भारत में वन सम्पदा के संरक्षण के लिए अनेक आन्दोलन हुए हैं। विश्नोई आन्दोलन, चिपको आन्दोलन, अप्पिको आंदोलन आदि। इन आन्दोलनों के कारण ही लोगों में वन संपदा को बचाने के प्रति जागरूकता आई। यहां देश के चर्चित जन-आंदोलनों से जुड़ी कुछ रुचिकर जानकारियां दी जा रही हैं।
विश्नोई आंदोलन
मध्यकालीन राजस्थान से हमें पर्यावरण चेतना का एक शानदार उदाहरण मिलता है। विश्नोई सम्प्रदाय के संस्थापक जम्भोजी (1451-1536 ई.) द्वारा अपने अनुयायियों के लिए 29 नियम बनाये गये थे। जानना दिलचस्प होगा कि इन्हीं 29 अर्थात 20 और 9 नियमों के कारण ही इस सम्प्रदाय का नाम ’’विश्नोई’’ पड़ा। इस आंदोलन का मूल मकसद था हरे-भरे वृक्षों को काटने से रोकना तथा पशुवध के खिलाफ लोगों को जागरूक करना। इस आंदोलन के पीछे एक अत्यन्त मार्मिक कथानक है। सन् 1730 में जोधपुर के महाराजा अजय सिंह ने एक विशाल महल बनाने की योजना बनायी। जब निर्माण कार्य के लिए लकड़ी की जरूरत पड़ी तो राजा के हुक्मरानों ने सुझाव दिया कि राजस्थान में केवल एक ही जगह खिजड़ी गांव में मोटे-मोटे पेड़ हैं। तब महाराजा के हुक्म पर लकड़हारे उस गांव में पहुंचे। कहा जाता है कि गांव की एक महिला ने जैसे ही पेड़ कटने की आवाज सुनी तो उसने मौके पर पहुंचकर लकड़हारे को रोका। पेड़ काटने वालों ने कहा कि राजा का आदेश है। इस पर अमृता देवी नाम की उस महिला ने कहा, भले ही राजा का हुक्म हो लेकिन यह हमारे धर्म के खिलाफ है और हम अपने प्राणों की आहुति देकर भी अपने धर्म की रक्षा करेंगे और यह कहकर वह महिला पेड़ से लिपट गयी और उसने पेड़ की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी। अपनी मां का यह बलिदान देख उसकी तीनों बेटियों ने भी बारी-बारी से पेड़ों से लिपट कर शहादत दे दी। देखते ही देखते उस गांव के 363 विश्नोइयों ने पेड़ों की रक्षा के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया।
माना जाता है कि विश्नोई समाज का यह बलिदान ही यहां वन संरक्षण आंदोलन का आधार बना। कालान्तर में जब सुविख्यात वृक्ष-प्रेमी रिचर्ड बरवे बेकर भारत आए और उन्होंने यह कहानी सुनी तो वह गदगद हो गए। उन्होंने विश्व के सभी देशों में ‘वृक्ष मानव संस्था’ के माध्यम से इस कहानी को प्रचारित करते हुए कहा कि भारत की संस्कृति सचमुच महान है। आगे चलकर इसी आंदोलन ने उत्तराखंड के लोगों को चिपको आंदोलन के लिए प्रेरित किया।
चिपको आंदोलन
चिपको आंदोलन मूलत: उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए वहां के लोगों द्वारा 1970 के दशक में प्रख्यात पर्यावरण संरक्षक स्व. सुन्दरलाल के नेतृत्व में आरम्भ किया गया था। पेड़ों की रक्षा के लिए लोग अपनी जान की परवाह किये बिना उनसे चिपक गये, ताकि कोई उन्हें काट न सके। दरअसल यह आलिंगन प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसे “चिपको” की संज्ञा दी गयी। बताते चलें कि इस आंदोलन के पीछे 1970 में आई भयंकर बाढ़ से उपजी पारिस्थितिकीजन्य विभीषिका थी जिसमें 400 किमी दूर तक का इलाका ध्वस्त हो गया था। अनेक पुल, हजारों मवेशी, लाखों रुपये की लकड़ी बहकर नष्ट हो गयी। 8.5 लाख एकड़ भूमि सिंचाई से वंचित हो गयी और 48 मेगावाट बिजली का उत्पादन ठप हो गया। अलकनंदा की इस त्रासदी ने पर्वतीय ग्रामवासियों को इस आंदोलन के लिए प्रेरित किया।
