एक अत्यंत साधारण घर में जन्मे 94 वर्षीय पत्रकार गोपाल सच्चर ने अपने राष्ट्रवादी होने के कारण काफी यातनाएं झेलीं। अपने पत्रकारीय जीवन में वे पांच अखबारों के संपादक रहे। उनकी रपटें सत्य घटनाओं, तथ्यों, सप्रमाण वृत्तांत के लिए जानी जाती थीं। इसलिए अब्दुला शाही तिलमिला कर रह जाती थी परन्तु उनकी एक भी रपट का खंडन करना उनके लिए कभी संभव नहीं हुआ।
जब तक कोई व्यक्ति हमारी आंखों के सामने रहता है, हम भारतीय शायद ही उसकी ज़िंदगी के शानदार हिस्सों को अपनी प्रशंसा के दायरे में लाते हैं। उसके दिवंगत होते ही हम झूठी और दिखावटी तारीफों के पुल बांधते रहते हैं। यह नकलीपन हमारी सामाजिक ज़िंदगी में राजनेताओं के दोहरे व्यापार के कारण ज्यादा आया है। रा.स्व.संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प्रो राजेंद्र सिंह (रज्जु भैया) कहते थे यदि किसी ने अच्छा काम किया है तो उसकी ज़िंदगी के वक़्त ही उसकी तारीफ करनी चाहिए चाहे वो आपका प्रतिपक्षी ही क्यों न हो। गत कुछ वर्षों से जब भी मैं जम्मू कश्मीर के पत्रकार-ऋषि श्री गोपाल सच्चर को देखता हूँ, मुझे यही बात याद आती है। वे अब 94 वर्ष के होने वाले हैं।
जब भारत भक्तों को शेख अब्दुल्ला ‘दुश्मन एजेंट ‘ मानता था
17 जुलाई 1927 को जम्मू के पास एक गांव में जन्मे गोपाल सच्चर ने भारतीय राष्ट्रीय पत्रकारिता का धर्म बखूबी निभाया और वे जम्मू कश्मीर के एक सचल प्रेस संस्थान बन गए। उन्होंने शेख अब्दुल्ला के समय अपनी राष्ट्रभक्ति की कीमत उसकी जेल में रह कर अदा की, उन्हें मार पड़ी, उनकी एक अंगुली आज भी पुलिस की मार के कारण मुड़ी हुई है, उनको प्रजा परिषद् आंदोलन के समर्थन में लिखने के कारण श्रीनगर की जेल में डाला गया, न मुकदमा, न पेशी, और उनकी बैरक के सामने बोर्ड पर लिखा होता था- दुश्मन एजेंट। शेख अब्दुल्ला के राज में भारत भक्त होने का अर्थ था – दुश्मन का एजेंट होना, यह बताते हुए गोपाल जी भावुक हो जाते हैं।
जन्मे तो घर में कागज नहीं होता था, अब कागजों से घिरे
गोपाल सच्चर बहुत साधारण परिवार में जन्मे जिस घर में कागज तक नहीं होता था। उनकी माताजी को आंखों से दिखता नहीं था- पर वे बहुत विचारवान और अनुभव समृद्ध थीं। उनकी माता जी ने उनकी पढाई पर ज्यादा ध्यान दिया, डोगरी सिखाई, पहाड़े और गिनती सिखाई। तब उनके मामा के सहयोग से उन्होंने टिकरी डोगरी में पढ़ाई जो अब दुर्लभ हो गयी है। जम्मू के पास मनावर ( छम्ब सेक्टर) से मिडिल पास किया। यह वह समय था जब स्कूल में एक अध्यापक होता था जो पांच कक्षाएं संभालता था। गोपाल सच्चर पढ़ाई में तेज थे, वे मॉनिटर बना दिए गए और छोटी कक्षाएं भी पढ़ाने लगे।
उनके जन्म के बाद दादी पास के एक पंडित के पास गईं और पूछा – मेरा पोता पटवारी बनेगा या नहीं? तब सामान्य घरों में पटवारी बनना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। पंडित ने कहा- बहुत पढ़ा-लिखा बनेगा, पटवारी से बहुत ऊंची इज़्ज़त होगी। गोपाल जी हंस कर कहते हैं, मेरे घर में कागज नहीं थे, आज मैं इस उम्र में भी चारों तरफ कागजों से घिरा रहता हूँ।
