हाल के विधानसभा चुनाव में करारी हार के कारण कांग्रेस नेता राहुल गांधी सहित गांधी परिवार के नेतृत्व पर गंभीर सवालिया निशान लग गया है। कांग्रेस के गुट-23 ने पहले ही मोर्चा खोल रखा था और अब पंजाब-राजस्थान सहित कई राज्यों में घमासान ने आलाकमान की नींद उड़ा कर रखी है। सवाल उठ रहा है कि क्या कांग्रेस को टूट से बचाने के लिए राहुल गांधी कोरोना विरोधी सियासत की आड़ ले रहे हैं? क्या सरकार विरोधी टूलकिट भी कांग्रेस की अंदरूनी घमासान का हिस्सा तो नहीं?
कांग्रेस के शीर्ष नेता और पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की कार्यशैली को लेकर अक्सर सवाल उठते रहते हैं लेकिन इस बार केवल राहुल गांधी ही नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी का शीर्ष परिवार गांधी परिवार सवालों के घेरे में हैं। कारण हाल ही में विधानसभा चुनाव खासकर असम और केरल में कांग्रेस पार्टी की हार का सवाल कांग्रेस पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने आया तो उन्होंने झट से हार की समीक्षा करने के लिए एक कमेटी बना दी। दरअसल केरल में जहां राहुल गांधी ने विधानसभा चुनाव में जमकर प्रचार किया, वहीं असम में प्रियंका गांधी वढेरा ने कांग्रेस के लिए प्रचार किया। सोनिया गांधी सहित राहुल गांधी और प्रियंका गांधी सहित कांग्रेसजन यह मानकर चल रहे थे कि केरल और असम में कांग्रेस सत्ता में वापसी करेगी लेकिन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस बुरी तरह चुनाव हार गई। केरल से सांसद राहुल गांधी केरल में ही कांग्रेस गठबंधन को चुनाव जितवा पाने में कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए और न ही असम में प्रियंका गांधी के प्रचार करने के बावजूद कोई करिश्मा हुआ।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस में यदि कुछ शुरू हुआ तो घमासान शुरू हुआ। कांग्रेस अपने भीतर मचे इस घमासान के शोर को अपनी कथित कोरोना टूलकिट के जरिए दबाने की कोशिश कर रही है और अपने शीर्ष नेताओं की विफलता को छिपा रही है और शायद इसी रणनीति के तहत राहुल गांधी और उनके करीबी नेता कोरोना को लेकर केंद्र सरकार के खिलाफ अधिक आक्रामक दिख रहे हैं। पर असल में कांग्रेस की हालत ये है कि दिल्ली में सक्रिय तमाम बड़े नेताओं से लेकर राज्यों तक में पार्टी के क्षत्रपों के बीच घमासान मचा हुआ है। दिल्ली में जी—23 गुट ने सोनिया गांधी की नींद उड़ाई हुई है तो केरल से लेकर राजस्थान और पंजाब से लेकर दूसरे राज्यों तक जबरदस्त गुटबाजी है। कांग्रेस शासित पंजाब और राजस्थान में कांग्रेस नेता, विधायक मंत्री आपस में ही राजनीतिक गुत्थम-गुत्था कर रहे हैं।
पंजाब में कैप्टन के विरुद्ध खेमेबंदी
पंजाब कांग्रेस का इन दिनों कुछ ऐसा ही हाल है। 2015 में हुए गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी और कोटकपूरा गोलीकांड मामले में नवजोत सिंह सिद्धू ने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है। तो मुख्यमंत्री पर लगातार हमलावर नवजोत सिंह सिद्धू के खिलाफ डेढ़ साल पुराने मामले में विजिलेंस जांच शुरू कर दी गई। कैबिनेट मंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के खिलाफ महिला आयोग ने मी-टू के ढाई साल पुराने मामले को खोलने का दांव चला तो कांग्रेस के एक और विधायक परगट सिंह ने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के राजनीतिक सलाहकार संदीप संधू पर प्रॉपर्टी