पश्चिमी राजस्थान की बापिणी पंचायत समिति के प्रकाश व्यास जब गांव लौटे तो गोचर सूखे थे, ओरण बंजर पड़ा था, नलकूपों ने भूजल स्तर को 700-800 फुट नीचे कर दिया था। खेळी सूखे थे। प्रकाश ने गांव को जल-चेतन करने का बीड़ा उठाया और गोचर से काम से शुरू किया। कुछ वर्ष की मेहनत में गांव का कायापलट हो गया और आज सवा सौ लोगों की जोशीली टीम आसपास के 45 गांवों की तस्वीर बदल चुकी है।
आपूर्ति में कमी
भारत में शहरी स्थानीय निकायों द्वारा आपूर्ति किए जाने वाले पानी की औसत मात्रा 69.25 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन
शहरों में उपलब्ध कराये जाने के लिए आवश्यक पानी की औसत मात्रा 135 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन
लोकतंत्र का बरगद भले ही दिल्ली में फैला दिखता हो लेकिन देश की करीब ढाई लाख पंचायतों में फैली जड़ों की बदौलत ही उसका कद कायम है। उसकी छांव में कौन कितना पला-बढ़ा है, ये आज भी बड़ा सवाल है। जो-जो गांव पनपा, उसमें उसका अपना दमखम ही ज्यादा काम आया। देहात की रगों में पैरा यही भरोसा और मान भारत की आत्मा का बहीखाता है। सेहत की संगीन जंग के बीच इन्हीं का बूता है कि तमाम कागजी काम, बेगार और कानूनों की तकरार को दरकिनार कर अन्नदाताओं ने इस साल 17 फीसद अन्न-उपज बढ़ाकर दुनिया को बांटी है। गांव-देहात जो मेहतनतकश हैं, बदली जलवायु के सारे ताप-संताप से जूझ रहे हैं, मगर कतरा-कतरा सांस और आस को सहेजने के लिए फिर से कमर कस रहे हैं। युवाओं की कमान में आई कुछ पंचायतों ने परम्पराओं के साथ विज्ञान को पिराने के लिए ओरण और गोचर की जमीन से ऐसी अपनायत की है कि मिट्टी में समाया जल-जीवन चेतन हो उठा है।
गांव वापसी
राजस्थान के पश्चिमी इलाके की पंचायत है जाखण। जोधपुर जिले से करीब सौ किलोमीटर दूर। जहां न राजधानी की दूरबीन पहुंचती है, न ही पांच सितारा बैठकों में गांवों की मजबूती और समग्र विकास का गहन चिन्तन। यहां पहुंच है तो सिर्फ तपते सूरज की, आंधियों की, खूब तरसाकर पगफेरा करने वाले मेह की और चुनाव के दिनों में घर-घर दस्तक देते वादों की। कोने में दुबका एक आम सा गांव। पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी, मन में बड़ी दुनिया का चाव, मौकों की खंगाल, शहरों के तिलिस्म में दाखिल होने की तड़प। अपनी काबिलियत से दूर-देस की चाहत से मुट्ठी तो भर लेते हैं ये सब मगर बांहें नहीं फैला पाते कभी।
बापिणी पंचायत समिति के इस गांव के युवा प्रकाश व्यास ने भी अपनी मेहनत से दुबई की शिपिंग कम्पनी का लेखा-जोखा संभाल तो लिया था लेकिन कुछ ही वक्त में गांव याद आने लगा था। खाट, खेत, हैंडपम्प, नाड़ी में रिसता पानी, गर्मी की तपिश, प्यास और गाय, भैंस, बकरियां। इन सबके बीच अपनेपन की छांव। जहां पूरा गांव ही रिश्तेदारी में लगता है, सिर्फ घर-परिवार नहीं। जीवन जीने के साधन तो जुटा लिये थे मगर जीवन जुटाना बाकी था। जमा-पूंजी के साथ अपने गांव में ही कुछ बेहतर करने की ठान कर छह साल में ही लौट आए थे प्रकाश। गांव में अच्छे कामों की बुवाई आते के साथ ही साल 2008 में शुरू की। पानी और गोवंश दोनों की बेकद्र्री बहुत सालती थी। जिस किसी ने कुदरत का कलेवा बांधे ग्रामीण जीवन को जिया है, उसे अहसास है कि जब नरेगा के कामगार नहीं थे, तब गांव का हर परिवार बारिश आने से पहले नाड़ियों, बावड़ियों, बेरियों और तालाबों की साफ-सफाई अपने घर का काम मानकर करता था। तब मस्टर रोल में नाम जोड़ने की होड़ नहीं होती थी, ना ही घण्टों का हिसाब-किताब, ना ही कामचोरी और ना लेन-देन में घालमेल। तमाम तकलीफों के बीच ईमान के घड़े भरे ही रहते थे। अपने किए के फल से बंधा समाज कुदरत के साथ लय में रहने के लिए किताबों से नहीं, परम्पराओं और सनातन ज्ञान से उपजे स्थायी समाधानों से सीख लिया करता था।
