डॉ. महेश व्यास
आयुर्वेद आरोग्य के लिए प्रयत्न करता है। आरोग्य के लिए व्याधि उत्पन्न प्रतिबंध में योग का सर्वाधिक उपयोग होता है। तृष्णा को विविध व्याधि का कारण माना गया है। तृष्णा से मुक्ति मन के या चित्त के निग्रह से संभव है।
आयुर्वेद सनातन भारतीय चिकित्सा पद्धति है। भारतीय संस्कृति का आधारभूत स्तम्भ वेदों को माना जाता है, तथा आयुर्वेद का प्रारम्भ या बीजभूत अंश वेदों में सन्निहित है। वेद विश्व के प्रथम एवं प्राचीनतम ग्रन्थ में समाविष्ट है, अत: भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद को भी प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार किया जाता है। प्रत्येक भारतवासी को अथर्वर्वेद के उपवेद के रूप में स्वीकृत आयुर्वेद में अपनी सम्पूर्ण आस्था रखनी चाहिए। आयुर्वेद एक जीवन दर्शन है जिसमें धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, इन चतुर्विध पुरुषार्थों की प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण, आरोग्य के लिए प्रयत्न किया गया है। आयुर्वेद में प्रतिपादित सिद्धांत व्यापक एवं प्रत्येक जनसामान्य के सर्वथा उपयोगी हैं। उसका ही परिणाम है कि आज कोविड जैसी वैश्विक महामारी, जिससे पूरा विश्व परेशान है, से बचने के सार्थक उपाय आयुर्वेद ने सम्पूर्ण समाज के सामने प्रस्तुत किए हैं।
आयुर्वेद शास्त्र में स्वास्थ्य के रक्षण के लिए दिनचर्या, ऋतुचर्या, सद्वृत, आचार, रसायन तथा विविध दैनिक परिपालन की प्रक्रियाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। यदि हम इन प्रक्रियाओं एवं सिद्धांत का समुचित रूप से परिपालन करें तो निश्चित रूप से स्वस्थ समाज और स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण सरलता से किया जा सकता है। आयुर्वेद में निर्दिष्ट लंघन की प्रक्रिया, जिसे हम अल्प भोजन या संतुलित भोजन के रूप में स्वीकार कर सकते है, यही लंघन प्रक्रिया आॅटोफेगी के रूप भी स्वीकार की जा सकती है। यह प्रकिया चय-अपचय जन्य विकृति को दूर करने में श्रेष्ठ सिद्ध हुई है जिसे न केवल भारत वर्ष, अपितु संपूर्ण वैश्विक समाज ने भी स्वीकार किया है।
यत् किञ्चिल्लाघवकरं देहे तल्लङ्घनं स्मृतम्।
जिस क्रिया द्वारा शरीर में लघुता उत्पन्न होती है अर्थात कफ आदि दोषों द्वारा बढ़ी हुई गुरुता या भारीपन इसके द्वारा समाप्त होती है।
आयुर्वेद का प्रयोजन
‘स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं एवं आतुरस्य विकार प्रशमनम्।
यह है, अर्थात व्यक्ति स्वस्थ बना रहे, उसको किसी भी प्रकार की व्याधि उत्पन्न ही ना हो, यह आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन है। इस हेतु आयुर्वेद में विविध प्रकार की जीवन शैली का वर्णन किया गया है। यदि हम आयुर्वेद के जीवनशैली स्वरूप सिद्धांतों का परिपालन करते हैं तो 80% व्याधि का निर्मूलन, जिन्हें हम असंक्रामक रोग कहते हैं, जैसे हृदयरोग, प्रमेह स्थूलता, श्वास, पाण्डु, थॉयरायड विकृति आदि जीवनशैली जन्य विकृतियों को उत्पन्न होने से ही रोका जा सकता है।
