पहली बार 30 मई, 1826 को ‘उदन्त मार्तण्ड’ नामक एक हिंदी समाचार पत्र कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था। इसलिए 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। हिंदी के अखबार भले ही 19वीं सदी से प्रकाशित होने आरंभ हुए हों, पर हमारी संस्कृति में तो संवाद, प्रचार—प्रसार की परंपरा उतनी ही पुरानी है जितनी हमारी वैदिक संस्कृति। सही अर्थों में संवाददाता होना किस तरह से ‘एथिक्स ऑफ मीडिया’ का मार्ग प्रशस्त करेगा और कैसे निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकारिता स्थापित होगी, इन सबको बताने के अलावा इस लेख में पत्रकारिता की भारतीय दृष्टि को प्रस्तुत किया गया है
सूचनाओं का सही और निष्पक्ष प्रचार और प्रसार भारतीय समाज का वैदिक काल से नियम रहा है। महर्षि नारद जी को ब्रह्मांड का पहला पत्रकार माना जाता है और नारद जी कानों सुनी, नहीं आंखों देखी बातों पर विश्वास करते थे। उनके समाचार का स्रोत बहुत ही विश्वसनीय रहता था और उन्हें अपनी सूचना का महत्व भी पता था। सूचना कहां, कब और किसको देनी है, यह वे अच्छे से जानते थे। उनकी विशेषता यह थी कि वे किसी भी सूचना में अपनी ओर से कुछ नहीं जोड़ते थे,केवल घटना को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर देते थे। अगर हम आज की भाषा में कहें तो ‘ऑनली न्यूज़ नो व्यूज़।’ खबर में रिपोर्टर के विचार आ जाते हैं तो वह खबर नहीं रहती। उसमें रिपोर्टर की अपनी निजी सोच या जिन तत्वों से वह प्रभावित है उसका मिश्रण हो जाता है और यही मिश्रण मीडिया की निष्पक्ष साख के लिए घातक है। दुर्भाग्य की बात है कि आज मीडिया ‘न्यूज’ से ज्यादा ‘व्यूज़’ दिखा रहा है। संवाददाता का काम है केवल घटनाओं को ज्यों का ज्यों प्रस्तुत करना। रिपोर्टर और कोरोसपोंडेंट विदेशी भाषा के शब्द हैं। संवाददाता हमारी अपनी भारतीय भाषा का शब्द है। संवाद का अर्थ है दूसरे व्यक्ति से बात करना, उसकी राय भी जानना और उसे अपने साथ शामिल करना। संवाददाता का अर्थ रिपोर्टर की तुलना में कही ज्यादा सार्थक और व्यापक है। संवाद ही समाज का सबसे बड़ा माध्यम है। एकालाप हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है। आप अपने महाकाव्य श्रीमद्भगवद् गीता, श्री रामचरितमानस, पुराणों को यदि देखें तो संवाद का महत्व आपको पता चलेगा।
श्री मदभगवदगीता जो कि भारत में ही नहीं पूरे विश्व में सबसे प्रसिद्ध लोकप्रिय ग्रंथ है, जो काल समय देश धर्म की सीमाओं से परे है। जो गुरु है, मार्गदर्शक है। 5,500 साल बीत जाने के बाद आज भी प्रसांगिक है। सभी 18 अध्याय संवाद पर आधारित हैं। भगवान कृष्ण औऱ उनके सखा अर्जुन के बीच संवाद हैं। भगवान कृष्ण को अपने भगवान त्रिकालदर्शी होने का अभिमान नहीं है। वे चाहते तो कहते अर्जुन सुनो जो मैं कहता हूं उसे चुपचाप सुनो लेकिन भगवान अर्जुन को पूरा अवसर देते हैं, उसकी हर शंका, हर प्रश्न का उत्तर देते हैं। अपने विचार अर्जुन पर थोप नहीं रहे हैं। उसको अपने उत्तरों से आश्वस्त करते हैं, उसकी शंकाओं का निराकरण करते हैं। श्री मद्भगवद्गीता ही क्यों पूरा महाभारत संवाद पर आधारित है। महर्षि वेदव्यास जब महाभारत की रचना कर रहे थे तो वे चाहते तो अपनी विद्वता और अपना ज्ञान दिखाने के लिए लिए फस्र्ट पर्सन एकांऊट भी लिख सकते थे, लेकिन उन्होंने इसे संवाद के रूप में ही लिखा है। लेकिन आप जगह—जगह देखेंगे कि लिखा है संजय उवाच ,धृतराष्ट्र उवाच, युधििष्ठर उवाच, केशव उवाच, अर्जुव उवाच, वैशंपायन उवाच। यानी वेदव्यास जी ने किसी के भी विचार का दायित्व स्वयं नहीं लिया। यही एक अच्छे संववाददाता का काम है। एक अच्छी ‘न्यूज स्टोरी’ में सभी का पक्ष उसके नाम से रखा जाता है। संवाददाता कहीं किसी का पक्षकार नहीं है न ही अपनी राय रखता है।