गोवंश की प्यास
अपने किए-धरे का हिसाब देखना हो तो बेसहारा गोवंश को ही पैमाना मान कर चल लें। जहां पानी और चारा हिसाब का नहीं और मन भी अधूरा सा छूटा रह गया हो, वहां अब बिजली पहुंच गई तो तमाम सुविधाएं भी आ गईं। नलकूप यानी ‘ट्यूबवेल’ की बेहिसाब खुदाई से खेतों की प्यास बुझने लगी। कुदरत की कोख को सोखते ये नलकूप अब हर खेत में खुदने लगे। इस्तेमाल कर किनारे कर देने की सोच ने जड़ें जमानी शुरू कर दी थीं। दुहने वाले हाथ दोहन के फेर में फंस चुके थे। इस बदली सोच का नतीजा ये भी था कि काम के नहीं रह गए गोवंश भी घरों को अखरने लगे। खेतों को पिलाने के लिए कूपों में तो पानी भरने लगा मगर पानी से रीते इलाकों की बसावट का हिस्सा रही ‘खेळी’ भी खाली थी, और गोचर भी सूखे। ‘खेळी’ घुमन्तू पशुओं की प्यास बुझाते थे मगर अब परम्पराएं सुस्त पड़ी थीं। पालने वाले की बेरुखी और उधर चारा-पानी की किल्लत। प्रकाश का पहला कदम था गोशाला तैयार करना। गोशाला बनी तो बीमार, जख्मी और भूखे गोवंश को आसरा तो मिल गया, मगर चारे और जमीन की नमी का पुख्ता इन्तजाम तो चारागाह ही कर सकते थे।
गांव की एक हजार बीघा गोचर और 5000 बीघा ओरण की जमीन बंजर पड़ी थी। साल 2013 में इस जमीन पर यहां की जलवायु में आसानी से पनपने वाले पेड़ लगाने का अभियान शुरू हुआ। चार-पांच फुट के तन्दरुस्त पौधों के बड़े होने का संघर्ष तो किसी ने देखा नहीं लेकिन उनकी आहट से ही दावेदारियां शुरू हो गई। प्रकाश की जद्दोजहद ने चारागाह पर उगे इन पेड़ों को गांव के साझे हक से बाहर नहीं होने दिया। जो पेड़ जड़ें पकड़ चुके थे, उन पर बड़ी आफत बरसी। मौसम बरसात और पाले ने कुमट, खरंज, बेलपत्र, सहजन, रूद्राक्ष, जामुन, बेर, अनार, कनेर के बढ़ते पांच हजार पेड़ों को अचेत कर दिया। सारी मेहनत पर पानी फिरता दिखा तो गांव वालों ने देवी के प्रकोप के उलाहने भी दिए। ये पहली चुनौती थी सामने। टैंकर भर-भर कर दो महीने तक पानी पिलाया तब कही जाकर मरते पेड़ों की जान में जान आई। फिर तो आठ दस फीट कद पाए ये हजारों पेड़ गांव भर को दैवीय कृपा नजर आने लगे।
जलवायु का कहर
बीते चार-पांच दशक का वक्त जलवायु और संतुलित जीवन के लिहाज से कितना भी अधम माना जाए लेकिन गांवों में इतना बिगाड़ तब नहीं था। बाहर सूखी दिखने वाली धरती के तल में भी सौ-दौ सौ फुट गहराई तक पानी की तलाश पूरी हो जाती थी। अब नलकूप तो पानी खींचने लगे थे लेकिन जमीन को तर रखने वाले पेड़, नाड़ियां, गोचर, ओरण सबसे ध्यान हट गया था। आज ‘टिकाऊ विकास’ को ऐसे समझाया जा रहा है आप जितना दोहन करें उतना ही लौटा भी दें तो खाता बराबर रहेगा। यानी जितना पानी खींच रहे, उतना सींचे बगैर बात नहीं बनेगी।
गायों को सोच घेरे के बीच रखा तो सब सुध आने लगी। पुरखों की प्रकृति को लेकर बनी समझ मौसम की मनमानियों से उपजी हुई थी, इसीलिए नाड़ियों और टांकों की रखवाली बारह मासी नियम था। मगर दशकों की अनदेखी ने इन्हें जर्जर छोड़ दिया था। प्रकाश 2015 में सरपंच के चुनावी मैदान में उतरे तो उसके गोवंश और पेड़ों के काम ने उन्हें जाति के ठप्पे के बगैर आसानी से जिता दिया।
