संतोष कुमार वर्मा
भारत ने यूरोपियन यूनियन में बासमती चावल के ज्योग्राफिकल इंडिकेशन के लिए आवेदन किया तो ठग राष्ट्र पाकिस्तान को भारत का यह कदम नागवार गुजरा। वह यूरोपीय यूनियन में भारत के इस आवेदन का विरोध कर रहा है.जबकि हकीकत है कि भारत बासमती का वास्तविक जन्मस्थान है
भारत विश्व की प्राचीनतम सभ्यता का पालना रहा है, जिसने कृषि, वाणिज्य और व्यापार से लेकर विशाल साम्राज्यों के वैभव को विकसित होते देखा। अगर देखा जाये तो कृषि, इन सभ्यताओं के विकास के मूल में मानी जा सकती है। हड़प्पा सभ्यता मूलत: कृषि आधारित अर्थव्यस्था ही थी, जहां हमें कृषि उत्पादन में व्यापक विविधता देखने को मिलती है। इस समय से ही चावल भारतीय भोजन का आवश्यक अंग बना हुआ है और भारतीय कृषकों ने सदियों के परिश्रम और अध्यवसाय से इसकी विविध प्रजातियों के उत्पादन में महारत हासिल की। और आज एक ऐसी ही प्रजाति पर जब भारत अपने अधिकार का दावा कर रहा है, तो उसे सात दशक पूर्व बने एक ठग राष्ट्र से विरोध का सामना करना पड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि भारत ने बासमती चावल हेतु प्रोटेक्टेड ज्योग्राफिकल इंडिकेशन (पीजीआई) के लिए आवेदन किया है, जो उसे यूरोपीय संघ में बासमती नाम का एकमात्र स्वामित्व प्रदान करेगा। भारत बासमती का वास्तविक जन्मस्थान है। भारत में बासमती उत्पादन का निश्चित भौगोलिक क्षेत्र है, जिस 'बासमती उत्पादक क्षेत्र' में जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के राज्य और केंद्र शासित प्रदेश शामिल हैं। यह क्षेत्र पाकिस्तान के कुल क्षेत्रफल के तीन गुने से अधिक हैं। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, भारत दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक है, जिसका वार्षिक मूल्य 6.8 अरब डॉलर है, जबकि पाकिस्तान 2.2 अरब डॉलर के निर्यात के साथ चौथे स्थान पर है। विश्व के बासमती बाज़ार पर भारत का वर्चस्व रहा है।
आखिर भारत को एकान्तिक अधिकारों की क्या आवश्यकता है ?
90 के दशक के उत्तरार्ध में भारत सरकार और अमेरिका के टेक्सास प्रान्त स्थित कंपनी राइसटेक के बीच एक गंभीर विवाद पैदा हुआ। जब राइसटेक ने बासमती की कुछ किस्मों पर पेटेंट की मांग की, जो उसे 1997 में प्रदान भी कर दी गईं। इन्हें हम बासमती की प्रजातियां मान सकते हैं। यह सम्पूर्ण घटनाक्रम न केवल भारत सरकार बल्कि भारत की जनता के लिए भी बेहद चिंताजनक था। इसके साथ यह आशंका भी जुड़ी हुई थी कि अब यह विदेशी कम्पनी बासमती का नाम इस्तेमाल कर भारत के असली और प्रामाणिक बासमती को प्रतिस्पर्धा से बाहर कर देगी।
तत्कालीन समय में भारत की संपन्न और प्राचीन कृषि विरासत की रक्षा कर सकें, ऐसा कानूनी प्रावधान भारत के भीतर मौजूद नहीं था, जिसके कारण यह "जैव-चोरी" संभव हो सकी। हालांकि भारत सरकार ने इसके विरुद्ध लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ी और 2001 के बाद राइसटेक को बासमती नाम के प्रयोग का एकाधिकार निरस्त कर दिया गया और उसके द्वारा उत्पादित तीन किस्मों को कासमती, जासमती और टेक्समती के नाम से विपणन करने का अधिकार दे दिया गया।
अब इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने, जिसमें भारत की विरासत का कोई और देश गलत तरीके से फायदा न उठा सके, इसके लिए आवश्यक है कि भारत अपने यहां शताब्दियों से पैदा होने वाली फसल के रूप में बासमती पर दावा पेश करे। पर अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत मांग की जाती है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में किसी भी उत्पाद के पंजीकरण के लिए आवेदन करने से पहले उसे उस देश के ज्योग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) विधानों के तहत संरक्षित किया जाना चाहिए।
ज्योग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) क्या है ?