संजय ने अपनी भूमिका महाभारत में एक अच्छे निष्पक्ष निर्भीक संवाददाता की निभायी। संजय ने इंद्रप्रस्थ में बैठ कर दृष्टिहीन महाराज धृतराष्ट्र और गांधारी को आंखों देखा हाल सुनाया। यहां आंखों देखा शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। यानी संजय युद्ध के मैदान में जो देख रहा है उसे ज्यों का त्यों बता रहा है। अपनी राय संजय ने कहीं नहीं रखी। कहीं संजय ने यह नहीं कहा कि देखो महाराज पांडव कितने खराब हैं और कौरव कितने अच्छे। 100 पुत्रों के पिता बलशाली महाराज जो कि स्वयं नहीं देख सकता उनको युद्धभूमि का हाल निष्पक्ष होकर सुनाना आज के युग में शायद ही किसी संवाददाता के लिए संभव हो। अब तो ‘गोदी मीडिया’, ‘मोदी मीडिया’ जैसे अलंकार भी आ गए हैं। संजय ने एक पल भी सत्ता और शक्ति का भय नहीं माना। यह नहीं सोचा कि यदि किसी एक जानकारी के अप्रिय लगने पर उसे महाराजा ने दंड दिया तो क्या होगा । एक बार भी धृतराष्ट्र को कुछ झूठ नहीं बताया। उनको खुश करने का प्रयास भी नहीं किया।
महाभारत में भी धर्म और अधर्म की स्थितियां आयीं। जिसे हम ‘एथिकल’ और ‘एनएथिकल’ आज कहते हैं वह सतयुग, द्वापर, त्रेता युग में भी धर्म संकट था। जिस समाज की परंपरा सत्यं वद धर्मचर की रही हो वहां अगर छल बल करना हो तो दस बार सोचना पड़ता है। पश्चिम की अवधारणा है ‘एवरीथिंग इज़ फेयर इन लव एंड वॉर।’ लेकिन हम तो कहते हैं सत्यं प्रियं ब्रूयात। हम बात कर रहे थे कि जब धर्म संकट हो तो क्या किया जाए। पत्रकारों के लिए ऐसी स्थिति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है भगवान श्रीकृष्ण, जो स्वयं विष्णु जी का अवतार थे। वे झूठ बोलने के लिए एक ऐसे व्यक्ति को चुनते हैं जिसका नाम ही धर्मराज है यानी पांडवों में सबसे बड़े धर्मराज युधिष्ठर। इसमें भी एक संदेश छुपा है। जिस व्यक्ति की समाज में साख हो जिसके व्यक्तित्व और आचरण पर किसी को रत्ती भर भी संदेह न हो उसको चुनना। अगर आज हम अपने मीडिया की तुलना धर्मराज से करें तो क्या हमारे पास आज एक भी ऐसा मीडिया संस्थान या न्यूज़ चैनल है जिसकी छवि सत्य वक्ता की, धर्म के आचरण की हो! यहां धर्म से अर्थ ‘एथिक्स ऑफ मीडिया’ से है। भगवान कृष्ण को गुरु द्रोणाचार्य की शक्तियां पता थीं, लेकिन उनको हतोत्साहित कैसे किया जाए, उनके पराक्रम को कैसे कम किया जाए। कहते हैं कि इंसान सबसे ज्यादा कमज़ोर पड़ जाता है अपनी संतान के बारे में। संतान का मोह इतना होता है कि उसका एक छोटा—सा दुख भी माता—पिता की कमर तोड़ देता है। कौरवों और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य महाभारत के मैदान में दुर्योधन के साथ खड़े हुए। उनके अति बलशाली और महान योद्दा पुत्र का नाम अश्वत्थामा था और युद्ध के मैदान में एक हाथी का नाम भी अश्वत्थामा था।