को लेकर विजिलेंस जांच शुरू करने की धमकी देने का आरोप लगा दिया। इस बीच पंजाब सरकार के सात मंत्री अमरिंदर सिंह के पक्ष में आगे आ गए और सिद्धू के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग कांग्रेस आलाकमान से की। लेकिन दूसरी ओर, अमरिंदर सिंह के सियासी विरोधी सिद्धू के साथ आ खड़े हो गए। इनमें प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और सांसद प्रताप सिंह बाजवा से लेकर विधायक परगट सिंह शामिल हैं। इसके अलावा राज्य सरकार के मंत्री चरणजीत सिंह चन्नी भी कैप्टन पर हमलावर हैं। प्रताप सिंह बाजवा ने एक चैनल से सीधी बातचीत में यहां तक कह दिया कि पंजाब में ऐसा लग ही नहीं रहा है कि यहां कोई चुनी हुई सरकार है और ऐसा लग रहा है कि गवर्नर का राज है। अमरिंदर राज में तीन अफसरों के अलावा किसी मंत्री, विधायक या कार्यकर्ता की कोई सुनवाई नहीं है। इस घमासान के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है, इस पर भी बात करनी ही होगी। यहां ये बात अहम है कि जिस बात को लेकर सिद्धू अमरिंदर से नाराज हैं, उसी बात को लेकर बाजवा और रंधावा भी। तीनों का यही कहना है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान वादा किया था कि वे सरकार बनने पर गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी और कोटकपूरा गोलीकांड मामले में दोषी लोगों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे लेकिन साढ़े चार साल बीतने के बाद भी कुछ नहीं हुआ। तीनों नेताओं का कहना है कि पंजाब की जनता के साथ इंसाफ नहीं हुआ है और अमरिंदर सिंह ने बादल परिवार को बचाने की कोशिश की है। अमरिंदर सिंह भी इस मामले में पाक साफ नहीं हैं, वरना उनके विरोध में इतनी सारी आवाजें एक साथ बुलंद नहीं होतीं।
बाजवा ने कैप्टन को दिए 45 दिन
कैप्टन विरोधी सियासत में चरणजीत सिंह चन्नी अहम भूमिका अदा कर रहे हैं। राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा भी है कि चन्नी ने पटियाला में नवजोत सिंह सिद्धू के साथ बैठक की थी। उसके बाद धीरे-धीरे सभी नेताओं को एक मंच पर लाया गया। मौके की नजाकत को देखते हुए चन्नी ने कांग्रेस के दलित विधायकों के साथ बैठक भी की। ठीक एक साल पहले 15 मई 2020 को भी चन्नी ने अपनी सरकारी कोठी पर दलित मंत्रियों व विधायकों के साथ बैठक की थी। इस बैठक में एजेंडा दलितों को लेकर लंबित पड़े मुद्दों का था लेकिन तब स्थिति अलग थी। पार्टी सूत्र बताते हैं कि पंजाब सरकार और कांग्रेस संगठन में इस कलह की नींव पिछले महीने हुई कैबिनेट बैठक में ही पड़ गई थी। अब कलह इतनी है कि कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य प्रताप सिंह बाजवा ने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को 45 दिन का समय दे दिया। बाजवा का कहना है कि इस समय के दौरान कैप्टन ने गुरु को लेकर जो वादे किए थे, उसे पूरा करें। श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी करने वालों व संगत पर गोली चलाने वालों को पकड़ें। इन 45 दिनों में अगर ऐसा नहीं होता है तो प्रताप सिंह बाजवा भी आजाद होंगे और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी। यह 45 दिन की अवधि आगामी जुलाई के पहले सप्ताह में खत्म होगी। बाजवा ने कहा कि हम केवल यह चाहते हैं कि गुटका साहिब हाथ में लेकर गुरु से जो वादे किए गए थे, वह पूरे किए जाएं।