ज्योग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) एक संकेतक है, जो उन उत्पादों पर उपयोग किया जाता है जिनकी एक विशिष्ट भौगोलिक उत्पत्ति होती है और इसमें उस क्षेत्र की विशेषताओं के गुण और प्रतिष्ठा भी पायी जाती हैं। भारत में भौगोलिक संकेत (जीआई टैग), वस्तु (पंजीकरण और संरक्षण) एक्ट, 1999 के अनुसार जारी किए जाते हैं। यह टैग, ‘भौगोलिक संकेत रजिस्ट्री’ द्वारा जारी किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जीआई औद्योगिक संपत्ति के संरक्षण के लिए पेरिस कन्वेंशन के तहत बौद्धिक संपदा अधिकारों (आईपीआर) के एक घटक के रूप में शामिल है। 1883 में अपनाया गया पेरिस कन्वेंशन व्यापक अर्थों में औद्योगिक संपत्ति पर लागू होता है, जिसमें पेटेंट, ट्रेडमार्क, औद्योगिक डिजाइन, व्यापार नाम, भौगोलिक संकेत और अनुचित प्रतिस्पर्धा का दमन शामिल है।
भारत और बासमती !
भारत में सदियों से बासमती चावल का उत्पादन होता आया है। जैसा कि बताया गया है हिमालय के दक्षिण में गंगा के अनुवर्ती मैदान में बासमती चावल का उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता रहा। पाकिस्तान का जो क्षेत्र बासमती की फसल के अंतर्गत है, वह अंग्रेजों द्वारा पंजाब के अधिग्रहण के पूर्व बहुत ही कम मात्रा में चावल की पैदावार कर पाने में सक्षम रहा होगा। अबुल फज़ल द्वारा लिखित आइन-ए-अकबरी में इलाहाबाद, अवध, दिल्ली, आगरा, अजमेर और मालवा सूबा के रायसेन क्षेत्र के साथ लाहौर, मुल्तान, सूबों में मुशकीन की खेती का वर्णन करती है। इस मुशकीन को ही आगे आने वाले समय में लाल बासमती के नाम से भी संबोधित किया जाने लगा।
गौरतलब है कि इसमें केवल मुल्तान और लाहौर के क्षेत्र ही बासमती उत्पादक बताये गए जो अब पाकिस्तान में हैं। बासमती पर पाकिस्तान के अधिकार के समर्थक मानते हैं कि वारिस शाह रचित हीर रांझा नामक काव्य जो 1766 में लिखा गया, पहला ऐसा ग्रन्थ हैं, जो बासमती का उल्लेख करता है। और चूंकि वारिस शाह का कार्यक्षेत्र झांग के आसपास का क्षेत्र था, तो इसे ही बासमती का मुख्य केंद्र बताते हैं। परन्तु यह साधारणीकरण और तथ्यों की मनमानी व्याख्या तर्कसंगत नहीं है। उस समय पंजाब पानी की कमी से ग्रस्त था और चावल उगाने के लिए जितनी बड़ी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है, वह शायद ही उपलब्ध हो। महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद सिख राज्य का विघटन प्रारंभ हो गया और दूसरे आंग्ल सिख युद्ध में अंग्रेजों ने पंजाब का अधिग्रहण कर लिया। पंजाब जैसे सामरिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र में जो अफ़ग़ानिस्तान और सबसे महत्वपूर्ण रूस के खतरे से बचने के लिए सैन्य जोन के रूप में विकसित किया जा रहा था, सेना को बसाने के लिए यहां बड़े पैमाने पर नहरें बनाई गईं और सैनिकों को कैनाल कॉलोनी के रूप में जमीने दी गईं। यहां की नदियों की इन नहरों के कारण इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर चावल उगा पाना संभव हो सका। आज पाकिस्तान के पास जो बासमती उत्पादक पट्टी है वह मुख्यत: रावी और चिनाब नदियों के बीच स्थित है, जिसमें पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब के नारोवाल, सियालकोट, गुजरांवाला, हाफिजाबाद और शेखूपुरा जिले शामिल हैं। ऐसे में स्पष्ट है कि भारत में बासमती का लम्बा इतिहास है, जबकि पाकिस्तान के साथ उसका संपर्क तुलानात्मक रूप से नया है। अत: इस पर भारत का दावा पूर्णत: न्यायोचित है।
क्या हो सकता है ?
