शशि सिंह
आधुनिक इतिहास की मुख्य धारा में हमेशा से ही आदिवासियों के सरोकारों को हाशिये पर रखा जाता रहा है। मुग़लों के शासनकाल तक झारखंड के जंगलों में वास करने वाले जिन आदिवासियों के जीवन में बाहरी हस्तक्षेप नहीं के बराबर था, उसे शक्तिशाली अंग्रेज़ी सत्ता ने छिन्न-भिन्न करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। अंग्रेज़ी सत्ता ने आदिवासियों की स्थापित आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था को अपने हित में मथ कर रख दिया। इसका प्रतिकार स्वाभाविक था। यह प्रतिकार अठारहवीं सदी के मध्य में हुए ढाल विद्रोह से लेकर बीसवीं सदी के शुरुआत में टाना भगत विद्रोह तक देखने को मिलता है। इस कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण बिरसा मुंडा के नेतृत्व में चला आंदोलन उलगुलान है।
मुंडा जनजाति से आने वाले बिरसा मुंडा को धरती आबा यानि अपने लोगों के बीच भगवान की मान्यता है। अंग्रेज़ी व्यवस्था में बढ़ते बाहरी प्रभाव से मुंडा समाज में हो रहे विघटन से आहत समाज की ओर से प्रतिकार के रूप में बिरसा मुंडा का व्यक्तित्व उभरता है। बिरसा का उलगुलान अतीत के दूसरे आदिवासी विद्रोहों आगे की प्रक्रिया थी। जहां पिछले सारे आंदोलनों में आदिवासी भूमि व्यवस्था में बदलाव के प्रति नाराज़गी और उस भूमि पर अधिकार की लड़ाई थी, वहीं बिरसा के आंदोलन में सामाजिक पुनर्गठन और धार्मिक चेतना का भी विस्तार था।
मिशनरियों ने बिरसा के पिता को बनाया इसाई
दुनिया भर में यूरोपीय सत्ता और इसाई धर्म एक-दूसरे का साथ देते हुए आगे बढ़ रहे थे। उनकी यही कार्यशैली आदिवासी क्षेत्रों में भी रही। अठारहवीं सदी में इन क्षेत्रों में अंग्रेज़ी सत्ता प्रवेश कर चुकी थी। इस सत्ता को मज़बूती देने के लिए सत्ता समर्थित इसाई मिशनरीज़ भी उतरीं। आदिवासी सहज और सरल ज़रूर थे लेकिन शुरुआत में मिशनरीज़ को उनकी आशाओं के विपरीत निराशा ही हाथ लगी।
मिशनरियों ने बड़े धैर्य से काम लिया और आख़िरकार उन्हें 1850 में पहली सफलता मिली। झारखंड में उरांव जनजाति के चार आदिवासियों ने इसाई बनना स्वीकार किया। 1851 अक्टूबर में पहला मुंडा आदिवासी बना। जहां एक ओर आदिवासियों की पारम्परिक भूमि व्यवस्था बदल गई तो वहीं इसाइयत के प्रभाव ने इनकी स्थापित सामाजिक व्यवस्था को झकझोर दिया। बिरसा मुंडा के परिवार में उनके बड़े चाचा पहले ईसाई बने। बाद में पिता सुगना भी जर्मन मिशन से जुड़ जाते हैं। वह प्रचारक के पद तक पहुंचते हैं। सुगना मुंडा को मसीह दास और बेटे बिरसा मुंडा को दाऊद मुंडा का नाम मिलता है।
बगावत कर सनातन धर्म में लौटे बिरसा
दाऊद मुंडा के पहचान से बिरसा यदि सन्तुष्ट होते हो उलगुलान होता ही नहीं। बिरसा की बेचैनी तब के एक आम मुंडा की बेचैनी थी। बिरसा इसाइयत और अंग्रेजों से बग़ावत कर जाते हैं। उन्हें अपने समाज का विघटन स्वीकार नहीं था। चैतन्य हो चुके बिरसा मुंडा अपनी पुरानी मान्यताओं की ओर लौटते हैं जहां सिंगबोंगा के साथ-साथ शिव महादेव बोंगा और पार्वती चंडी बोंगा के रूप में स्वीकार्य थे। जहां दसई, करमा, फागू, जितिया और महादेव मंडमेला त्यौहार की पुरानी मान्यता थी। इनके प्रभाव क्षेत्र वाले इलाक़ों में से एक तमाड़ में सूर्य और देवी की उपासना पद्धति के प्रचलन का प्रमाण तो सैकड़ों साल पुराना है। बिरसा को उनके लोगों के बीच अवतार माने जाने लगा।
लम्बे समय तक मिशनरियों के प्रभाव में रहने की वजह से बिरसा को उनकी कार्यशैली का ज्ञान था जिसका उपयोग उन्होंने अपने धार्मिक और भूमि आंदोलनों में जमकर किया। उत्साही और जुझारू बिरसा मुंडा अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन गये।
बिरसा के आंदोलन का उद्देश्य साफ़ था कि मुंडाओं की ज़मीनें मालगुज़ारी से मुक्त हों, उनके जंगलों के अधिकार उन्हें वापस किए जाएं। उन्हें किसी भी रूप में मुंडा समाज में बाहरी दख़ल नहीं चाहिए था। मुंडा समाज मानता था कि वे जंगल और ज़मीन के असली मालिक हैं। वह अपना राजा खुद चुनते हैं। उनका राजा भी उनकी ज़मीनों का मालिक नहीं ज़मीनों की लगान का प्रबंधक और उस धन से जनता का भरण-पोषण करने वाला पालक भर है। आंदोलन में मुंडाओं के अधिकारों पर बराबर ज़ोर दिया गया। 1899-1900 में मुंडाओं के विचारों के अनुसार आदर्श भूमि-व्यवस्था तभी संभव हो सकती थी जब यूरोपीय, अफ़सर और मिशनरी के लोग उनके क्षेत्र से पूरी तरह हट जाएं।
एक-दूसरे से भिन्न नहीं था बिरसा का राज और धर्म
बिरसा के आंदोलन का सर्वोच्च राजनीतिक लक्ष्य यह था कि बिरसा के नेतृत्व में एक राज स्थापित किया जाए और उस पर क़ब्ज़ा क़ायम रखा जाए। उल्लेखनीय यह भी है कि बिरसा का धर्म और उनका राज एक-दूसरे से अलग नहीं, बल्कि आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े रहेंगे। इस आंदोलन से मुंडाओं को न केवल अपना खोया राज वापस से हासिल करना था बल्कि अपना धर्म भी वापस लाना था।
यूरोपायों का इस बात से तीव्र विरोध स्वाभाविक था। उन्होंने अपनी पूरी ताक़त से बिरसा के आंदोलन को कुचला। उनके हाथ शक्ति थी, आंदोलन को दबाने में सफल ज़रूर हुए। परंतु उन्हें इस बात का मलाल ज़रूर रहा कि उनकी व्यवस्था के भीतर के आदमी दाऊद मुंडा को वापस बिरसा मुंडा होने से रोक नहीं सके। यह अंग्रेजों की बड़ी हार थी। अंग्रेज़ों की यही नैतिक हार बिरसा मुंडा को महानायक बनाती है।
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