आयुर्वेद में प्रकृति का विशेष महत्व बताया गया है। प्रकृति का अर्थ होता है स्वभाव। यह प्रकृति शरीर के स्वरूप को निर्देशित करती है। यदि देश का प्रत्येक व्यक्ति आयुर्वेद में निर्दिष्ट प्रकृति के लक्षण के माध्यम से अपनी प्रकृति का परीक्षण कराकर उसके अनुरूप भोजन या आहार-विहार का निर्धारण करता है तो उसे असंक्रामक रोगों की उत्पत्ति की संभावना अल्प रहती है। अत: प्रत्येक देशवासी को अपना प्रकृति परिक्षण अवश्य करना चाहिए। जैसे हम अपना ब्लड ग्रुप जानते है, वैसे हमें प्रकृति को भी जानना चाहिए।
आयुर्वेद में अग्नि को विशिष्ट स्थान दिया गया है, यदि हम आहार के द्वारा अग्नि को बलवान बनाये रखते हैं तो व्याधि उत्पत्ति की सम्भावनाएं समाप्त हो जाती हैं।
जैसा कि आयुर्वेद में कहा गया है –
‘रोग सर्वेपिमन्दाग्नौ।’
अर्थात समस्त शारीरिक व्याधि मंदाग्नि होने के कारण होती है। यदि हम यथासमय उचित मात्रा में उचित आहार ग्रहण करते हैं तो शरीर में अग्नि बलवान स्वरूप में बनी रहती है, जिसके द्वारा व्याधि की उत्पत्ति को रोका जा सकता है। आयुर्वेद में यहां तक कहा गया है कि अग्नि की मंदता मृत्यु का भी कारण हो सकती है। ‘शान्तेऽग्नौ म्रियते।‘
आयुर्वेद शारीरिक एवं मानसिक, दोनों प्रकारों की व्याधि चिकित्सा का निर्देश करता है। शारीरिक व्याधि के कारण स्वरूप में वात, पित्त एवं कफ, इन तीन दोषों को माना जाता है, और रज एवं तम का आयुर्वेद मानसिक व्याधि की उत्पत्ति में कारण माना जाता है।
शारीरिक व्याधियों की चिकित्सा विविध औषध कल्पों के माध्यम से आयुर्वेद में निर्दिष्ट की गई है तथा मानस व्याधियों के लिए योगिक क्रियाओं का निर्देश दिया गया है। आयुर्वेद में कहा गया है, मनसो ज्ञान विज्ञान धैर्य स्मृति समाधिभि।
आयुर्वेद में अष्टांग योग के यम एवं नियम इन दो अंगों का व्याधि उत्पत्ति प्रतिबन्ध हेतु सर्वाधिक प्रयोग किया गया है। स्वस्थवृत्त के अंतर्गत विवेचन स्वास्थ्य के रक्षा एवं विकार के प्रशमन हेतु किया गया है। चरक संहिता में योग के माध्यम से समस्त व्याधि के निर्मूलन का निर्देश किया गया है। यथा –
योगे मोक्षे च सवार्सां वेदनानामवर्तनम्।
अर्थात रोग के माध्यम से समस्त वेदनाओं के शमन में आयुर्वेद निदेश करता है। आयुर्वेद में वर्णित आचार रसायन योग के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि सिद्धांतों के परिपालन से रसायनवत शरीर के पोषण का निर्देश करता है।
आयुर्वेद त्रयोपस्तम्भ के रूप में निर्दिष्ट आहार, निद्रा, ब्रह्मचर्य योग के विस्तृत महत्व को स्वत: वर्णित करता है। योगाभ्यास के द्वारा आयुर्वेद के चिकित्सा सिद्धांतों का परिणाम परिष्कृत रूप में प्राप्त किया जा सकता है।
आयुर्वेद में उपधा या तृष्णा को विविध व्याधि का कारण माना गया है। तृष्णा से मुक्ति मन के या चित्त के निग्रह से संभव है। आयुर्वेद एकादश इन्द्रिय, पंचज्ञानेंद्रिय, पंचकमेंद्रीय और मन के निग्रह पर बल देता है तथा इनकी निरकुंशता विविध व्याधि की उत्पत्ति में कारण रूप होती है। इस प्रकार से योग और आयुर्वेद मन के निग्रह का निर्देश करता है।
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