कांग्रेस के पूर्व प्रदेश प्रधान रहे प्रताप सिंह बाजवा से जब मीडिया ने यह पूछा कि क्या 2022 के चुनाव पर कांग्रेस की धड़ेबंदी का असर नहीं पड़ेगा और इस विवाद का अंत क्या होगा, इस पर उन्होंने कहा कि यह कोई धड़ेबंदी नहीं है। हम केवल यही तो चाह रहे हैं कि जो वादे 2017 में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने किए थे, उसे मुख्यमंत्री पूरा कर दें। हम किसी की मुखालफत नहीं कर रहे हैं, बल्कि वही बात उठा रहे हैं जिसे पूरा करने का वादा खुद कैप्टन ने किया था। बाजवा ने कहा, मुख्यमंत्री अगर जुलाई के पहले सप्ताह तक ऐसा नहीं करते हैं तो फिर वह भी आजाद होंगे और मैं भी। हालांकि बाजवा ने यह स्पष्ट नहीं किया कि कैप्टन और वह आजाद कैसे होंगे। एक अन्य सवाल के जवाब में बाजवा ने कहा कि जो लोग चाहते हैं कि गुरु के साथ जो वादे किए गए हैं, उन्हें पूरा किया जाए, हम उसके संपर्क में है। क्या बाजवा सिद्धू के संपर्क में हैं? इसके जवाब में बाजवा ने कहा, हां हम संपर्क में है। अगर सरकारी एजेंसियां किसी के खिलाफ भी कोई जुर्म करेगी तो हम एकजुट होंगे। अहम बात यह है कि बाजवा ने यह कहकर उन चर्चाओं को निर्मूल साबित कर दिया, जिसमें कहा जा रहा था कि हाईकमान की घुड़की के बाद विरोधी गुट शांत पड़ गया है।
प्रियंका ने की कैप्टन से अपील
इस बीच कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने संगठन प्रभारी केसी वेणुगोपाल से बात कर राज्य की राजनीतिक स्थिति से उन्हें अवगत करा दिया था। इसके बाद जाखड़ ने बयान जारी कर आम आदमी पार्टी में संभावनाएं ढूंढने वाले पार्टी नेताओं से सचेत रहने की अपील की थी। जाखड़ ने भले ही इस बयान में किसी का नाम नहीं लिया था। 45 दिन के बाद क्या होगा, इसे लेकर बाजवा अपने पत्ते नहीं खोल रहे हैं। पर पंजाब में कैप्टन सरकार और कांग्रेस के नेताओं के बीच चल रहे घमासान को रोकने के लिए कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका वाड्रा ने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से मामले को सुलझाने की अपील की है। पंजाब कांग्रेस मामलों के प्रभारी हरीश रावत ने विधायक परगट सिंह को मुख्यमंत्री के सलाहकार द्वारा दी गई धमकी को गलत बताया है। उन्होंने कहा है कि इस मामले में परगट सिंह की नाराजगी को दूर किया जाना चाहिए। हालांकि एक मीडिया रिपोर्ट में परगट सिंह ने कहा कि सीएम के सलाहकार कैप्टन संधू उनके अच्छे दोस्त हैं लेकिन उन्हें जो धमकी दी थी, वो कैप्टन के इशारे पर दी थी। सुनील जाखड़ ने कहा है कि पार्टी नेताओं को ऐसे नेताओं से बचना चाहिए जो आपदा में अवसर ढूंढ रहे हैं। तो दूसरी ओर पूर्व मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने विधायक को दिल्ली जाकर हाईकमान के सामने पंजाब की सच्चाई बताने को कहा है। यानी आने वाले दिनों में पंजाब कांग्रेस का घमासान हाईकमान के दरबार में होगा।
राजस्थान में फिर सियासी भूचाल
उधर ढाई साल पहले सरकार में आने के बाद मुख्यमंत्री पद की कुर्सी को लेकर राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच शुरू हुआ विवाद जारी है। पायलट मुख्यमंत्री तो नहीं बन सके, लेकिन उपमुख्यमंत्री बनकर करीब डेढ़ साल तक उन्होंने गहलोत को स्वतंत्र रूप से फैसले नहीं लेने दिए। दोनों के बीच खींचतान इतनी बढ़ी कि पिछले साल पायलट ने अपने समर्थक मंत्रियों व विधायकों के साथ मानेसर में डेरा जमा लिया और गहलोत को हटाने का प्रयास किया। हालांकि उनकी यह रणनीति सफल नहीं हो सकी और पार्टी