सऊदी सरकार ने मस्जिदों में लाउडस्पीकर की आवाज एक तिहाई तक रखने का आदेश दिया है। शुरुआत में कुछ कट्टरपंथी ताकतों ने इसका विरोध किया तो सऊदी सरकार ने उन्हें देश का दुश्मन कह दया। नियम न मानने वालों पर कानून कार्रवाई की बात कर दी। अब सभी खामोश हैं। लेकिन क्या आप भारत में ऐसी कल्पना कर सकते हैं कि लोगों की नींद को खलल से बचाने के लिए मस्जिद के लाउडस्पीकर की आवाज धीमी करने को कहा जाए।
आसपास रहने वाले लोगों को अत्याधिक शोर के कारण होने वाली तकलीफों के चलते मस्जिद में लगे लाउडस्पीकर के वाल्यूम को कम करने की बात की जाए तो (सेक्यूलरिज्म का लबादा ओढ़े) सामान्य भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह धार्मिक स्वतंत्रता में बाधा डालने जैसी कार्रवाई मानी जा सकती है लेकिन जब इस्लाम के सबसे पवित्र स्थल मक्काह, मदीना जिस देश सऊदी अरब में हैं, वहीं की सरकार का इस्लामी मामलात मंत्री खुद यह बात कहे तो बात के मायने ही बदल जाते हैं।
अब आते हैं मुख्य मुद्दे पर। गत सप्ताह सऊदी अरब सरकार ने मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकर्स का वाल्यूम सीमित करने का आदेश दिया था। इस्लामी मामलात मंत्री अब्दुल लतीफ अल शेख के आदेश के मुताबिक़ लाउडस्पीकर के वॉल्यूम को उसकी क्षमता का एक तिहाई रखा जाए। साथ ही नियमों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की चेतावनी भी दी गई। मस्जिदों से जुड़े लोगों को बाहरी लाउडस्पीकर्स का इस्तेमाल सिर्फ अजान (नमाज के लिए बुलावा) और इकामत (नमाज के लिए तकबीर) के लिए करना होगा। साथ ही आवाज भी कम रखनी होगी’।
कट्टरपंथी गुट नाराज, सऊदी सरकार अडिग
इस सरकारी आदेश पर मुस्लिम कट्टरपंथी गुटों ने नाराज़गी जताई है। कट्टरपंथी गुटों के विरोध को ख़ारिज करते हुए सऊदी अरब सरकार के इस्लामी मामलात मंत्री अब्दुल लतीफ अल शेख की ओर से सोमवार को फिर कहा गया है कि यह कार्रवाई आसपास रहने वाले परिवारों की शिकायत पर की गई है। उनका कहना है कि इस शोर से उनके बच्चे व बुजुर्ग आराम से सो नहीं पा रहे हैं। सऊदी अरब के सरकारी टेलीविजन पर जारी वीडियो संदेश में मंत्री ने साफ तौर पर कहा कि जिनको नमाज पढ़नी है, वे इमाम के निमंत्रण की प्रतीक्षा नहीं करेंगे। उनको तो समय से पहले मस्जिद पहुंच जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि अनेक टीवी चैनल नमाज व पवित्र कुरान की आयतों का प्रसारण करते हैं। ऐसे में लाउडस्पीकर का तो बहुत ही सीमित उपयोग रह जाता है। उन्होंने कहा कि हमारी लाउडस्पीकर नीति का विरोध वहीं लोग कर रहे हैं जो राज्य शासन के दुश्मन हैं और जबरन विरोध का माहौल बनाना चाहते हैं।
अलजजीरा ने अपनी साइट पर लिखा कि इस देश में हजारों मस्जिदें होने के कारण अनेक लोगों ने इसे ध्वनि प्रदूषण कम करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना है। इस नीति को भी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की उदारवाद नीति का ही हिस्सा माना जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में वहां सिनेमा और महिलाओं की ड्राइविंग पर लगी रोक हटाई जा चुकी है। खेल व संगीत समारोह में अब महिला व पुरुष एक साथ शामिल हो सकते हैं। पहले इस पर भी प्रतिबंध था।