इस आंदोलन को उस ब्रिटिशकालीन वन अधिनियम से जोड़कर भी देखा जा सकता है जिसने पहाड़ी समुदाय को उनकी दैनिक आवश्यकताओं के लिए वनों के सामुदायिक उपयोग से वंचित कर दिया था। चिपको आंदोलन का मूल केंद्र चमोली का रेनी गांव माना जाता है। यह गांव भारत-तिब्बत सीमा पर जोशीमठ से लगभग 22 किलोमीटर दूर ऋषिगंगा और विष्णुगंगा के संगम पर बसा है। वन विभाग ने इस क्षेत्र के अंगु के 2451 पेड़ साइमंड कंपनी को ठेके पर दिये थे। यह खबर मिलते ही चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में 14 फरवरी 1974 को एक सभा की गयी जिसमें लोगों को चेताया गया कि यदि अंगु के पेड़ गिराये गये तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड जायेगा। ये पेड़ न सिर्फ हमारी चारे,जलावन और जड़ी-बूटियों की जरूरत पूरी करते हैं बल्कि मिट्टी का क्षरण भी रोकते हैं। गांव वाले इस हल्की व बेहद मजबूत लकड़ी से अपनी जरूरत के मुताबिक खेती बाड़ी के औजार बनाते थे। गांवों के लिए यह लकड़ी बहुत जरूरी थी। आज भी पहाड़ी खेती में बैल का जुआ सिर्फ इसी लकड़ी से बनाया जाता है क्यूंकि इसके हल्केपन के कारण बैल जल्दी थकता नहीं है। साथ ही यह अपनी मजबूती के कारण बरसों तक टिकी रहती है।
गांव वालों को जब पता चला कि वन विभाग ने खेल-कूद का सामान बनाने वाली इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी को गोपेश्वर से एक किलोमीटर दूर मण्डलवन से अंगू के पेड़ काटने की इजाजत दे दी है तो उन्होंने आंदोलन की राह पकड़ ली। इस सभा के बाद 15 मार्च को गांव वालों ने रेनी जंगल की कटाई के विरोध में जुलूस निकाला। ऐसा ही जुलूस 24 मार्च को विद्यार्थियों ने भी निकाला। जब आंदोलन जोर पकड़ने लगा ठीक तभी सरकार ने घोषणा की कि चमोली में सेना के लिए जिन लोगों के खेतों का अधिग्रहण किया गया था, वे अपना मुआवजा ले जाएं। एक ओर गांव के वे पुरुष मुआवजा लेने चमोली चले गये तो दूसरी ओर सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए जिला मुख्यालय गोपेश्वर बुला लिया। इस मौके का लाभ उठाते हुए ठेकेदार और वन अधिकारी जंगल में घुस गये। अब गांव में सिर्फ महिलाएं ही बची थीं। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। जान की परवाह किये बिना 27 औरतों ने गौरादेवी के नेतृत्व में पेड़ों से चिपककर आंदोलन शुरू कर दिया। गोपेश्वर में वन कटाई रुकते ही इस वन आंदोलन ने समूचे पर्वतीय अंचल में जोर पकड़ लिया। बहुगुणा जी के नेतृत्व में पूरे चमोली जिले में कई पदयात्राओं का आयोजन हुआ। इस तरह वनों और वनवासियों का शोषण करने वाली ठेकेदारी प्रथा को समाप्त करने, वन श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी के निर्धारण, नया वन बंदोबस्त कानून और स्थानीय छोटे उद्योगों के लिए रियायती कीमत पर कच्चे माल की आपूर्ति की मांगों को लेकर शुरू हुआ चिपको आंदोलन वन सम्पदा संरक्षण का एक सशक्त जनआंदोलन बन गया।