अब भारत के इस आवेदन पर पाकिस्तान ने गहरा विरोध दर्ज किया है। परन्तु भारत का दावा मजबूत है और यदि वह सफल हो जाता है, तो भारत को यूरोपीय संघ में बासमती के लिए एकमात्र जीआई धारक के रूप में एक विशेषाधिकार हो जाएगा। और ऐसे अनेक लाभ हैं, जो पीजीआई स्थिति के साथ आते हैं, जैसे इस विनियमन के अनुच्छेद 13 के अनुसार यूरोपीय संघ में पंजीकृत जीआई धारक के लिए 'सुरक्षा' उपाय उपलब्ध हो जाते हैं। इनके तहत यह प्रावधान है कि एक पीजीआई के तहत उत्पाद की 'शैली', 'प्रकार', 'विधि', अथवा नाम का प्रयोग भी एकान्तिक होगा। अर्थात पाकिस्तान को बासमती नाम के प्रयोग से भी वंचित होना पड़ेगा और साथ ही साथ यह भी संभव है कि भारत को जीआई सुरक्षा मिलने के बाद पाकिस्तान को यूरोपीय संघ में 'पाकिस्तान बासमती' या 'पाकिस्तान में उत्पादित बासमती' के लेबल के साथ भी अपने बासमती बेचने की अनुमति न मिल पाए। हालांकि, ऐसी संभावना है कि पाकिस्तान यूरोपीय संघ में 'पाकिस्तान बासमती' जीआई की मांग कर सकता है। लेकिन अगर स्थिति यहां तक भी पहुँचती है तो पाकिस्तान की सरकार के लिए यह एक बड़ा आघात साबित होगा।
पिछले तीन वर्षों से कड़े यूरोपीय कीटनाशक मानकों को पूरा करने में भारत की कठिनाइयों का फायदा उठाकर पाकिस्तान ने यूरोपीय संघ में बासमती निर्यात का विस्तार किया है और वह इन देशों का बासमती का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। यूरोपीय आयोग के अनुसार, अब पाकिस्तान इस क्षेत्र की लगभग तीन लाख टन वार्षिक मांग का दो-तिहाई पूरा करता है। परन्तु भारत के इस कदम से उसे अपना लाभदायक कारोबार खतरे में दिखने लगा है। परन्तु अवसरवादिता से लाभ कमाना पाकिस्तान की पुरानी नीति रही है, जो उसके आर्थिक और राजनीतिक कार्यकलापों से स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यही निम्न कोटि की लोलुपता इस सारे मामले में भी दिखाई देती है। पाकिस्तान भारत के मुस्लिमों के लिए एक अलग होमलैंड की मांग के साथ बना, जिसने भारत की गौरवशाली इतिहास और विरासत को हमेशा नकारा। परन्तु आश्चर्यजनक बात यह है कि जब भी आर्थिक अथवा राजनीतिक लाभ की बात आती है पाकिस्तान तुरंत इस विरासत में अपना हिस्सा मांगने के लिए हाथ फैलाए खड़ा दिखाई देता है। उल्लेखनीय है कि जब पिछले वर्ष सितंबर में भारत ने दावा किया कि ''बासमती'' भारत के एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में उगाए और उत्पादित लंबे और सुगंधित दाने वाला चावल है। और बासमती चावल के संक्षिप्त इतिहास पर प्रकाश डालने के बाद, भारत ने यह भी दावा किया कि यह क्षेत्र उत्तरी भारत का हिस्सा है, जो हिमालय की तलहटी के नीचे गंगा के मैदान का हिस्सा है। परन्तु दिसंबर, 2020 में पाकिस्तान ने भारत के इस दावे को यह कहकर चुनौती दी थी कि बासमती चावल भारत और पाकिस्तान का एक ‘संयुक्त उत्पाद’ था, जो अविभाजित भारत में सदियों से उगाया जाता रहा है। अब पाकिस्तान का भविष्य यूरोपीय संघ की गतिविधियों पर निर्भर करता है। मार्च, 2021 की तरह अब यह मुश्किल ही है कि पाकिस्तान को कोई सफलता प्राप्त हो पाए। क्योंकि भारत के दावे को नकार कर पाकिस्तान को वरीयता दे पाना अब संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान पर बासमती नाम खोने का ख़तरा जितना अधिक मंडराएगा, उसे भारत के साथ अपना साझा अतीत उतना ही अच्छे से याद आयेगा!
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