पिछले दिनों केरल से एक खबर आई थी कि मुस्लिम बाहुल मल्लपुरम में कुछ मस्जिदों ने अज़ान के लिए अपनी मर्जी से लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल बंद कर दिया था ताकि स्थानीय लोगों, खासकर गैर मुसलमानों को दिक्कत न हो। यह एक अच्छी पहल है, पर एकाध पहल से कुछ बदलने वाला नहीं है। वैसे अक्सर बहस होती रहती है कि लाउडस्पीकर पर अज़ान देना इस्लामी है या गैर इस्लामी। सऊदी अरब के फैसले से यह तो सिद्ध हो गया कि लाउडस्पीकर से अजान देना बहुत जरूरी नहीं है यानी इस्लामिक परंपराओं का हिस्सा नहीं है। आज भारत की लगभग तीन लाख मस्जिदों में शायद ही ऐसी कोई मस्जिद हो जहां लाउडस्पीकर न लगे हो।
70 के दशक में शैतान माना जाता था लाउडस्पीकर
इस्लामी लेखक नजमुल होदा लिखते हैं कि अजान कैसे दी जानी चाहिए, इसका इतिहास काफी पेचीदा है। पैगंबर ने किसी यंत्र की जगह आदमी की आवाज़ को तरजीह दी थी और 1970 के दशक में मुस्लिम समुदाय ने लाउडस्पीकर को ‘शैतान’ के रूप में देखा था। अज़ान दिन में पांच बार नमाज पढ़ने की खातिर मुसलमानों को इकट्ठा होने के लिए मस्जिद से दी जाती है। पैगंबर मुहम्मद ने यह प्रथा मदीना में बसने के बाद और वहां मस्जिद बनवाने के बाद शुरू की थी। पांच वक़्त की नमाज के लिए लोगों को मस्जिद में बुलाने के तरीके के बारे में उन्होंने अपने साथियों से सलाह-मशविरा किया। किसी ने इसके लिए घंटी बजाने, किसी ने भोंपू बजाने, तो किसी ने आग जलाने का सुझाव दिया। लेकिन अल्लाह की प्रेरणा के तहत पैगंबर ने मनुष्य के पक्ष में फैसला किया और इसके लिए एक अश्वेत गुलाम, बिलाल को चुना, जिसे आज़ाद किया जा चुका था।
मनुष्य की आवाज़ बिलाल की आवाज़ की तरह मध्यम सुर वाली ही क्यों न हो, उतनी दूर नहीं जाएगी, जितनी दूर घंटी या भोंपू जैसे यंत्रों की आवाज़ जाएगी। लेकिन पैगंबर ने यंत्र की तेज आवाज़ की जगह मनुष्य की कम ऊंची आवाज़ को चुना। जाहिर है, इसमें उनके अनुयायियों के लिए एक सबक छिपा है कि उन्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि पैगंबर ने जिसके हक़ में फैसला दिया था, वह मनुष्य की आवाज़ लाउडस्पीकर की मदद से तेज हो जाने के बाद भी क्या मनुष्य की आवाज़ रह जाती है? इसलिए, मजहब के नजरिए से लाउडस्पीकर का कोई औचित्य नहीं है।
इलाहाबद उच्च न्यायालय ने भी गैर-जरूरी बताया था
2020 में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने कहा कि इस्लाम के मजहबी कामकाज के लिए अज़ान हालांकि अनिवार्य है, लेकिन लाउडस्पीकर का इस्तेमाल जरूरी नहीं है। इस अदालत ने सन 2000 में ‘चर्च ऑफ गॉड (फुल गोस्पेल) इन इंडिया बनाम केकेआर मैजेस्टिक’ मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सहारा लिया था, जिसमें कहा गया है कि ‘कोई भी धर्म या धार्मिक संप्रदाय दावा कर सकता है कि लाउडस्पीकर या ऐसे यंत्र का प्रार्थना या पूजा में अथवा धार्मिक पर्वों में इस्तेमाल उसका अनिवार्य हिस्सा है, जिसे अनुच्छेद 25 के तहत सुरक्षा हासिल है।’ आखिर, लाउडस्पीकर 20वीं सदी का आविष्कार है, लेकिन धर्मों का इतिहास तो सहस्राब्दियों पुराना है।
उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देश
भारत में उच्चतम न्यायालय ने लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल के लिए एक गाइडलाइन तय कर रखी है। इसके तहत लाउडस्पीकर की आवाज़ की एक सीमा तय की गई थी। इसके अलावा रात दस बजे से सुबह छह बजे तक लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल पर पांबदी लगी हुई है क्योंकि संविधान की धारा 21 के तहत चैन की नींद सोना नागरिकों के अधिकारों के दायरे में आता है।
2017 में, गायक सोनू निगम अपने इस ट्वीट के कारण विवाद के केंद्र बन गए थे- ‘मैं मुसलमान नहीं हूं, पर मुझे सुबह में अज़ान की वजह से जाग जाना पड़ता है। भारत में धार्मिकता को इस तरह थोपना कब बंद होगा?’