अप्पिको आंदोलन
वनों और वृक्षों की रक्षा के लिए उत्तराखंड के चिपको आंदोलन से प्रेरित होकर दक्षिण में “अप्पिको आंदोलन” शुरू हुआ। ‘अप्पिको’ कन्नड़ भाषा का शब्द है जो चिपको का पर्याय है। पर्यावरण संबंधी जागरूकता का यह आंदोलन अगस्त 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ क्षेत्र में शुरू हुआ। सितंबर 1983 में सलकानी तथा निकट के गांवों से युवा तथा महिलाओं ने पास के जंगलों तक पांच मील की यात्रा कर राज्य के वन विभाग के आदेश से कट रहे पेड़ों की कटाई रुकवाई। उन्होंने अपनी आवाज बुलंद कर कहा कि हम व्यापारिक प्रयोजनों के लिए पेड़ों को बिल्कुल भी नहीं कटने देंगे; पेड़ काटने हैं तो पहले हमारे ऊपर कुल्हाड़ी चलाओ। यह आंदोलन इतना लोकप्रिय हुआ कि पेड़ काटने आये मजदूर भी पेड़ों की कटाई छोड़ उस आंदोलन से जुड़ गये। जल्द ही यह आंदोलन बेन गांव के समूचे आदिवासी बहुल क्षेत्र में भी फैल गया। वहां लोगों ने देखा कि बांस के पेड़ जिनसे वे रोजमर्रा के जीवन की अनेक उपयोगी चीजें जैसे टोकरी, चटाई, घर निर्माण करते हैं, ट्रैक्टर से उनकी अंधाधुंध कटाई हो रही है तो आदिवासी लोगों ने पेड़ों की रक्षा के लिए उन्हें गले से लगाया। इस आंदोलन से प्रेरित होकर हरसी गांव में कई हजार स्त्री-पुरुष पेड़ों के व्यावासायिक कटान के खिलाफ लामबंद हो गये और सरकार को झुकना पड़ा। यहां से यह आंदोलन निदगोड (सिददापुर तालुक) तक फैल गया। वहां 300 लोगों ने इक्कठा होकर पेड़ों को गिराये जाने की प्रक्रिया को रोककर सफलता प्राप्त की। इस तरह अप्पिको आंदोलन अपने तीन प्रमुख उद्देश्यों में -मौजूदा वन क्षेत्र का संरक्षण करने,खाली भूमि पर वृक्षारोपण तथा प्राकृतिक संसाधनों के सदुपयोग में पूरी तरह सफल रहा । पर्यावरणविद वंदना शिवा के शब्दों में कहें तो “यह मानव अस्तित्व के खतरे को रोकने के लिए सभ्य समाज का सभ्य उत्तर था”।
इनसेट
मौर्य शासनकाल में हुआ था वैज्ञानिक वानिकी का शुभारम्भ
हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण का इतिहास सदियों पुराना है। हड़प्पा संस्कृति पर्यावरण से ओत-प्रोत थी। साक्ष्य बताते हैं कि भारत में वैज्ञानिक वानिकी का शुभारम्भ चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में हुआ था तथा उनके शासनकाल से लेकर अशोक महान तक देश में पर्यावरण संरक्षण की सुदीर्घ परम्परा दृष्टिगोचर होती है। सम्राट अशोक के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि उस समय वन एवं वन्य प्राणियों के संरक्षण हेतु कई अभयारण्य बनाये गये थे। वन्य सम्पदा के संरक्षण के प्रति यह प्रेम मध्यकालीन भारत में भी बना रहा। दिल्ली सल्तनत ने पर्यावरण को शुद्ध रखने हेतु वृक्षारोपण के अनेक योजनाएं चलायीं। इस बात की साक्षी समूचे देश में मौजूद मुगलकालीन बाग आज भी देते हैं। परन्तु, ब्रिटिशकालीन शासन के दौरान हमारी अमूल्य राष्ट्रीय सम्पदा के दोहन की विनाशकारी नीतियों के चलते देश में पारिस्थितिकी असंतुलन की जो समस्या शुरू हुई, वह आज चरम पर पहुंच चुकी है।
—पूनम नेगी
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