकबिल’ यानी भविष्य तय करते हैं।
अगर मुसलमानों का कहना है कि इस्लाम से भय एक झूठ है, तो खुद को पीड़ित दिखाने का ढोंग करने के बजाय अपने आस पास घटतीं, इस्लाम का डरावना चेहरा दिखाती घटनाओं को आंखें खोलकर देखना चाहिए और अपने पाले में स्थितियां सुधारने की कोशिशें शुरू करनी चाहिए।
सभ्य समाज को, कमजोर वर्गों को कठमुल्ला सोच से खतरा है मगर ज्यादा बड़ा खतरा खुद मुसलमानों के लिए है। अपने घर में जिहाद, कन्वर्जन को फर्ज मानने वाले विक्षिप्तों से लड़ाई उनको लड़नी है। अन्यथा कट्टरपंथियों को ‘ड्राइविंग सीट’ पर बैठाकर आगे बढ़ती मुस्लिम सिविल सोसाइटी का सफर निश्चित ही ‘सिफर’ हो जाएगा।
@hiteshshankar
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