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विश्व योग दिवस (21जून) पर विशेष : ‘योग: कर्मसु कौशलम’

by WEB DESK
Jun 20, 2021, 11:22 pm IST
in दिल्ली
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आराधना शरण

योग का अर्थ है विचार, शब्द और कर्म का परस्पर संतुलन और समन्वय जो हर व्यक्ति को व्यक्तिगत तौर पर ही बेहतर भविष्य का आश्वासन नहीं देता, बल्कि समाज के सदस्य के तौर पर मानव कल्याण, सामाजिक समरसता और विश्व शांति का दीप प्रज्जवलित करने के लिए भी सक्षम बनाता है। योग सिर्फ भौतिक शरीर को स्वस्थ रखने का ज्ञान नहीं, बल्कि उससे इतर एक ऐसा आधारस्तम्भ है जिस पर एक सुव्यवस्थित विचारवान समाज का गठन हो सकता है।
 

    सनातन धर्म में योग को आत्मा और शरीर के बीच समन्वय तैयार करने वाला ज्ञान माना गया है। भगवान श्री कृष्ण के अनुसार शरीर को नियम बद्ध अनुशासन में साधना ही योग नहीं, बल्कि आत्मा के साक्षात्कार के लिए कर्म, ज्ञान और भक्ति के जरिए किया गया हर प्रयास योग है। इंसान के अंदर ज्ञान प्राप्त करने की एक नैसर्गिक इच्छा पलती है। लेकिन ज्ञान हासिल करने के लिए मन का संतुलन बेहद जरूरी है। लौकिक जगत की तमाम उलझनों के कारण इंसान दुविधा में डूबा रहता है। इंसान के मन, बुद्धि और अहंकार को विवेक की डोरी से साध व्यक्ति और समाज के बीच एक स्वस्थ रिश्ते का दर्शन है योगशास्त्र जो अतंत: आत्मसाक्षात्कार की राह पर ले जाता है।

    योग सिर्फ निरोगी और स्वस्थ जीवन शैली का मार्ग नहीं बल्कि एक ऐसा दर्शन है जो एक ऐसे राष्ट्र की स्थापना के प्रण से जुड़ा है जिसमें सुगठित सामाजिक व्यवस्था और संतुलित आचार-विचार के तत्वों का समन्वय है। सांसारिक समस्याओं का समाधान सिर्फ धन संचय या आर्थिक विकास से संभव नहीं। किसी पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय अव्यवस्था से उपजी समस्या का समाधान आर्थिक प्रगति  में भी नहीं मिल सकता। सबसे पहले व्यक्ति का आत्मिक विकास जरूरी है जिसके जरिए उसके अंदर  उन कर्तव्यों के निर्वाह की शारीरिक और मानसिक सामर्थ्य विकसित होती है जो मनुष्य के तौर पर जन्म लेने के साथ परिवार, समुदाय और राष्ट्र के साथ जुड़ जाते हैं। एक स्वस्थ समाज और उसकी बुनियाद पर एक सशक्त राष्ट्र की स्थापना के लिए सबसे जरूरी क्या है, यह जानने के लिए हम योग की उस परिभाषा को समझने का प्रयास करेंगे जो भारत के जनमानस के हृदय में बसे योगेश्वर श्री कृष्ण ने श्रीमद् भगवद्गीता में प्रस्तुत किया है।

    अष्टांग योग और गीता का उपदेश
    कुरुक्षेत्र का मैदान है। एक कुटुंब दो बैरी समूहों में बंटकर युद्ध के लिए तैयार है। एक तरफ हैं कौरव और दूसरी तरफ पांडव। रणभेरी बज चुकी है और अर्जुन का रथ सारथी कृष्ण के नेतृत्व में युद्ध भूमि में आ चुका है। अर्जुन दूसरे पक्ष में खड़े परिजनों, आचार्यों, मित्रों, बंधु-बांधवों को देखकर भावुक है और युद्ध नहीं करना चाहता। तब कृष्ण उनकी दुविधा को दूर करने के लिए कहते हैं-
    ‘यदा यदा  हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम- ॥-७॥
    परित्राणाय- साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम।
    धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥-८॥’

