गीता के ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन भगवान् के विश्वरूप में पूरे विश्व को देखता है। इसमें भगवान का रौद्र रूप भी है जो संहार कर रहे हैं जिससे कि वह नई सृष्टि कर सकें। ऐसे समय में मनुष्य का धर्म शोक करने का नहीं है। अपने से जो बन पड़े, उसको अधिक से अधिक करें। अपनी शक्ति से अधिक करें। ऐसा करने से हम भगवान की इस लीला में एक शुभ सहयोग कर रहे होंगे। यही आज का युगधर्म है
आजकल भारत कोरोना महामारी की दूसरी लहर की चपेट में है। टेलीविजन और अखबार इत्यादि से तो यही मालूम पड़ता है कि कितने लोग मर गये, कितने अस्पताल में हैं और कितनों को तो इलाज ही नहीं मिल पाया। अस्पताल में दाखिले के लिए, आईसीयू बेड के लिए, आॅक्सीजन के लिए, रेमडिसिविर के लिए मारामारी हो रही है और यह सब बड़ी सिफारिश वाले लोगों को भी नहीं मिल रहा।
व्हाट्सएप खोलो, फेसबुक देखो, फोन उठाओ या एसएमएस देखो, जितनी बार देखते हैं उतनी बार, किसी न किसी स्वजन की मृत्यु का ही समाचार उसमें होता है। यह नजदीकी लोगो का निरंतर बिछुड़ना, गंभीर रूप से बीमार होना, अस्पताल में दाखिल न करा पाना, स्थितियां बिगड़ना और इन सब में कई बार लगता है कि सरकार भी बेबस है और हम भी। मन में आता है कि क्यों हो रहा है यह सब कुछ? कौन करवा रहा है? भगवान् इतने निष्ठुर कैसे हो गये? क्यों हो गये?
भगवान का विश्वरूप
इन सब बातों पर विचार करते हुए, मुझे गीता का ग्यारवां अध्याय स्मरण आया। भगवान् के विश्वरूप का उसमें वर्णन है। शुरू में अर्जुन भगवान् के विश्वरूप में पूरे विश्व को देखता है। सब ब्रह्माण्ड, सब लोक, देव, असुर, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, मनुष्य, पशु, पक्षी सबको और वह सब यथास्थान दिखते हैं।
धीरे-धीरे वह विश्वरूप रौद्र होता जाता है, भयंकर होता जाता है। अर्जुन भगवान के बड़े मुखों को देखता है जिनमे से अग्नि की ज्वालाएं फूट रही हैं। उन्होंने धरती से आसमान तक पूरे क्षेत्र में अपना मुंह फैला रखा है। इन फैलाये हुए मुखों से अर्जुन भयभीत होता है। अर्जुन देखता है कि कौरवों के सब राजा, उसके पक्ष के भी सब बड़े राजा, सब योद्धा, भगवान् के विकराल, भयानक मुखों में बहुत तेजी से प्रवेश कर रहे हैं। वह देखता है कि कई लोगों के सिर भगवान की दाढ़ों के बीच में चूर-चूर हो गये हैं। कुछ लोगों के सिर और शरीर तो भगवान् के दांतों के बीच फंस गये हैं। भगवान इन सबको खा रहे हैं। भीष्म, द्रोण, कर्ण, जयद्रथ सबके सबको, कौरवों के पक्ष को भी और पांडवों के भी बड़े वीरों को भगवान खा रहे हैं और बीच-बीच में जीभ बाहर निकाल कर अपने होंठ और बाहर लगे हुए को चाट लेते है। पूरा विश्व उन मुखों में विनाश के लिए तेजी से जा रहा है। कुछ ऐसा सा दृश्य है जैसे बहुत सारी नदियां तेजी से समुद्र की ओर जा रही हों। कुछ ऐसा लगता है कि एक जलती हुई मशाल के ऊपर असंख्य भुनगे और कीड़े जल के मर जाने के लिए भाग रहे हों।
यह देख कर अर्जुन प्रश्न करता है कि आप कौन हैं? आपकी प्रवृत्ति क्या है?
