आलोक गोस्वामी
असम के मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार जयंत बरुआ के अनुसार, अगर असम में मुस्लिम आबादी इसी रफ्तार से बढ़ती रही तो 2038 तक राज्य मुस्लिम बहुल हो जाएगा
असम के मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार जयंत मल्ल बरुआ ने एक चौंकाने वाली जानकारी है। उनका कहना है कि राज्य में 2038 तक 'मियां-मुस्लिम' बहुसंख्यक हो जाएंगे। इसके पीछे वह 'मियां-मुस्लिमों' की आबादी के हिंदुओं के मुकाबले तीन गुना तेजी से बढ़ते जाने को कारण बताते हैं। बता दें कि बांग्लादेशी मुस्लिमों को असम में 'मियां-मुस्लिम' कहते हैं। बरुआ असम भाजपा के उपाध्यक्ष और नलबाड़ी से विधायक भी हैं।
उल्लेखनीय है कि 1971 में राज्य के दो जिले मुस्लिम बहुल थे, जबकि पिछली जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, असम के ग्यारह जिले मुस्लिम बहुल बन चुके थे। बरुआ ने बताया कि जनगणना रिपोर्ट को देखें तो 1971 में राज्य की कुल आबादी में 71.51 प्रतिशत हिंदू थे जबकि 24.56 प्रतिशत मुस्लिम। लेकिन 2011 की जनगणना रपट से पता चलता है कि यहां हिंदू आबादी कम होकर 61.46 प्रतिशत रह गई, जबकि इसके मुकाबले मुस्लिम आबादी में एक बड़ा उछाल देखने में आया और ये बढ़कर हो गई 34.22 प्रतिशत। 2001-2011 के बीच हिंदू आबादी 10.9 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ी है तो मुस्लिमों की 29.6 प्रतिशत की रफ्तार से। यानी हिंदुओं के मुकाबले तीन गुनी।
अभी पिछले ही दिनों पांचजन्य ने एक विस्तृत रपट प्रकाशित की थी जिसमें असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के पद संभालने के 30 दिन पूरे होने पर उनके कुछ खास निर्णयों की जानकारी दी गई थी। उन्होंने हाल ही में गरीबी दूर करने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों से आबादी नियंत्रित करने को कहा था। इसके लिए उन्होंने मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधियों से इस संदर्भ में जनजागरण लाने को कहा था। उन्होंने यह भी कहा था कि अनेक मुस्लिम जनप्रतिनिधि उनके इस विचार का स्वागत करते हैं और इस पर आगे सकारात्मक कदम उठाने को तैयार हैं। सरमा ने स्पष्ट कहा था कि उनकी सरकार अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं को भी शिक्षित करने की दिशा में कदम उठाएगी। इससे समस्याओं को दूर करने में काफी सहायता मिलेगी।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने पद संभालने के 30 दिन पूरे होने पर कहा था कि गरीबी दूर करने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय के लोग आबादी नियंत्रित करें। इसके लिए उन्होंने मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधियों से इस संदर्भ में जनजागरण लाने को कहा था और कुछ जनप्रतिनिधियों ने, उनके अनुसार, इसके लिए समर्थन जताया था।
लेकिन जैसा देखने में आया और जिसकी आशंका भी थी, सांप्रदायिक राजनीति में माहिर बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ पार्टी ने राज्य के हित के इस प्रयास को भी राजनीतिक रंग देने की कोशिश की है। बता दें कि बदरुद्दीन और उनकी पार्टी बांग्लादेशी मुस्लिमों को अपना वोट बैंक मानती है, उन्हीं के मुद्दे उठाती है और उनकी शरारतों पर पर्दा डालकर उन्हें हर तरह से सही ठहराने के लिए आंदोलन करती है। इसके अलावा, एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी ने भी इसके खिलाफ बयान दिए। ओवैसी ने कहा, ''बेवजह गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों को दोष दिया जा रहा है। समस्या है असमान वितरण की।'' आवैसी ने इस मुद्दे को बेराजगारी से जोड़ दिया। मतलब यह कि, दो बच्चों वाली बात उनके कट्टर एजेंडे को रास नहीं आई।
उधर बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के विधायक हाफिज रकील इस्लाम ने बढ़ती जनसंख्या के लिए 'शिक्षा की कमी' पर ठीकरा फोड़ा, लेकिन यह नहीं बताया कि मुस्लिम समुदाय में शिक्षा को लेकर वर्षों से उदासीनता क्यों बनी हुई है! यह नहीं बताया कि मदरसों की तालीम उन्हें 'शिक्षित' क्यों नहीं बना पा रही!
बरुआ की मानें तो राज्य में ऐसे हालात नए खतरे की तरफ इशारा कर रहे हैं। उनका मानना है कि जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार यही रही तो 2037-38 तक असम में पूर्वी बंगाल मूल के मुस्लिम यानी 'मियां-मुसलमान' बहुसंख्यक हो जाएंगे। बरुआ ने बदरुद्दीन अजमल और ओवैसी जैसे जनसंख्या नियंत्रण पर आपत्ति जताने वाले नेताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा कि कुछ ताकतें प्रदेश का विकास नहीं चाहतीं।
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