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    योगेश्वर कृष्ण की धर्म स्थापना का संदेश कर्तव्य पालन के आधारों को मजबूत करना, समाज में उभरे दुराचार, अन्याय और आचार-विचारों के प्रदूषण का निवारण और पथभ्रष्ट लोगों को सही मार्ग दिखाना है। वह अर्जुन के शिक्षक बनकर उसे यह पाठ पढ़ा रहे हैं जो सभ्यता की विकास यात्रा के दौरान विभिन्न काल खंडों में अबाध्य इंसानी प्रवृत्तियों के कारण पनपे विष के शमन के लिए जरूरी है। कुरुक्षेत्र में एक ही कुटुंब के दो समूहों के बीच छिड़े युद्ध में अधर्म वही विष है जिसके उन्माद में संस्कार मलिन हुए थे। मसला भूमि के बंटवारे का नहीं, बल्कि मनुष्य के संस्कारों के पतन और समाज के गिरते स्तर का है।

    महाभारत का युद्धक्षेत्र एक शिक्षा स्थल है जहां जननी स्वरूपा स्त्री के मान, बड़ों के यथोचित सम्मान और कुटुंब में एकता और समन्वय बहाल करने की अहमियत के पाठ के साथ सांस्कृतिक विरासत की रक्षा की जिम्मेदारी और एक सुंस्कृत और सबल राष्ट्र के निर्माण की बात भी बताई गई है। समाज इंसानों से नहीं बल्कि कुटुंब से बनता है। समाजशास्त्र कहता है कि परिवार समाज की इकाई है, जैसा परिवार होगा, समाज के नागरिक वैसे ही होंगे। अगर परिवार में दुर्योधन के लक्षण हैं, अंधे धृतराष्ट्र की विवेकरहित और पक्षपातपूर्ण परवरिश है, महावीर भीष्म की अन्यायपूर्ण वचनबद्धता है, प्रखर सूर्यपुत्र की अधर्म के प्रति नपुंसक निष्ठा है तो समाज के सारे आधार स्तम्भों का धराशायी होना तय है। योगेश्वर श्रीकृष्ण का सारथी रूप जनमानस को अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध खडे होने की शक्ति देता है और धर्म यानी विवेकपूर्ण आचरण के साथ न्याय और सत्य की स्थापना के लिए आत्मविश्वास और मनोबल को मजबूत करता है। कृष्ण एक दार्शनिक हैं जो जीवन का व्यापक दृष्टिकोण थमाकर दिग्भ्रमित लोगों के मन को साधने यानी नियंत्रित करने का मार्ग दिखाते हैं। वह मनुष्य जाति के लिए योग के व्यापक सूत्रों- ज्ञानयोग और कर्मयोग झ्र को प्रस्तुत करते हैं। वह अष्टांग योग के उस सूत्र की नींव रखते हैं जो मन और इंद्रियों को वश में रखने का साधन है और यही साधन समाज में न्यायोचित और संस्कारबद्ध जीवन शैली के लिए जरूरी है। अर्जुन की सभी शंकाओं का समाधान करते हुए अनेक तर्क,प्रमाण, सिद्धान्त और दृष्टिकोणों के जरिए उसे कर्म करने के लिए प्रेरित करते समय भगवान कृष्ण द्वारा दिए गए उपदेशों में अष्टांग योग का मूल पाठ निहित है।
    ‘आरुक्षोमुर्नेयोर्गं कर्म कारणमुच्यते।
    योगारूढस्य तस्येव शम: कारणमुच्यते।।’

    (जिसने अभी योग आरंभ किया है, उसके लिए अष्टांग योग कर्म का साधन है और योगसिद्ध पुरुष के लिए सभी भौतिक कार्यकलापों का त्याग ही साधन कहा जाता है।)