भगवान उत्तर देते हैं-‘कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त:।’ भगवान कहते हैं कि मैं बढ़ा हुआ महाकाल हूं। लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। इनका नाश करने की मेरी वर्तमान प्रवृत्ति है।
यह भी एक भगवान का ही स्वरूप है। भारत के अध्यात्म ने, भगवान् के सामने बराबर की ताकत के किसी शैतान की कल्पना नहीं की है। जो अशुभ या भयंकर होता है, वह कोई शैतान नहीं करता भगवान् ही करते हैं। भगवान् सृष्टि रचते हैं, भगवान् ही प्रजाओं का पालन करते हैं और वही संहार भी करते है। यह संहार भी उनकी इच्छा और लीला से होता है।
महर्षि अरविन्द ने विश्वरूप के बारे में अपने गीता-प्रबंध नाम के ग्रन्थ में कहा है, ‘यह उन परात्पर और विराट पुरुष का रूप है जो सनातन पुराण पुरुष है। यह वह हैं जो सदा ही सृष्टि करते हैं क्योकि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा भगवान के विश्वरूप के अन्दर देखे हुए देवों में से एक हैं। साथ ही ये वे हैं जो सदा ही इस लोक के अस्तित्व को बनाये रखते हैं क्योकि वे शाश्वत धर्मों के रक्षक हैं। पर यह वे भी हैं जो सदैव संहार कर रहे हैं जिससे कि वह नई सृष्टि कर सकें। यह भगवान वो हैं जो काल हैं, मृत्यु हैं, सौम्य तथा रौद्र नृत्य करने वाले रुद्र हैं। संग्राम में नग्न नृत्य करती हुई, रौंदती चली जाने वाली और निहत असुरों के रक्त से सनी हुई, मुण्डमाला धारिणी काली हैं। आंधी, बवंडर, आग, भूचाल, व्यथा, दुर्भिक्ष, विप्लव, विनाश तथा प्रलयंकर समुद्र हैं। अपने इस अंतिम रूप को ही वह इस समय सामने लाते हैं। यह वह रूप है जिससे मनुष्य का मन जानबूझकर परे भागता है।’
हम भगवान के मधुर रूपों की ही कल्पना करते हैं, हालांकि बंगाल में तो काली पूजा के दिनों में माँ काली की भयंकर मूर्ति के सामने सब आठ दिनों तक उत्सव मनाते हैं, आनंद मनाते हैं। हम हिन्दू भगवान को उनके सब रूपों में देखते हैं, समझते हैं, स्वीकार करते हैं।
नई सृष्टि के निर्माण का प्रारंभ
तो फिर यह जो आज हो रहा हैं, इसको भी तो भगवान् ही कर रहे हैं। भगवान् क्यों करते हैं ऐसा? उनका कोई शत्रु नहीं है, उनका कोई विरोधी नहीं है, वह किसी से बदला निकालने के लिए नहीं करते, और निश्चय ही मनोरंजन के लिए भी नहीं करते।
भगवान इस तरह का महाविनाश करते हैं जब उनको एक नई सृष्टि का निर्माण करना होता है। जब उनको प्रचलित रूपों को मिटा करके उससे उच्चतर अवस्था में प्रकृति और संसार को ले जाना होता है। यह ईश्वर की लीला है। जिनको रखना है, उनकी रक्षा करेंगे और जिनको ले जाना है, वह ले ही जायेंगे और इसमें उनका कुछ शुभ संकल्प जरूर छिपा होगा। इसमें से वो कुछ नवरचना कर रहे होंगे। भगवान इस सब में से इस सृष्टि को एक अधिक उच्चतर अवस्था में ले जा रहे होंगे जिसके लिए यह महाविनाश नींव भरने जैसा काम होगा।
यह भी स्मरण रखने का समय है कि मृत्यु क्या है? भगवान ने गीता में बताया है कि सब प्राणी पहले अव्यक्त होते हैं, बीच में व्यक्त हो जाते हैं और अपने निधन के समय से फिर अव्यक्त हो जाते हैं। शरीर मरता है और उसमें निवास करने वाली आत्मा अमर है। मृत्यु का मतलब है कि आत्मा पुराने चोले को छोड़ कर नया चोला ग्रहण करती है। महाभारत के युद्ध में दोनों सेनाओं की ओर संकेत करके भगवान कहते हैं कि न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। इस उपदेश के साथ में भगवान् बार-बार यह भी कहते है कि शरीर की मृत्यु में शोक करने का कारण ही क्या है?
शोक नहीं, करुणा जागृत करने का समय
एक बार जब हम यह समझ लेते हैं तो नवनिर्माण के लिए तैयार हो जाते हैं। भगवान की लीला मानकर इसको स्वीकार कर लेते हैं; फिर दु:ख और क्षोभ का कोई कारण नहीं रहता। हम शांत हो जाते हैं। और शांत होने के बाद अगर हम चाहें (और हमको चाहना चाहिए) तो हम भगवान के कार्य के निमित्त और उपकरण बन सकते है। हमारे अन्दर करुणा और प्रेम के दैवी गुणों का हम आह्वाहन करें। ऐसी करुणा जो हमारे मन को मनुष्य मात्र की सहायता करने के लिए, उसके कष्ट दूर करने के लिए कर्म करने में प्रवृत्त करती है। और मनुष्य ही क्यों, पशुओं की सहायता करने के लिए भी। कई जगह से समाचार आ रहे हैं जिसमें लोग गायों के लिए चारा इकठ्ठा करके देने जा रहे हैं, बंदरों को भोजन देने जा रहे हैं।
हम भगवान की लीला को नही रोक सकते। हम मृत्यु और संहार के उनके कामों को नहीं रोक सकते। सूर्य जितनी सामर्थ्य न होते हुए भी, एक दीपक जितनी तो है न? उस दीपक जितनी सामर्थ्य का उपयोग करते हुए अपने आसपास जिन लोगों की सेवा कर सकते हैं, जिनके कष्ट कम कर सकते हैं, उतना तो हमको करना ही चाहिए। अपनी करुणा को जागृत करने का समय है, शोक का नहीं, दु:ख का नहीं। सहायता करने वाले अपने उदार भावों को जगाना होगा। हमको जो दिया है, भगवान् ने दिया है। भगवान का दिया हम उनके काम में लगाएं। हम सारी पृथ्वी के दु:ख नहीं मिटा सकते पर हमारी कॉलोनी में जिन परिवारों को कोरोना हो गया है, अगर उनके घर में भोजन बनाने की भी व्यवस्था नहीं तो हम उस व्यवस्था में सहायक हो सकते है। कोई पड़ोसी चला गया, उसके संस्कार की भी कोई व्यवस्था नहीं है तो हम सहानुभूति का हाथ बढ़ा सकते हैं। अपने से जो बन पड़े, उसको अधिक से अधिक करें। अपनी शक्ति से अधिक करें। अपने सामर्थ्य को बढ़ाकर करें। ऐसा करने से हम भगवान की इस लीला में एक शुभ सहयोग कर रहे होंगे। यही आज का युगधर्म है।
=आलोक कुमार
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