राष्ट्रवादी तेवर के कारण झेलीं यातनाएं
जम्मू से कालेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद गोपाल सच्चर लिखने लगे, प्रजा परिषद् आंदोलन में पंडित प्रेम नाथ डोगरा के सहयोगी बन गए, और उसी समय स्वदेश नामक अखबार भी शुरू किया। वे अपने जीवन में पांच अख़बारों के संपादक बने- और सभी का तेवर राष्ट्रवादी ही रहता था। पंडित प्रेमनाथ डोगरा के समर्थन के कारण उनको पुलिस ने कई बार यातनाएं भी दीं।
पत्रकारिता आज धन, वैभव और आराम का व्यवसाय बन गयी है। लेकिन जिस समय गोपाल सच्चर पत्रकारिता में सक्रिय हुए तब देश के लिए लिखना, आज़ादी के बाद भी, खतरों से भरा हुआ था। उस समय राष्ट्रीय फलक पर लाला जगतनारायण, के.आर. मलकानी और रामनाथ गोयनका जैसे असमझौतावादी दिग्गज नक्षत्र चमक रहे थे। गोपाल सच्चर ने पंजाब केसरी, ऑर्गेनाईजर, पाञ्चजन्य, यूएनआई, डेक्केन हेराल्ड, मदर लैंड, दिनमान जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों-पत्रिकाओं के लिए लिखना प्रारम्भ किया। उनकी रिपोर्टों में कश्मीर में चल रहे देशद्रोही अलगाववादी तत्वों के मंसूबों, उनके साथ सत्तापक्ष की साठगांठ, पाकिस्तान और अन्य विदेशी तत्वों से मिलने वाली सहायता, जेकेएलएफ जैसे संगठनों के साथ अब्दुल्लाओं के षड़यंत्र आदि का खुलासा होता था। उनकी रपटें सत्य घटनाओं, तथ्यों, सप्रमाण वृत्तांत के लिए जानी जाती थीं। इसलिए अब्दुला शाही तिलमिला कर रह जाती थी परन्तु उनकी एक भी रपट का खंडन करना उनके लिए कभी संभव नहीं हुआ।
डॉ. मुख्रर्जी के बारे में नेहरू सरकार ने झूठ बोला
जब डॉ. श्यामा प्रसाद मुख़र्जी को गिरफ्तार करके श्रीनगर लाया गया तो उस समय प्रजा परिषद् आंदोलन में भाग लेने के ‘जुर्म ‘ में गोपाल सच्चर भी श्रीनगर जेल में थे। वे कहते हैं कि डॉ. श्यामा प्रसाद जी को निशात बाग में माली के झोंपड़े में रखा था- सरकार की बदनीयती पहले से ही साफ़ जाहिर थी। झूठ कहा गया कि उनको बंगले में कैद रखा गया है। सरकार श्यामा प्रसाद मुख़र्जी को जिन्दा नहीं देखना चाहती थी, रहस्यपूर्ण ढंग से उनको जबरदस्ती रावी पार रातोंरात श्रीनगर खुली जीप में लाया गया, अगर दिल्ली की नेहरू सरकार चाहती तो उनको जम्मू सीमा से ही वापस दिल्ली भेज सकती थी। लेकिन ऐसा न करके उनको सता कर श्रीनगर की ठण्ड में खुली जीप में भेजा गया।
बाद में उस माली के झोंपड़ों को देखने बहुत से लोग आने लगे तो शेख अब्दुल्ला ने उस झोंपड़े को ही उठवा दिया। उस समय देश के लिए, तिरंगे के लिए जम्मू के सोलह लोगो ने अपनी जान दी थी। मेलाराम, भीकम और गिरे उनमें से एक थे। उनका भी बहुत कुछ नहीं हुआ। भीकम की पत्नी रत्ना तो लोगो के घरों में काम करके अपना गुजारा करती थीं। एक बार शहीद दिवस पर दिल्ली के मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना यहाँ आये तो उन्हें रत्ना के बारे में पता चला। उन्होंने घोषणा की – हर महीने पांच सौ रुपये रत्ना को भेजने की। वे जब तक रहे, रत्ना को पैसे मिलते रहे।