राजनीति छोड़ लोकनीति के लिए जूझने वाले युवा सरपंच को संविधान की ताकत का भरपूर अन्दाज रहा। सोच बड़ी थी तो इम्तेहान भी बड़े देने थे अभी। सूखा तो पश्चिमी राजस्थान में आम बात है मगर इस बार सच में कुछ तूफानी होने को था। सरपंच बनते ही तूफान के साथ बरसे ओलों ने गांव पर सफेद चादर बिछा दी। महीनों की मेहनत से आबाद सारे खेत पलक झपकते ही बर्बाद हो गए। जलवायु के कहर का ऐसा नजारा पहली बार सबने देखा। इस वक्त नए-नए सरपंच ने सरकारी महकमों से तालमेल कर तहस-नहस फसलों के लिए ढाई करोड़ का मुआवजा लिया। लेकिन अब आगे का काम बड़ा था ताकि अबके किसी भी कहर से बेहतर निपटा जा सके। समाधान तो परम्परा और विज्ञान में ही छिपा था।
पानी पानी
गुजरे जमाने की समझदारी ये थी कि नाड़ियां और तालाब वहीं खुदवाए जाते थे जहां ‘ओरण’ भी पास ही होते थे। चारागाह या गोचर और ‘ओरण’ की जमीन साझी होती है। गोचर खास तौर से गोवंश के चरने के लिए, और ‘ओरण’ देवी-देवताओं के नाम पर संभाला गया इलाका, जहां उगी घास, वनस्पति, लकड़ी, पेड़ सबके हिस्से के। गोवंश के अलावा भेड़, बकरी, नील गाय, पंछियों और पूरे जीव-जन्तु जगत के लिए बेफिक्र बसेरा भी यही। जैव विविधता की सहेज-संभाल भी इन्हीं के मार्फत होती रही है। ओलों के मुआवजों के बाद जो साख और समझ हासिल हुई, उसने साल 2016 में पानी के काम हाथ में लेने का मन पक्का किया।
मनरेगा में शुरू हुए ‘अपना खेत, अपना काम’ में पानी के जल को सहेजने के लिए टांका बनवाया। उस साल हुई अच्छी बारिश को टांकों ने जवाहरात की तरह अपनी तिजोरियों में बन्द कर लिया। अगर ये न हुआ होता तो खेत पानी में डूब गए होते। ये चेतना जागी कि गांव के हर एक टांके को संभाल लिया जाए। तो अब नाड़ियों के आसपास की मिट्टी की खुदाई और टांकों की साफ-सफाई सालाना जश्न की तरह हुआ करता था ताकि आने वाली बारिश की एक-एक बूंद सहेजी रहे। लेकिन ढाई दशकों से अनदेखी के बाद अब सबके दिन फिरने थे। राजस्थान में शुरू हुई मुख्यमंत्री ‘जल स्वावलम्बन योजना’ का फायदा लेकर नौ टांके बनवाए। छह गौशाला में, एक माताजी के मन्दिर के पास, एक सरकारी स्कूल में और एक श्मशान की जमीन पर। जल-अभियान आकार लेने लगा और आहिस्ता-आहिस्ता गांव की दर्जन भर सरकारी इमारतों में टांके बन गए। जो पानी पहले बिखरकर उड़ जाता था, अब वही टांकों की पनाह में रहकर साल भर काम आता है। नाड़ियां भी अब आबाद होने लगीं। गोचर और ओरण की जमीन पर आठ नाड़ियों ने अपना आसन फिर जमा लिया। इनमें से तीन का जीर्णोद्धार भी हुआ, पाल भी बनी और ये सब हुआ स्वावलम्बन योजना की निगरानी में। धरती की शिराओं की तरह हैं ये नाड़ियां जिनमें जल-जीवन बहता है और इनकी बदौलत सूखे-तपते महीनों में भी जमीन की नमी कायम रह पाती है।
आज इस गांव में गोचर हरे-भरे हैं, ओरण लहलहा रहे हैं और गोवंश की खासी कद्र है। पानी जो नलकूपों ने 700 फीट गहराई तक धकेल दिया था, अब फिर 200-300 फीट तक लौट आया है। सबसे बड़ी चहक तो औरतों की है। उनका लहरिया पर बदलाव का रंग चढ़ चुका है। माता के मन्दिर में जल चढ़ाने, तुलसी, पीपल, बड़ की पूजा करने और सावन के झूले झूलने की खुशियां किसी सर्वेक्षण में दर्ज हों, न हों, यहां के रीति-रिवाज में रम चुकी हैं। प्रकाश अब सरपंच नहीं हैं और अब और खुलकर काम कर रहे हैं। आसपास के 45 गांवों में लगन लगाने में कामयाब ये अथक काम और करीब सवा सौ लोगों की जोशीली टीम काजरी जैसे संस्थानों की इनायत भी चाहती है जो इस काम की वैज्ञानिक पैमाइश कर सकें। जोधपुर सहित बाड़मेर, जैसलमेर और नागौर में फैली जल-चेतना की बयानी में जोत से जोत जलाती जो पंचायतें शामिल हैं, वही हमारी अनमोल धरोहर हैं।
-डॉ. क्षिप्रा माथुर
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