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा युधिष्ठिर तुम घोषणा करो अश्वत्थामा हतो। लेकिन युधिष्ठिर, जो धर्मराज थे, ने यहां सरासर झूठ बोलने को पाप समझा। वे अश्वत्तामा हतो कहने को तैयार तो हो गए लेकिन अंत में उन्होंने कहा नरो वा कुंजरो वा। मीडिया के लिए यह भी एक बहुत बड़ा संदेश है। भगवान भी झूठ बोलने को कहे तो अपनी बुद्धि का प्रयोग करो। युधिष्ठिर ने कह तो दिया अश्वत्थामा हतो लेकिन साथ ही नरो वा कुंजरो वा कहकर अपनी स्थिति साफ कर ली। लेकिन आज मीडिया तरह—तरह के दबावों में काम कर रहा है। बाज़ार भी मीडिया को चलाता है । जो सरकार सबसे ज्यादा विज्ञापन दे उसके खिलाफ तो एक शब्द नहीं बोलना, उसकी नाजायज़ बात पर भी देखकर अनदेखा कर देना। चाहे जनता को कितना भी नुकसान हो जाए मीडिया केवल अपना विज्ञापन रेवेन्यू देखता है। आज आप देखिए कि जिन पश्चिमी मीडिया संस्थानों की दुनिया भर में धाक और साख थी वो मिट्टी में मिलती नज़र आ रही है। बीबीसी की पक्षपातपूर्ण और एकतरफा रिपोर्टिंग न्य़ूयार्क टाईम्स, टाईम्स मैगज़ीन ने किस तरह से मीडिया एथिक्स को भारत की कोरोना आपदा के मामले में ताक पर रखा, यह सब जानते हैं। पश्चिम का वह मीडिया, जो नाईन एलेवन की एक तस्वीर नहीं दिखाता, जो एक लाश नहीं दिखाता, वह किस तरह से भारत की पुरानी तस्वीरें जलती चिताएं दिखा कर ‘एथिक्स ऑफ मीडिया’ को तार—तार कर रहा है।
संवाददाता की जगह समाचारदाता शब्द भी प्रयोग किया जा सकता था, लेकिन भारतीय परंपरा भारतीय संस्कृति के अनुसार सबसे अनूकूल शब्द है संवाददाता। अब देखिए न गोस्वामी तुलसादीस जी ने क्या किया। उन्होंने एक अमर ग्रंथ श्री रामचरितमानस की रचना की। आज भी यह सबसे अधिक बिकती है। तुलसीदास जी चाहते तो वे भी सारा श्रेय स्वयं ले लेते और स्वयं ही भगवान राम की कथा लिख देते, लेकिन भारतीय पंरपरा की सुंदरता देखिए गोस्वामी तुलसी दास जी ने भगवान शिव और पार्वती को अपना संवाददाता बनाया। तुलसीदास जी ने भगवान शिव को भी एकालाप नहीं करने दिया। भगवान शिव और पार्वती के बीच बहुत सुंदर संवाद होता है और हम श्री रामचरितमानस का आनंद लेते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। यहां भी न तो भगवान शिव और न ही पार्वती अपनी कोई टिप्पणी या राय रखते हैं। किसी के आचरण को सही या गलत नहीं ठहराते। कैकयी को कहीं स्वार्थी और निष्ठुर नहीं कहा। रावण को कहीं अपहरणकर्ता बहरुपिया कपटी नहीं कहा। पाठक और श्रोता स्वयं तय करें, स्वयं अपनी राय बनाएं। लेकिन आज तो मीडिया ट्रायल इतना जबरदस्त है कि पुलिस और अदालत से पहले ही मीडिया तय कर लेता है बलात्कारी, हत्यारा, नशेड़ी, गंजेड़ी।
100 बात की एक बात है कि हम सही और सच्चे मायने में यदि संवाददाता बने रहेंगे तो एथिक्स ऑफ मीडिया स्वयं ही स्थापित हो जाएगी। लेकिन हमारी शिक्षा नीति पर पश्चिम का इतना ज्यादा प्रभाव है कि हम अपनी समृद्ध परंपराओं के बारे में जानते ही नहीं। हमारे पास हर विधा का अपार समृद्ध खजाना है। लेकिन हम लॉर्ड मैकाले से प्रभावित हैं, हम पश्चिम की चकाचौंध से प्रभावित हैं, हमारी अपनी संवाद परंपरा में तो आकाशवाणी और दूरदर्शन दोनों रहे हैं । हम तो संवाद के बिना धर्म की बात भी नहीं करते बाकी तो छोड़ ही दीजिए। यहां तो शौनक आदि ऋषियों को सूत जी ही पूरी कहानी सुनाते हैं। सत्यनारायण की कथा तक संवाद शैली में है।
आइए अपनी जड़ों की ओर लौटें। हिंदी पत्रकारिता दिवस पर अपने महाकाव्यों, पुराणों, धर्म ग्रंथों में छुपी संवाद की शैली को खोजें और उसके अनुसार पत्रकारिता करें, यही हिंदी पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ा योगदान होगा।
—सर्जना शर्मा
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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