    चेतना का परम सत्य से जुड़ाव
    दरअसल जब हम योग का नाम लेते हैं तो हम चेतना को परम सत्य से जोड़ने की बात करते हैं। जब यह सकाम कर्म से जुड़ी होती है तो कर्मयोग कहलाती है, जब इसका संबंध चिंतन से होता है तो यह ज्ञानयोग है और जब इसकी डोर भगवान की भक्ति से जुड़ती है तो यह भक्तियोग कहलाता है। योग की यह परम सिद्धि मुश्किल जरूर दिख सकती है पर असंभव नहीं। शायद आम इंसान की सामान्य क्षमताओं को ही ध्यान में रखते हुए श्रीकृष्ण गीता में बार-बार कर्म का निर्वाह करने के लिए परमेश्वर से जुड़ने का पाठ देते हैं।
    ’योगिनामपि सवेर्षां मत्दगतेनान्तरात्म’।
    इस तरह वह मनुष्य को योग का पालन करने के लिए मनोबल और क्षमता बनते हैं।

    सारथि के रूप में वह बुद्धि का प्रतीक हैं, उनके हाथों में रथ के घोड़ों (पांच इंद्रियों का प्रतीक) की लगाम  (मन का प्रतीक) है। वह अपने विराट रूप की दर्शन करा अर्जुन को लक्ष्य की पूर्ति करने का संबल और ऊर्जा प्रदान करते हैँ। गीता में बताया गया आत्म साक्षात्कार दरअसल योग मार्ग है जिसके लिए ज्ञान जरूरी है जो अष्टांग योग के पालन से सभंव है। इसके अभ्यास से इंसान अपनी स्वाभाविक स्थिति, ईश्वर से अपना संबंध और उन उद्देश्यों को समझा सकता है जिसे पूरा करना उसका धर्म है। कृष्ण की पढ़ाई योगविद्या का पूर्ण सार समझ कर और समर्पित भाव से उसका पालन कर अर्जुन समाज का उपयुक्त मार्गदर्शक और उज्जवल राष्ट्र के निर्माण में सक्षम युवा के तौर पर पहचान बनाता है। अर्जुन उस युवा वर्ग का प्रतिनिधत्व करते हैं जिनके हाथों में उज्ज्वल भविष्य बसा है।
    ‘बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।। १०।।
    बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
    धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।११।।’
    योग सिद्धि से विकसित बुद्धि और बल इंसान में अच्छे संस्कारों और विचारों को उभारता है और जीवन को सही दिशा देने के साथ समाज और राष्ट्र के लिए भी न्याय और सुशासन के के आधार स्तम्भों का निर्माण करने में अहम भूमिका प्रदान करता है। योग उस मानसिक शक्ति का नाम है जो शरीर को सबल बनाने के साथ दिशाहारा, भटकते और अविवेकी विचारों को संतुलित करती है।

    शिष्य अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं:-‘योग: कर्मसु कौशलम’-योग के लिए प्रयत्न करो, क्योंकि इसी के जरिए कार्य कौशल विकसित होता है जो कर्मफल को शुद्ध करता है, तभी सत्य और न्याय के लिए किए गए प्रयत्न सफल होते हैं।      
    ‘योगस्थ: कुरू कर्माणि’- सङग्म त्यक्तवा धनंजय।
    सिद्धय्सिद्धयो समो भूत्वा समत्वं योग उच्चते।।’ –  हार और जीत के बारे में सोचकर उलझने के बजाय समभाव से अपना कर्म करो। ऐसी समता ही योग है।
    यहां इंद्रियों पर नियंत्रण का पाठ दिया गया है। वह अपने शिष्य अर्जुन के मार्गदर्शक बनकर उसे सशक्त बुनियाद आधारित स्थायी और सुशासन-युक्त राष्ट्र के नेतृत्व की जिम्मेदारी सौंपना चाहते हैं। ऐसे नेतृत्व के लिए वही व्यक्ति सक्षम हो सकता है जो योग का अभ्यास करता हो, क्योंकि योग के जरिए ही शरीर और मन सबल बनते हैं। योग के व्यापक स्वरूप के पालन से ही इंसान सर्वांगीण विकास कर सकता है और नकारात्मक शक्तियों के कारण बिखर रहे समाज के मानकों को दुरुस्त कर एक सबल, सुगठित राष्ट्र का निर्माण कर सकता है।

 