आलाकमान के हस्तक्षेप के बाद वे वापस जयपुर आ गए थे। उस समय कांग्रेस के तत्कालीन कोषाध्यक्ष अहमद पटेल व महासचिव प्रियंका गांधी ने पायलट खेमे को सत्ता व संगठन में भागीदारी देने का आश्वासन दिया था। विवाद निपटाने के लिए एक कमेटी भी बनाई गई थी। लेकिन आश्वासन पूरा नहीं होने से अब पायलट खेमे का धैर्य जवाब देने लगा। दो माह पूर्व विधानसभा सत्र के दौरान पायलट खेमे के विधायकों ने सरकार को कई मुद्दों पर घेरा था। अब वरिष्ठ कांग्रेस विधायक हेमाराम चौधरी के विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफा भेजे जाने के बाद राजस्थान में फिर से सियासी भूचाल के कयास लगाए जा रहे हैं।
हेमाराम चौधरी के इस्तीफे को पायलट खेमे के अंदर भभक रहे लावे की चिंगारी के रूप में देखा जा रहा है जो आने वाले दिनों में फिर से सियासी संकट की वजह बन सकता है। चौधरी के इस्तीफे को पायलट खेमे का एक बड़ा दांव माना जा रहा है। यह गहलोत कैम्प की मुश्किलें बढ़ाने वाला हो सकता है। पायलट खेमा मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों में हो रही देरी से नाराज चल रहा है। खुद पायलट ने पिछले दिनों मीडिया से बातचीत में कहा था कि अब देरी का कोई कारण नहीं है। इसके बावजूद हलचल नहीं होने से आहत पायलट खेमा इस बार फिर से कोई बड़ा सियासी दांव खेल सकता है। इस बार गहलोत कैम्प के सामने संकट यह है कि कई वे विधायक भी नाराज हैं जो पिछली बार सियासी संकट में सरकार के साथ थे। दरअसल, इनमें से कई विधायकों को सरकार में भागीदारी करने का भरोसा दिया गया था लेकिन उसमें हो रही देरी से वे भी सरकार से खफा हैं। राजस्थान में बढ़ी रार से कांग्रेस आलाकमान चिंतित है। अब प्रदेश के नेताओं के बीच विवाद को खत्म करने का जिम्मा पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने संभाला है।
केरल में हार से राहुल के नेतृत्व पर सवाल
पर मुश्किल यह है कि राहुल गांधी के नेतृत्व को लेकर पहले से ही सवाल उठ रहे हैं। केरल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस गठबंधन की हार पर राहुल गांधी चुप हैं। असल में केरल, जहां से राहुल गांधी लोकसभा सांसद भी हैं वहां कांग्रेस की हार की एक प्रमुख वजह गुटबाजी भी रही। पार्टी नेताओं का कहना है कि खासकर केरल की हार पार्टी के लिए एक बड़ी शर्मिंदगी के तौर पर उभर कर सामने आई है क्योंकि कांग्रेस ने चुनाव वाले अन्य राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा ताकत और संसाधन यहीं पर झोंके थे। राहुल गांधी ने अन्य राज्यों के मुकाबले केरल में चुनाव प्रचार में सबसे अधिक समय बिताया था। केरल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा भी, ‘ऐसा इसलिए भी था क्योंकि केरल को एक ऐसे राज्य के तौर पर देखा जा रहा था जिसे हम आसानी से जीत लेंगे। इस तरह के नतीजे मिलने की संभावना बहुत कम थी। केरल के मतदाताओं का रुख आमतौर पर पहले ही पता होता था लेकिन इस बार उन्होंने हमें चौंका दिया।’ लेकिन केरल में जीत की क्षमता के फैक्टर के अलावा ये तथ्य ज्यादा मायने रखता है कि राहुल गांधी वहां से सांसद होने के बावजूद राज्य में जीत नहीं दिला पाए, जो कि पार्टी के लिए अधिक शर्मनाक है। केरल के वायनाड से सांसद के तौर पर राहुल गांधी ने राज्य में पार्टी के चुनाव अभियान का नेतृत्व किया। उन्होंने पिछले कुछ महीनों में यहां कई रैलियां, रोड शो और जनसभाएं कीं। इस सबके बावजूद पार्टी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई।