मोदी ने कश्मीर में हिन्दुओं पर इस्लामी क्रूरता का अंत किया
पाकिस्तानी मदद से फल-फूल रहे गिलानी और उनके आतंकवादी संगठनों – लश्कर, हिज्बुल मुजाहिदीन, जैश-ए-मुहम्मद आदि के कारनामों, उनके विरुद्ध भारतीय सेना की कार्रवाइयों की सचित्र ख़बरें भेजने वाले गोपाल सच्चर ने अकेले भारत मीडिया की डेस्क का जिम्मा उठाया और कश्मीर घाटी की पाकिस्तान परस्त मीडिया को मुंहतोड़ जवाब दिया।
गोपाल सच्चर जी को सक्रिय पत्रकारिता में 65 वर्ष हो गए। उनकी आंखों ने जम्मू कश्मीर का हर रंग देखा और उस पर लिखा है। आज जो परिवर्तन वहां आये हैं, उनको वे किस प्रकार देखते हैं? गोपाल जी का कहना है कि ‘मोदी ने कश्मीर में वे परिवर्तन ला दिए हैं जो अब कश्मीर में आज़ादी जैसे नारों या जिहादी ख्वाबों की वापसी असंभव कर चुके हैं। धारा 370 के अंत ने हड़तालों और पत्थरबाजों से घाटी को मुक्ति दिला दी है। पिछले तीस सालों में पूरे 11 सालों का समय कश्मीर में हड़तालों और पत्थरबाजी में बीता- इसका मेरे पास पूरा आंकड़ा है। वो वक़्त अब ख़त्म हो गया है। यह किसी ने सपना भी नहीं देखा था। मोदी ने कश्मीर में हिन्दुओं पर इस्लामी क्रूरता का अंत किया है।
हिन्दुओं ने शेख अब्दुला और उसके बाद आये इस्लामी मुख्यमंत्रियों के क्रूर राज में कितना दुःख और कितनी अन्यायी नीतियों को सहा, इसका आज सामान्य भारतीय को कोई अंदाजा नहीं है। पचास के दशक में पहले मंत्रिमंडल (पहली वज़ारत) में छह हिन्दू मंत्री थे जिनमें डी.पी. धर भी एक थे। उस समय घाटी में कश्मीरी हिन्दुओं की संख्या 15% थी। लेकिन न तो उन हिन्दू मंत्रियों को कुछ करने दिया गया और न ही हिन्दुओं की जमीन और सम्मान की रक्षा की गयी। आज उसी कश्मीर में, आज़ाद हिंदुस्तान में, कश्मीरी हिन्दू आधे प्रतिशत भी नहीं रह गए हैं। मोदी ने अब कश्मीर में हिन्दुओं के सुरक्षित और ससम्मान लौटने का मार्ग खोला है। धारा 370 हटने से इन हज़ारों हिन्दुओं को नागरिकता मिल गयी है जो बरसों से यहाँ रह रहे थे लेकिन सिर्फ इसलिए क्योंकि वे हिन्दू थे, उनको न तो वोट का अधिकार मिला और न ही नागरिकता। उनमें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से आये हिन्दू, गोरखा और वाल्मीकि हैं- पचास के दशक में श्रीनगर के एक हेल्थ अफसर रघुबीर सिंह मोदी पंजाब से ढाई सौ-तीन सौ वाल्मीकि हिन्दू यहाँ सफाई कार्य के लिए लाये थे। वे यहीं बस गए लेकिन कानून तहत कि न तो वे, न ही उनके बच्चे कश्मीर में कोई और भी नौकरी ले सकते हैं, सम्पत्ति नहीं खरीद सकते, स्कूल-कालेजों में प्रवेश नहीं ले सकते और उनको यहाँ की नागरिकता नहीं मिलेगी। मोदी द्वारा 370 हटाने से इस अन्याय का अंत हो गया है।