  •  समाजशास्त्र कहता है कि परिवार समाज की इकाई है, जैसा परिवार होगा, समाज के नागरिक वैसे ही होंगे। अगर परिवार में दुर्योधन के लक्षण हैं, अंधे धृतराष्ट्र की विवेकरहित और पक्षपातपूर्ण परवरिश है, महावीर भीष्म की अन्यायपूर्ण वचनबद्धता है, प्रखर सूर्यपुत्र की अधर्म के प्रति नपुंसक निष्ठा है तो समाज के सारे आधार स्तम्भों का धराशायी होना तय है।
  •  कृष्ण की बताई योगविद्या का पूर्ण सार समझ समर्पित भाव से उसका पालन कर अर्जुन समाज का उपयुक्त मार्गदर्शक और उज्जवल राष्ट्र के निर्माण में सक्षम युवा के तौर पर पहचान बनाता है। अर्जुन उस युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके हाथों में उज्ज्वल भविष्य बसा है।
  •   श्री कृष्ण गीता के माध्यम से समाज को योग के सिद्धान्तों का पालन करने का पाठ दे रहे हैं। योग का अर्थ है विचार, शब्द और कर्म का परस्पर संतुलन और समन्वय जो मानव कल्याण, सामाजिक समरसता और विश्व शांति का दीप प्रज्जवलित कर सके। योग सिर्फ भौतिक शरीर को स्वस्थ रखने का ज्ञान नहीं, बल्कि उससे इतर एक ऐसा आधारस्तम्भ है जिस पर एक सुव्यवस्थित विचारवान समाज का गठन हो सकता है।
  • किसी भी काम में कुशलता हासिल करने के लिए शरीर और आत्मा को परस्पर एकभाव में स्थित होने यानी जुड़ने की जरूरत होती है। योग के अभ्यास से इंसान के अंदर निष्क्रिय पड़ी कार्यक्षमता जाग जाती है। यह मन के नकारात्मक भावों को खत्म कर सकारात्मक विचारों को जगाता है जिससे एक आदर्श समाज की बुनियाद बनती है। योग से मिलने वाली सकारात्मक ऊर्जा कुशल कर्म की क्षमता जगाती है। यह विज्ञान व्यक्ति और समाज के परस्पर संबंध का पाठ प्रस्तुत करता है। यह चिंतन आज भी प्रासंगिक है।

    सवाल यह है कि क्या कुरुक्षेत्र में युद्ध हुआ? क्या कौरव पराजित हुए? क्या पांडवों की विजय हुई? योगेश्वर कृष्ण ने युद्ध के भीषण माहौल में अर्जुन को बार-बार योग में रमने के लिए क्यों कहा? हां, यह सही है कि युद्ध हुआ। पर यह युद्ध पांडवों और कौरवों के बीच की जय और पराजय की कहानी मात्र नहीं, बल्कि न्याय स्थापना की गाथा है। अनाचार दंडित हुआ और एक स्वस्थ राष्ट्र की स्थापना हुई- साधन बना योग और कर्ता बना योगी और सारथि बने श्रीकृष्ण।

    धर्म यानी आचार-विचार और व्यवहार के अनुशासन की स्थापना मानव समाज को सुव्यवस्थित तरीके से संचालित करने और वातावरण और अन्य जीवों के साथ समन्वय बनाने के लिए है। यह सिद्धान्त व्यावहारिक पाठों के जरिए सभ्यता के समन्वित विकास के साथ वैश्विक अखंडता यानी वसुधैव कुटुंबकम हासिल करने का माध्यम है। धर्म की स्थापना की बात कहते हुए वह एक अनुशासित और मूल्यों पर आधारित जीवन शैली और आचार-विचार पर जोर देते हैं जो इंसान को समाज का सदस्य होने के नाते सही व्यवहार और मूल्यों का पालन करने के लिए प्रेरित करता है जो उसके अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए भी जरूरी है। यह सनातन सिद्धान्तों से संचालित होता है।