चाको का चिट्ठी बम
असल में चुनावी राज्य केरल में चुनाव से ठीक पहले दिया गया पीसी चाको का इस्तीफा इसी प्रदेश से सांसद और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को शर्म से लाल करने वाला था। पीसी चाको को सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों का खास माना जाता था। दिल्ली कांग्रेस प्रभारी के रूप में 2014 से 2020 तक उनका कार्यकाल इस विश्वास को आसानी से दशार्ता है। पर कांग्रेस नेतृत्व के प्रति चाको की हताशा उनके पत्र से साबित होती है। पीसी चाको ने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को भेजी अपनी चिट्ठी में लिखा और मीडिया में टिप्पणी की, उसके अनुसार चाको ने कहा कि ह्यकांग्रेस में लोकतंत्र नहीं बचा है। मैं केरल से आता हूं, जहां कांग्रेस कोई पार्टी नहीं है। कांग्रेस आलाकमान मूकदर्शक बना रहा है। मैंने कांग्रेस की खातिर जी—23 में शामिल होना सही नहीं समझा, लेकिन जी—23 ने जो सवाल उठाए, वह पार्टी के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।ह्ण कांग्रेस के इस दिग्गज नेता की ऐसी तीखी टिप्पणी उस चुनौतीपूर्ण समय में आई जब जी-23 नेताओं द्वारा गांधी परिवार और खासकर राहुल गांधी की कार्यशैली पर सवाल उठाए जा रहे हैं। दरअसल, कांग्रेस पार्टी लगातार अपने नेताओं को खो रही है, जिन्हें कांग्रेस ने ही राजनीति में आगे बढ़ाया। साथ ही वह राज्य दर राज्य अपना राजनीतिक आधार भी खो रही हैं। असंतुष्टों का कहना है कि कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचाने के संकट का सामना कर रही है। चाको के इस्तीफे ने इसी बात का सबूत पेश किया है। इस बीच मौका देख राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने पीसी चाको को केरल इकाई का अध्यक्ष बना दिया है। चाको इस वर्ष मार्च में ही एनसीपी में शामिल हुए थे। एनसीपी महाराष्ट्र में कांग्रेस और शिवसेना के साथ गठबंधन सरकार चला रही है पर एनसीपी दूसरे राज्यों में कांग्रेस के बागी नेताओं को अपनी पार्टी में आने के दरवाजे खुले रख रही है।
जी-23 के विरोध के सुर बढ़ने की संभावना
दरअसल हाल के चुनावों में पांच राज्यों, खासकर असम और केरल में जीत मिलती तो वह राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने की राह को आसान बनाना सुनिश्चित कर देती लेकिन पार्टी की हार के बाद राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के खिलाफ जी—23 के नेताओं की तरफ से विरोध के सुर बढ़ने की संभावना है। इसी गुट से संबंध रखने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ने कहा भी कि कांग्रेस का चुनाव न जीतना हमारे लिए चिंता का मुद्दा होना चाहिए लेकिन हम इसमें ही संतोष कर लेते हैं कि भाजपा कहां नहीं जीती। जबकि हमें यह सोचना चाहिए कांग्रेस कहां जीती। हमारे पास चुनाव लड़ने की कोई रणनीति नहीं है, हम एकदम आखिरी में काम शुरू करते हैं और जमीनी स्तर पर कोई स्थानीय नेतृत्व भी नहीं होता है।ह्ण कांग्रेस के 23 नेताओं के एक समूह को जी—23 का नाम दिया गया है, जिसने पिछले साल 2020 अगस्त में कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर एक ह्य पूर्णकालिक और प्रभावी नेतृत्व ह्ण देने की मांग की थी यानी एक ऐसा अध्यक्ष जो जमीनी स्तर पर दिखने वाला और सक्रिय हो। जी—23 के एक अन्य वरिष्ठ नेता ने कहा, ह्य यह निश्चित तौर पर राहुल गांधी के लिए एक टेस्ट था जिसमें वह फेल हो गए हैं। पांच राज्यों का विधानसभा चुनाव परिणाम आगे पार्टी अध्यक्ष पद की उनकी मुहिम को प्रभावित करेगा। असम और केरल में सत्ता में वापसी की कोशिश कर रही कांग्रेस को हार झेलनी पड़ी। वहीं, पश्चिम बंगाल में उसका खाता भी नहीं खुल सका। पुडुचेरी में उसे करारी हार का सामना करना पड़ा जहां कुछ महीने पहले तक वह सत्ता में थी।