दिसंबर 2020 से जनवरी 2021 तक भारत में महामारी लगभग नियंत्रण में थी। फिर अचानक महाराष्ट्र और केरल में बम विस्फोट जैसा हो गया। इससे संदेह होता है कि क्या महामारी का प्रसार नियोजित था? नया प्रसार केवल भारत में ही क्यों हुआ? कोरोना वायरस की उत्पत्ति पर आई जांच रपटें चीन पर उंगली उठाती हैं। जैव हथियार की संयुक्त राष्ट्र द्वारा दी गई परिभाषा के सभी मानदंड सार्स-सीओवी-2 पर लागू होते हैं। इस प्रकार, एक नया युद्ध शुरू हो चुका है – जैव युद्ध
भारत में कोविड महामारी की दूसरी लहर की शुरुआत देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई और देश के एक बड़े उपभोक्ता केंद्र केरल से होने की बात भारी संदेहों से घिरी हुई है। दूसरी लहर शुरू होने से पहले दिसंबर 2020 से जनवरी 2021 तक हमने देखा कि देश में महामारी लगभग नियंत्रण में थी। जब सब कुछ ठीक था तो अचानक महाराष्ट्र और केरल में बम विस्फोट जैसा हो गया। इससे संदेह पैदा होता है कि क्या महामारी का प्रसार नियोजित था और भारतीय अर्थव्यवस्था को कमजोर करने के लिए इसके महत्वपूर्ण केंद्रों पर वायरस को गुप्त रूप से फैलाया गया था। कोरोना वायरस का नया प्रारूप, बी.1.617, पिछले संस्करण के विपरीत ज्यादा आक्रामक है। वायरस का इतना आक्रामक प्रसार पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश आदि जैसे किसी भी पड़ोसी देश में नहीं देखा गया जहां भारत जैसा व्यवस्थित वायरस नियंत्रण भी नहीं किया गया था। नया प्रसार केवल भारत में ही क्यों हुआ?
यह ऐसे समय में हुआ जब ‘वैक्सीन मैत्री पहल’ के तहत दुनिया के लगभग 95 देशों को वैक्सीन की लगभग 6.6 करोड़ खुराक की आपूर्ति करने के बाद भारत को दुनिया भर में कोरोना के कहर से बचाने वाले देश के रूप में देखा जा रहा था। पहली लहर के दौरान भारत ने दवाओं, पीपीई किट, मास्क, वैक्सीन आदि के पर्याप्त उत्पादन और आपूर्ति से पूरी दुनिया को चकित कर दिया था। पूरी दुनिया भारत और उसके प्रधानमंत्री की प्रशंसा कर रही थी, जबकि वुहान वायरस फैलाने के मूल कारण के रूप में चीन को संदेह के साथ देखा जा रहा था। स्वाभाविक रूप से यह बात चीन को सहन नहीं होनी थी। चीन के लिए भारत के साथ जैविक युद्ध लड़ना काफी आसान है। चीनी उत्पादों पर अत्यधिक निर्भर देश होने के नाते, हमारा विनिर्माण क्षेत्र चीनी कच्चे माल और मशीनरी पर निर्भर है और चीनी उत्पाद हर दिन भारत के कोने-कोने में पहुंच रहे हैं। ऐसे में चीन के लिए अपनी योजना के अनुसार किसी भी तरह के वायरस को भारत में किसी भी जगह फैलाना मुश्किल नहीं है।
कोरोना वायरस की पहली लहर में जहां वृद्ध लोगों पर अधिक घातक प्रभाव पड़ा था, वहीं इसकी दूसरी लहर बहुत आक्रामक तरीके से युवाओं को अधिक प्रभावित कर रही है। जिस तरह से चीजें आगे बढ़ रही हैं, उसे देखते हुए लोगों को डर है कि इसकी तीसरी लहर बच्चों को निशाना बना सकती है।
पिछले साल जब पूरी दुनिया इस महामारी से प्रभावित थी, तब चीन ने इसे भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की कोशिश करने और युद्ध जैसी स्थिति पैदा करने के सही समय के रूप में देखा था। ऐसे में हमें कोरोना वायरस की उत्पत्ति पर विज्ञान जगत में अब तक हुई जांचों पर ध्यान देते हुए इस वायरस की उत्पत्ति में विशेष रूप से चीनी सरकार और उसकी सेना की भूमिका की जांच करनी चाहिए।