मुस्लिमों का एक तबका भी रोक के पक्ष में
तारेक फतेह का भी मानना है कि मस्जिद में लाउडस्पीकर का कोई स्थान नहीं है क्योंकि यह तो इस्लामी परम्परा और पैगंबर मोहम्मद की सुन्नत के खिलाफ है। वे तो स्पष्ट लिखते हैं कि भारत में इसका उपयोग राजनीतिक तौर पर गैर मुस्लिमों को चिढ़ाने और यह जताने के लिए किया जाता है कि यह हमारा जीता हुआ इलाका है। उन्होंने तो मस्जिदों में लाउडस्पीकर के खिलाफ विश्वव्यापी हस्ताक्षर अभियान भी चलाया था।
इस्लाम की चौदह सौ साल पुरानी अवधारणाओं को वर्तमान समसामयिक संदर्भों में पुर्नव्याख्यायित करने वाले सिने कलाकार इरफान खान संभवतः पहले ऐसे भारतीय मुसलमान होंगे जिन्होंने साहस और प्रतिबद्धता के साथ अपनी बात रखी, इस्लाम के स्वरूप और उसकी पद्धतियों के बारे में आत्ममंथन की आवश्यकता बतायी तथा इस्लाम का ऐसा स्वरूप सामने रखा जो सुधारवादी एवं मानवीयता के मूल्यों से ओत-प्रोत है।
जाहिर है, इससे कट्टरपंथी और रुढ़िवादी मुल्लाओं में परेशानी तथा विरोध पैदा हुआ। वे इरफान से कह रहे थे कि तुम अपने को अभिनय तक सीमित रखो और इस्लाम के बारे में अपनी राय बताने का साहस मत करो। इरफान का कहना है कि वह केवल अपनी व्यक्तिगत राय बता रहे हैं, जिसका उनको हक है।
पढ़े-लिखे और आधुनिक सोच वाले मुस्लिम विद्वान जैसे मौलाना आजाद विश्वविद्यालय के कुलपति जफर सरेशवाला ने इरफान का समर्थन किया और कुरान की उन आयतों का हवाला दिया है जिनमें अल्लाह कह रहे हैं कि तुम्हारा दिया गया गोश्त और खून मुझ तक नहीं पहुंचता, मुझ तक तुम्हारे दिल के जज्बात पहुंचते हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के विख्यात हस्ताक्षर, पदमश्री से सम्मानित इन्फोसिस के डायरेक्टर रहे टीवी मोहनदास पई ने भी सवाल उठाया है जब सउदी अरब में यह नियम लागू हो सकता है तो भारत में क्यों नहीं? अब बड़ा सवाल यही है कि जब उदारवाद की बयार सऊदी अरब जैसे देश में चल सकती है तो भारत में क्यों नहीं? दुनिया भर में आखिर वे कौन लोग हैं जो ये बंदिशें हटने से दुखी और तनावग्रस्त होते जा रहे हैं। समय रहते उनकी पहचान व निदान खोजा जाना अत्यंत आवश्यक है।
=सुदेश गौड़
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
टिप्पणियाँ