ह्ण इन राज्यों में कांग्रेस की हार के बाद अब राहुल गांधी के लिए पार्टी अध्यक्ष बनने की राह आसान नहीं होगी। राहुल गांधी के नेतृत्व पर पिछले साल कांग्रेस के अंदर ही कई लोगों ने सवाल उठाए थे।
एक और हार के बाद राजनीतिक गलियारों में हर जगह इस बात पर चर्चा हो रही है कि जी—23 कांग्रेस समूह के नेता कांग्रेस को बचाने के लिए क्या दांव चलते हैं। तो कांग्रेस में एक बार फिर पुराने दिनों को याद किया जा रहा है। पार्टी के कई नेताओं ने बागी तेवर अपनाया हुआ है। गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा जैसे वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी की कार्यशैली, नीतियों और फैसलों पर सवाल खड़े कर कई सुझाव दिए थे। बंगाल चुनाव में कांग्रेस और आईएसएफ के गठबंधन पर इस गुट के नेताओं ने सवाल खड़े किए और इस गठबंधन को कांग्रेस की मूल विचारधारा के खिलाफ बताया। इस गुट के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि केरल में कांग्रेस वाम दलों के गठबंधन से मुकाबला कर रही थी और वहीं कांग्रेस पश्चिम बंगाल में वामदलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही थी। कांग्रेस की यही अस्पष्टता कि हमें करना क्या है, दिक्कत वाली बात है। जाहिर ऐसे पार्टी कैसे चलेगी? तो क्या कांग्रेस में एक बार फिर कोई टूट हो सकती है ? कांग्रेस में एक बार फिर पुराने दिनों को याद किया जा रहा है। पार्टी के कई नेताओं ने बागी तेवर अपनाया हुआ है। जी—23 में से कोई नेता इस बार कोई कामराज और निजलिंगप्पा की राह पर आगे बढ़ चला तो पार्टी के सामने बड़ी मुश्किल होगी। पहले ही कांग्रेस में कई टूट हो चुकी है और इससे निकलकर कई नेताओं ने अलग दल भी बना लिया है। केंद्र के साथ ही साथ अधिकांश राज्यों से कांग्रेस की सरकार जा चुकी है।
कांग्रेस को टूट से बचाने को कोरोना की आड़!
इस बार संकट अधिक बड़ा है और कांग्रेस में ऐसे वक्त में विभाजन हुआ तो उसका उबरना मुश्किल हो जाएगा, इस बात का अहसास गांधी परिवार और उसके करीबी नेताओं को भी है। लिहाजा कांग्रेस ने कोरोना महामारी के दौरान राहत कार्यों में तालमेल के लिए 13 सदस्यों वाली एक कोविड रिलीफ टास्क फोर्स का गठन किया है। इसकी कमान जी-23 समूह के प्रमुख नेता गुलाम नबी आजाद को दी गई है। गुलाम नबी आजाद को पार्टी के इस महत्वपूर्ण टास्क फोर्स का प्रमुख बनाया जाना इसलिए भी महत्व रखता क्योंकि वह कांग्रेस के उस जी-23 समूह का प्रमुख चेहरा हैं जो पार्टी में संगठनात्मक चुनाव और जिम्मेदारी के साथ जवाबदेही सुनिश्चित करने की मांग पिछले कई महीनों से कर रहा है। तो क्या विस्फोट के मुहाने पर खड़ी कांग्रेस को टूट से बचाने और खुद को प्रभावी साबित करने के लिए राहुल गांधी कोरोना विरोध की आड़ ले रहे हैं? सरकार विरोधी टूलकिट की राजनीति भी कांग्रेस की अंदरूनी घमासान की राजनीति का हिस्सा तो नहीं?
=मनोज वर्मा
(लेखक लोकसभा टीवी में वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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