चीनी सेना के जैव हथियार
2015 के बाद से चीन अपनी सेना के आधुनिकीकरण की रणनीति के तहत वैज्ञानिकों की भर्ती और रक्षा वैज्ञानिक क्षेत्र में निवेशों में तेजी लाया है। हाल ही में अमेरिका में शरण लेने वाली एक चीनी महिला वैज्ञानिक डॉ. ली-मेंग यान ने दुनिया को साफ-साफ बताया है कि चीनी सेना ‘अप्रतिबंधित जैव युद्ध’ के लिए कोरोना वायरस का उपयोग करती है। एक वीडियो साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस पूरी तरह से मानव निर्मित है और चीनी सरकार के नियंत्रण में वुहान लैब में बनाया गया है। ब्रिटेन के ‘द डेली मेल’ के पास मौजूद दस्तावेजों से पता चला है कि चीन के अधिकतम सुरक्षा वाले वुहान इंस्टीट्यूट आॅफ वायरोलॉजी के वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस अनुसंधान में चीनी सेना के अधिकारियों के साथ मिलकर काम किया। 2012 में शुरू की गई संयुक्त परियोजना में वरिष्ठ सैन्य अधिकारी और जैव आतंकवाद पर सरकारी सलाहकार काओ वुचुन को अनुसंधान दल का सदस्य बताया गया है। वह वुहान इंस्टीट्यूट आॅफ वायरोलॉजी के सलाहकार बोर्ड के सदस्य भी हैं। इसके अलावा, वह पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की सैन्य चिकित्सा विज्ञान अकादमी से जुड़े शोधकर्ता हैं। जैव हथियार की संयुक्त राष्ट्र द्वारा दी गई परिभाषा के सभी मानदंड सार्स-सीओवी-2 पर लागू होते हैं। इस प्रकार, एक नया युद्ध शुरू हो चुका है-जैव युद्ध।
सामने आया सबसे खतरनाक पहलू यह है कि सार्स-सीओवी-2 बनाने के लिए जरूरी आनुवंशिक संशोधन कर सकने के लिए आवश्यक मूल वायरस चीन में चोंगिकंग स्थित थर्ड मिलिटरी मेडिकल विश्वविद्यालय एवं अन्य संबंधित अनुसंधान प्रयोगशालाओं में मौजूद हैं। डॉ ली-मेंग यान ने इसका भी विवरण दिया है। 2018 में हू डी और उनके सहयोगियों ने भी अपने अध्ययन में यही बताया था। दुर्भाग्य से सैन्य कोरोना वायरस अनुसंधान के क्षेत्र मां चीन विश्व में अग्रणी है। चीनी फर्म बीजीआई ग्रुप दुनिया का सबसे बड़ा जीनोम अनुसंधान संगठन है जो चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के साथ मिलकर काम करता है। सेना के साथ मिलकर वुहान इंस्टीट्यूट आॅफ वायरोलॉजी खतरनाक कोरोना वायरस के नमूनों के संग्रह में लगा हुआ था। दशकों लंबे कोरोना वायरस निगरानी अध्ययनों के माध्यम से वुहान इंस्टीट्यूट के पास जीवित कोरोना वायरसों और उनके जीनोमिक अनुक्रमों का दुनिया का सबसे बड़ा संग्रह है। इसी संस्थान में 2015 और 2017 के बीच डॉ. शि की टीम ने कोरोना वायरस को अधिक संचरणशील बनाने से संबंधित प्रयोग किए थे। 2015 में अमेरिका में जैव सुरक्षा से जुड़ी कुछ घटनाओं के बाद प्रयोगशाला से इन वायरसों के रिसाव के जोखिम पर दुनिया भर में चर्चा हुई थी, फिर भी, चीनी वैज्ञानिकों ने नमूनों का संग्रहण जारी रखा। परंतु, अमेरिकी सरकार ने ऐसे किसी भी काम पर प्रतिबंध लगा दिया जो वायरस की संरचना में ऐसा बदलाव करे जिससे वे और खतरनाक बनते हों।
लीक हुआ चीनी दस्तावेज
