गुजरात सरकार का शिक्षा सुधार का नया कानून कहता है कि अब सरकारी अनुदान प्राप्त अल्पसंख्यक शिक्षण संथानों को योग्यता के आधार पर स्टाफ की भर्ती तय कायदे के अनुसार हो, अन्यथा दंडात्मक कार्रवाई होगी
गुजरात सरकार ने हाल ही में शिक्षा क्षेत्र में और सुधार लाने के उद्देेश्य से नया संशोधन गजट में दर्ज करके लागू क्या किया, राज्य में ईसाई शिक्षण संस्थानों के संचालकों के माथे पर पसीना उभर आया है।
पिछले दिनों गुजरात सरकार ने गजट में गुजरात माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शिक्षा सुधार कानून—2021 प्रकाशित करके गत 1 जून से पूरे राज्य में लागू किया है। इसके अंतर्गत सरकार की ओर से कहा गया है कि राज्य से अनुदान ले रहे सभी अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान अपने यहां प्रधानाचार्य सहित शिक्षण और गैरशिक्षण कार्यों के लिए की जाने वाली नियुक्तियां राज्य के तय कायदों के हिसाब से करेंगे, राज्य को नियुक्ति के सात दिन के अंदर उसके बारे में सूचित करेंगे। ऐसा न करने पर दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी, संस्थान का पंजीकरण भी रद्द किया जा सकता है। अभी तक पढ़ाने और दफ्तरी कामों में मनमर्जी से पादरिया, पास्टरों की नियुक्तियां करते आ रहे राज्य के तमाम ईसाई शिक्षण संस्थानों में इस कानून के क्रियान्वयन के बाद खलबली मची है। उन्होंने ऐसे बयान देने शुरू कर दिए हैं जिनसे यह संदेश जाए कि राज्य सरकार ईसाई संस्थानों को अपने हिसाब से काम नहीं करने देना चाहती। जबकि तथ्य यह है कि अगर कोई शिक्षण संस्थान राज्य से अनुदान लेता है तो उसे राज्य सरकार के तय कायदों को भी मानना होता है। ईसाई नेताओं का कहना है कि राज्य सरकार उनके संस्थानों को संचालित करने के उनके अधिकारों को छीन रही है।
गुजरात एजुकेशन बोर्ड आफ कैथोलिक इंस्टीट्यूशन के सचिव फादर टेलेस फर्नांडीस बौखलाए हुए हैं। उनकी बौखलाहट के पीछे उनका वह भय है कि कहीं मनमर्जी से ईसाई संस्थानों को चलाने की उनकी थानेदारी न खत्म हो जाए। वह कहते हैं कि इस कानून से व्यावहारिक तौर पर सभी पांथिक अल्पसंख्यकों के सभी अधिकार छिन गए हैं। फादर को डर है कि अभी तक वे जिसे चाहते थे, नौकरी देते थे, जिसे चाहते थे, दाखिला देते थे; क्योंकि सरकार का कोई दखल नहीं था, मनमानी चलती थी। अब कायदे से चलने का मतलब होगा, सिर्फ योग्य को ही संस्थान रख पाएगा, किसी को उपकृत नहीं कर पाएगा।
सरकार की ओर से कहा गया है कि राज्य से अनुदान ले रहे सभी शिक्षण संस्थान अपने यहां प्रधानाचार्य सहित शिक्षण और गैरशिक्षण कार्यों के लिए की जाने वाली नियुक्तियां राज्य के तय कायदों के हिसाब से करेंगे, राज्य को नियुक्ति के सात दिन के अंदर उसके बारे में सूचित करेंगे। ऐसा न करने पर दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी, संस्थान का पंजीकरण भी रद्द किया जा सकता है।
नए कानून में है कि सभी नियुक्तियां सरकार अपनी केन्द्रीय भर्ती समिति के जरिए करेगी जिसमें उम्मीदवार की योग्यता देखी जाएगी। जबकि असल में अभी तक होता यह आया था कि चर्च अपने द्वारा संचालित स्कूल—कॉलेजों में पादरियों या ननों को प्रधानाचार्य बनाता था जिससे संस्थान का कैथोलिकपन बना रहे।
उल्लेखनीय है कि राज्य में गुजरात एजुकेशन बोर्ड आफ कैथोलिक इंस्टीट्यूशन के तहत डायोसिस द्वारा स्थापित 181 स्कूल चलते हैं। इसमें से 63 स्कूलों में शिक्षकों के वेतन सरकारी अनुदान से दिए जाते हैं। ईसाई नेता यह डर भी फैला रहे हैं कि गुजरात में अगर यह कानून कामयाब हो गया तो ऐसा दूसरे भाजपा शासित राज्यों में भी हो सकता है। खबर यह भी है कि इस नए संशोधन कानून के खिलाफ गुजरात एजुकेशन बोर्ड आफ कैथोलिक इंस्टीट्यूशन ने गुजरात उच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की है।
दिलचस्प बात है कि शिक्षा में सुधार के लिए गुजरात सरकार द्वारा बनाए इस नए कानून से सिर्फ कैथोलिक ईसाई स्कूलों के संचालक बौखलाए हुए हैं। इस पर आलेख और रिपोर्ट भी यूरेशियारिव्यूडॉटकॉम और हैमलाइवन्यूज जैसे ईसाई समर्थक पोर्टलों को छोड़कर ज्यादा किसी अखबार या पत्रिका में बढ़ा—चढ़ाकर न छापना शायद चर्च के गले नहीं उतर रहा है और वह अपने सेकुलर समर्थकों को उकसाकर इस मामले को तूल देना चाहता है।
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