झूठ के बदले मीडिया को किसी तरह का आर्थिक लाभ भी अवश्य होता होगा
तिहाड़ जेल में बंद इस्लामिक स्टेट के एक आतंकवादी को कैदियों ने मारा-पीटा और उसे ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाने को मजबूर किया। पीटीआई ने यह समाचार जारी किया। टाइम्स आॅफ इंडिया ने इसे प्रमुखता से छापा। यह दावा आतंकवादी के वकील के हवाले से किया गया था। अगले दिन तिहाड़ के अधिकारियों ने आरोपों का खंडन किया। टाइम्स आॅफ इंडिया में छपी दूसरी रिपोर्ट में ‘जय श्रीराम’ बदलकर ‘भारत माता की जय’ हो गया। प्रश्न है कि अखबार ने बिना जेल अधिकारियों का पक्ष जाने पहले दिन रिपोर्ट क्यों छापी? इस तरह तो कोई आतंकवादी अपने पक्ष में सहानुभूति पैदा करने के लिए आराम से मीडिया का दुरुपयोग कर सकता है। ‘जय श्रीराम’, ‘वंदेमातरम’ और ‘भारत माता की जय’ जैसे नारों को लेकर मीडिया का एक वर्ग लगातार दुष्प्रचार कर रहा है। ऐसे अधिकांश समाचार असत्य पाए गए, लेकिन यह प्रवृत्ति थम नहीं रही है। यह मानने के अब पर्याप्त कारण हैं कि आतंकवादियों के बचाव में छपने वाले ऐसे झूठ के बदले मीडिया को किसी तरह का आर्थिक लाभ भी अवश्य होता होगा।
कांग्रेस की देशविरोधी टूलकिट में मीडिया के कार्टूनिस्टों की बड़ी भूमिका है। कोई कार्टूनिस्ट फेक न्यूज पर आधारित कार्टून बनाए या भ्रामक तथ्य प्रस्तुत करे, रचनात्मक स्वतंत्रता की आड़ में उसके सारे काम छिपा लिए जाते हैं। ऐसे ही कुछ कार्टूनिस्ट पिछले कुछ समय से कोरोना वायरस को लेकर लोगों में भ्रम फैलाने में जुटे थे। इनमें नेटवर्क18 जैसे बड़े समूहों के कार्टूनिस्ट भी शामिल हैं। नेटवर्क18 के कार्टूनिस्ट मंजुल को फेक न्यूज फैलाने के कारण ट्विटर का नोटिस आया। दर्शकों के दबाव में चैनल को उन्हें हटाना पड़ा। परंतु टूलकिट गिरोह ने घोषित कर दिया कि यह कार्रवाई केंद्र्र के दबाव में की गई है। जबकि इसी दौरान कई राष्ट्रवादी पत्रकारों के सोशल मीडिया अकाउंट या तो बंद कर दिए गए या उन्हें अनुचित कारणों से कानूनी नोटिस भेजे गए। वामपंथी और कांग्रेसी गिरोहों को इसमें कोई भ्रम नहीं कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उनका एकाधिकार है। इसे हल्की सी भी चुनौती मिले तो वे बौखला उठते हैं।
दिल्ली के लगभग सभी अखबार-चैनल कुछ समय से राशन की कथित ‘होम डिलीवरी’ की योजना को लेकर समाचार छाप रहे हैं। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की प्रेस वार्ताओं के जो समाचार छापे जा रहे हैं, उन्हें देखकर समझना कठिन नहीं कि वे उनके विज्ञापन अभियान का ही हिस्सा हैं। केंद्र की तरफ से आरोपों के उत्तर देने के लिए रविशंकर प्रसाद ने मीडिया से बातचीत की। उन्होंने केजरीवाल के हर झूठ का जवाब दिया, लेकिन अधिकांश समाचारपत्रों ने उनके बयान को या तो छापा ही नहीं, या फिर ऐसे छापा कि पता न चले कि उन्होंने कहा क्या है। केजरीवाल से यह पूछने की हिम्मत नहीं की गई कि वो गरीबों की सहायता के नाम पर ऐसे झूठे दावे क्यों कर रहे हैं? विज्ञापन बजट के दम पर आआपा सरकार किस तरह मीडिया को अपने इशारों पर नचाती है, यह उसी का उदाहरण मात्र है। यही स्थिति कोरोना संकट के समय भी थी, जब मीडिया केजरीवाल के बयानों को जस का तस बिना दूसरा पक्ष जाने दिखा रहा था। मीडिया को विज्ञापनों से मतलब है न कि इससे कि दर्शकों या पाठकों तक सही सूचना पहुंचे।
असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा ने मुस्लिम समुदाय से जनसंख्या नियंत्रित करने की अपील की। मीडिया के एक वर्ग ने इस तर्कपूर्ण बयान को ‘विवादित’ बनाने का पूरा प्रयास किया। आंकड़ों की हेराफेरी करके मुस्लिम समुदाय के बचाव की कोशिश शुरू हो गई। टाइम्स आॅफ इंडिया ने डेढ़ दशक पुराने आंकड़ों को आधार बनाकर यह साबित करने का प्रयास शुरू किया कि मुस्लिम आबादी कम हो रही है। अलीगढ़ के नूरपुर में अनुसूचित जाति की बारात रोकने की घटना को सेंसर करने वाले अखबारों और चैनलों ने उत्तर प्रदेश के ही संभल में हुई बलात्कार की घटना को जातीय रंग देने का प्रयास किया, जबकि आरोपी और पीड़ित एक-दूसरे को नहीं जानते थे। उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं और मीडिया का एक वर्ग तब तक ऐसे काम करता रहेगा।
दिल्ली में कथित किसान आंदोलन में महिलाओं से बलात्कार और मारपीट जैसी घटनाएं जारी हैं। विशेष रूप से अंग्रेजी मीडिया की सहानुभूति इन कथित किसानों से खत्म होने का नाम नहीं ले रही। धरने की आड़ में चल रही अराजक गतिविधियों के समाचार छापे नहीं जाते हैं ताकि लोगों को पता न चले कि महीनों से दिल्ली को घेरे बैठे लोग वास्तव में किसान नहीं कुछ और ही हैं।
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