कश्मीरी पंडितों की संपत्ति बेचने की जांच हो
गोपाल सच्चर बताते हैं कि 1997 में जम्मू कश्मीर सरकार ने पलायित कश्मीरी पंडितों की संपत्ति बेचने और खरीदने पर रोक लगाने के लिए एक कानून पारित किया था (THE JAMMU AND KASHMIR MIGRANT IMMOVABLE PROPERTY (PRESERVATION, PROTECTION AND RESTRAINT ON DISTRESS SALES) ACT, 1997)। इसके बावजूद कश्मीरी पंडितों की सम्पत्तियाँ बेचने और खरीदने की लगभग पंद्रह हज़ार रजिस्ट्रियां हो गयीं हैं। यह कैसे हुईं? इसकी जांच होनी चाहिए।
स्वतंत्र भारत में, संविधान और तिरंगे के प्रति निष्ठा दिखने वाले हिन्दुओं को अपने ही देश में किस प्रकार बेइज्जत होना पड़ा, इसकी कोई सीमा नहीं है। और उस पर इस्लामी राज के हिसाब से शासन चलाने वाले मुस्लिमों ने इस बारे में कभी दुःख, क्षोभ अथवा खेद प्रकट नहीं किया। सेक्युलर हिन्दू प्रेस भी उन्हीं के साथ उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाता रहा। सेक्युलर हिन्दू नेता भी कश्मीरी हिन्दुओं को ही उनकी दुर्दशा का जिम्मेदार ठहराते रहे, उनकी दशा पर किसी ने दुःख नहीं मनाया।
एक आदमी था जिसने जम्मू में 8 अगस्त 1952 की सभा में साफ़ साफ़ कहा था- और उनके यह शब्द आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं–या तो विधान दूंगा या प्राण दूंगा। वे थे डॉ. श्यामा प्रसाद मुख़र्जी। उन्होंने अपने शब्द रखे। प्राण दे दिए लेकिन विधान देकर गए। उनके कारण कश्मीर में सब परिवर्तन हुए हैं। मोदी कश्मीर में जो परिवर्तन लाये हैं, वे श्यामा प्रसाद मुख़र्जी के सपनों को ही पूरा करने वाले हैं।
कश्मीर में भारत की आवाज थे हैं सच्चर
गोपाल सच्चर जम्मू कश्मीर में भारत वर्ष और भारत के संविधान की आवाज हैं। अपने हज़ारों उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी दस्तावेजों के अमूल्य खजाने को उन्होंने जम्मू की दीनदयाल लाइब्रेरी को दे दिया है। पता नहीं उनके लिए किसी नेता ने पद्म पुरस्कार की संस्तुति की या नहीं- आजकल ये पुरस्कार भी अजीब नीतियों का शिकार हो गए हैं,। लेकिन गोपाल सच्चर इन सब से ऊपर हो गए हैं। उन्हें पाञ्चजन्य की ओर से प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने राष्ट्रवादी पत्रकारिता का सम्मान दिया था।
उन्होंने उस कार्यक्रम का चित्र भी अपने घर में नहीं रखा है। वे अपने जीवन से संतुष्ट हैं- ” मैं संतुष्ट हूँ, कुछ नहीं चाहिए, अपने जीवन, अपने लेखन से मुझे गहरी संतुष्टि है। एक ही नतीजे पर पहुंचा हूँ- हम सब अभिनेता हैं- इस संसार में जो कुछ होता है उसका नियंता, उसका निर्देशक कोई और ही ताकत है। बस उसी ताकत के आगे सर झुकता हूँ। कोई इच्छा अब शेष नहीं है’।
वे शतायु हों, उनकी जन्म शताब्दी हम सब मनाएं, यही प्रभु से प्रार्थना है।
=तरुण विजय
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