    वर्तमान का द्वंद्व और समाधान
    वर्तमान समाज एक द्वन्द से जूझ रहा है। वैश्वीकरण के कारण उभरा बहुसांस्कृतिक और अलग-अलग मान्याताओं और पंथों को मानने वाला हमारा समाज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ प्राचीन ज्ञान को पिछड़ापन मानने लगा है। मुश्किल यह है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी की प्रगति जितनी तेज हुई, मानवीय मूल्यों का विकास उतना ही सुस्त पड़ता गया जो समाज को सभ्य बनाते हैं। इसके अलावा, विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में पनपे विभिन्न पंथ और संप्रदाय जो वहां रहने वाले इंसानों की स्वाभाविक आवश्यकता के तहत उपासना विधि के रूप में जन्मे परस्पर मेल में रहने के बजाय बैर, टकराव और रोष में तब्दील हो गए हैं। इस स्थिति को और भी मुश्किल बना दिया है दुनिया भर को तबाह करने वाली महामारी ने। आज हर तरफ बेचैनी का माहौल है। संक्रामक रोग, घर में बंद रहने की विवशता, अकेलेपन का अवसाद और अन्य कई बाध्यताओं के बीच इंसानी आचार झ्रविचार और व्यवहार में नए लक्षण पनपने लगे हैं। एक अलग तरह का समाज उभर रहा है। हालांकि, इतिहास साक्षी है कि समाज जब भी संक्रमण काल से गुजरा है, वह खुद ही कुदरती तौर पर चुनौतियों का हल निकालने में सक्षम रहा है। पर हमेशा ही एक सबल नेतृत्व की जरूरत पड़ती है जो कार्यक्षमता और कार्य की दिशा को सही कुंजी थमा सके।

    आज वास्तव में तैत्तिरीय उपनिषद् के श्लोक के साथ हम अपने हाथों को जोड़ कर ईश्वर के सामने नतमस्तक हैं- ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पष्यन्तु मा कष्चिद् दु:खभाग् भवेत्’  यानी सभी सुखी हों, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दु:ख का भागी न बनना पड़े। मनुष्य को जिस तरह भोजन,कपड़े और घर की आवश्यकता होती है और वह उसके लिए हमेशा प्रयत्नशील रहता है,वैसे ही आत्मसंतोष और शांति की तलाश भी जारी रहती है। ऐसे में द्वापर युग के उद्बोधन को कलियुग के मौजूदा काल में एक खास व्याख्या के साथ समझने की जरूरत है। योगेश्वर श्री कृष्ण के मुख से निकले शब्दों को आज समाधन के तौर पर अपनी जीवन शैली में शामिल करें तो हम आशा कर सकते हैं कि दुनिया इस विषम परिस्थिति से उबर सकती है। योग के अभ्यास से इंसान के अंदर निष्क्रिय पड़ी कार्यक्षमता जाग जाती है। यह मन के नकारात्मक भावों को खत्म कर सकारात्मक विचारों को जगाता है और इंसान की कार्यक्षमता को बेहतर करता है जिससे वह अवसाद, तनाव से उबरकर किसी भी मुश्किल पर विजयी हो सकता है।

    योग से मिलने वाली सकारात्मक ऊर्जा कुशल कर्म की क्षमता जगाती है। यह विज्ञान व्यक्ति और समाज के परस्पर संबंध का पाठ प्रस्तुत करता है। यह चिंतन आज भी प्रासंगिक है।  श्रीकृष्ण गीता के माध्यम से व्यक्ति और समाज को योग के सिद्धान्तों का पालन करने का पाठ दे रहे हैं। योग का अर्थ है विचार, शब्द और कर्म का परस्पर संतुलन और समन्वय जो हर व्यक्ति को व्यक्तिगत तौर पर ही बेहतर भविष्य का आश्वासन नहीं देता, बल्कि समाज के सदस्य के तौर पर मानव कल्याण, सामाजिक समरसता और विश्व शांति का दीप प्रज्जवलित करने के लिए भी सक्षम बनाता है। योग सिर्फ भौतिक शरीर को स्वस्थ रखने का ज्ञान नहीं, बल्कि उससे इतर एक ऐसा आधारस्तम्भ है जिस पर एक सुव्यवस्थित विचारवान समाज का गठन हो सकता है। स्वस्थ शरीर, स्वस्थ समाज, स्वस्थ राष्ट्र यही है गीता का सार।

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