हाल ही में ‘वीकेंड आॅस्ट्रेलियन’ ने समाचार प्रकाशित किया था कि अमेरिकी विदेश विभाग को एक रिस कर बाहर आया चीनी सरकारी दस्तावेज मिला था, जिसमें कोरोना वायरस को आनुवंशिक जैव हथियार बनाने के तरीकों के बारे में चर्चा की गई थी। ‘अननेचुरल ओरिजिन आॅफ सार्स एंड न्यू स्पीशीज आॅफ मैनमेड वायरस’ शीर्षक वाला यह दस्तावेज दुनिया में महामारी फैलने के पहले 2015 में लिखा गया था। इसे 18 सूचीबद्ध चीनी शोधकर्ताओं ने लिखा था, जिसमें चीनी सेना के वैज्ञानिक, हथियार विशेषज्ञ और स्वास्थ्य अधिकारी शामिल थे। इसमें कहा गया है कि सार्स कोरोना वायरस ‘आनुवंशिक हथियारों का एक नया युग’ है जिसे मानव को रोगी बनाने वाले वायरस के रूप में बदला जा सकता है और हथियार बना कर फैलाया जा सकता है।’ वैश्विक सैन्य नीति विशेषज्ञों ने इस दस्तावेज की प्रामाणिकता की पुष्टि की थी। रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया है कि तीसरा विश्व युद्ध जैविक हथियारों के जरिए लड़ा जाएगा। गौरतलब है कि कोविड-19 की महामारी की शुुरुआत मध्य चीन स्थित शहर वुहान से हुई थी। शायद यही कारण है कि चीन कोरोना वायरस की उत्पत्ति की जांच में बाहरी लोगों को शामिल होने की अनुमति देने से इतना हिचक रहा है।
कोरोना वायरस के बारे में जानकारी छिपाता है चीन
ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका और बारह अन्य देशों ने कोरोनो वायरस पर प्रमुख डेटा और नमूने साझा नहीं करने पर चीन की आलोचना की थी। डॉ ली-मेंग यान ने 2019 दिसंबर में सार्वजनिक रूप से इस वायरस के खतरों के बारे में आगाह किया था, लेकिन अधिकारियों ने उन पर रोक लगा दी। अंत में, उन्हें चीन से भाग कर अप्रैल 2020 में अमेरिका में शरण लेनी पड़ी। चीन ने उन पर दबाव बनाने के लिए उनकी मां को उसे हिरासत में लिया था। वायरस के खतरों के बारे में चेतावनी देने वाले आठ सचेतकों (ह्विसिल ब्लोअर्स) को पुलिस ने निशाना बनाया था। इनमें डॉ. ली वेनलियांग भी शामिल थे, जिनकी बाद में मृत्यु हो गई थी। यहां तक कि बीजिंग स्थित वित्तीय मामलों की पत्रिका काईक्सिन की रिपोर्ट है कि चीन के शीर्ष स्वास्थ्य प्राधिकरण, राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग, ने वुहान से निकले रोग के बारे में कोई भी जानकारी प्रकाशित करने से मना किया था।
चीनी अधिकारियों ने सार्स-सीओवी-2 और थर्ड मिलिटरी मेडिकल विश्वविद्यालय में रखे गए वायरसों में से दो अन्य के बीच संबंध को छिपाने का प्रयास किया था। ग्लोबल बायोडिफेंस नामक पत्रिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक एक अन्य प्रसिद्ध चीनी वैज्ञानिक डॉ योंग-जेन झांग और उनके सहयोगियों ने 11 जनवरी को एक सार्वजनिक वेबसाइट पर जानकारी साझा की थी जिसमें कहा गया था कि नॉवेल कोरोना वायरस उन दो वायरसों से बहुत मिलता-जुलता है जिन्हें चीनी सैन्य अनुसंधान प्रयोगशालाओं ने खोजा था। इसके अगले ही दिन डॉ झांग की प्रयोगशाला को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ने बिना कोई कारण बताए बंद कर दिया।
कोविड होने की जानकारी देर से देना
चीन में पहली बार कोरोना वायरस का प्रकोप 2002-2004 में हुआ था जिसे सार्स-सीओवी कहा गया था। उस समय चीन में लगभग 5300 लोग संक्रमित हुए थे। वुहान इंस्टीट्यूट आॅफ वाइरोलॉजी के चीनी वैज्ञानिकों की एक टीम ने इसके बारे में अध्ययन किया, वायरस के नमूने एकत्र किए और उन्हें अपने संस्थान की प्रयोगशालाओं में संग्रहीत किया। दस साल बाद यह रोग 2012 में अचानक चीन के युन्नान प्रांत में छह खनिकों को हुआ। वुहान इंस्टीट्यूट के उन्हीं शोधकर्ताओं ने उनसे भी नमूने एकत्र किए। लेकिन रहस्यमय बात यह है कि 2002 की घटना के बारे में फरवरी 2020 में विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित होने तक इसे छिपा कर रखा गया था। 2012 की दूसरी घटना पर भी पहली विस्तृत रिपोर्ट जून 2020 में साइंटिफिक अमेरिकन में प्रकाशित हुई थी।
अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध या प्रकाशन रोका जाना
बिना किसी आधार के कई देशों पर आरोप लगाने वाला पश्चिमी मीडिया अज्ञात कारणों से चीन की आलोचना करने से हिचकता है। मीडिया कोरोना वायरस के ब्रिटिश, दक्षिण अफ्रीकी, ब्राजीलियाई या भारतीय रूपों के नाम तो उछालता है, लेकिन वह इस वायरस को वुहान वायरस या चीनी वायरस कहने में हिचक रहा है।
एक वैज्ञानिक का कहना है कि ‘भविष्य में ऐसी घटना की पुनरावृत्ति रोकने के लिए यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि यह वायरस उत्पन्न कैसे हुआ’ लेकिन सार्स-सीओवी-2 की उत्पत्ति कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में किए जाने के बिंदु पर विचार करने वाले अध्ययनों को अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिकाएं प्रकाशित नहीं कर रही हैं। यह तब हो रहा है जब इस रोग के प्रकट होने के बारे में दुनिया भर के वैज्ञानिक और अन्य लोग चीन द्वारा लगातार अपारदर्शी व्यवहार से चिंतित हैं। वैज्ञानिक समुदाय ‘कोरोना वायरस रोग 2019 पर विश्व स्वास्थ्य संगठन और चीन के संयुक्त मिशन की रिपोट’ पर भी गंभीरता से सवाल उठा रहा है।
चीन के साथ पश्चिम के संबंध
चीनी शोधों के पश्चिम से संबंध भी अब सामने आ रहे हैं। अमेरिकी रिपब्लिकन सीनेटर रैंड पॉल ने संक्रामक रोग विशेषज्ञ डॉ एंथनी फौसी पर नए कोरोना वायरस बनाने के लिए वुहान इंस्टीट्यूट आॅफ वायरोलॉजी को धन मुहैया कराने के आरोप लगाए हैं। इस खबर को सबसे पहले ब्रिटेन के डेली मेल ने प्रकाशित किया। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और रिपब्लिकन प्रतिनिधि मैट गेट्ज ने भी यही आरोप लगाया था। एंथनी फौसी के यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ हेल्थ ने इकोहेल्थ एलायंस के साथ 2014 से वुहान इंस्टीट्यूट को 3.7 मिलियन अमेरिकी डालर का अनुदान जारी किया था। सीनेटर पॉल ने अमेरिका के एक अन्य वायरोलॉजिस्ट, डॉ. राल्फ बारिक पर भी वुहान इंस्टीट्यूट के डॉ. शि झेंगली को सुपर-वायरस बनाने के बारे में अपनी खोजों को साझा करने का आरोप लगाया है। इससे पता चलता है कि कैसे चीन ने दुनिया को बेवकूफ बनाया और जैव युद्ध के लिए कोरोनो वायरस का उपयोग करने में पश्चिमी विशेषज्ञता का इस्तेमाल किया।
पदार्थ विज्ञानी डॉ. बिली झांग का कहना है कि ऐसे संकेत भी हैं कि पश्चिम को प्रयोगशाला में कोरोना वायरस निर्माण के बारे में पता था। उनका कहना है कि वुहान इंस्टीट्यूट और अमेरिका के नॉर्थ कैरोलाइना विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं की एक टीम ने 2015 में ‘नेचर मेडिसिन’ में एक शोधपत्र प्रकाशित किया था जिसमें बताया गया था कि उन्होंने कैसे ‘लैब में एक रोगजनक संकर वायरस बनाया जो मनुष्यों के लिए अत्यधिक संक्रामक था।’
कोरोना वायरस वुहान मार्केट के जानवरों से नहीं आया
पत्रिका जीएम वाच का कहना है कि चीन सरकार और उसके सरकारी वैज्ञानिक लगातार कोरोना वायरस के पशुओं से मानवों में संचरण के जूनोटिक सिद्धांत को प्रचारित कर रहे हैं। इस नए वायरस के पशुओं में उत्पन्न होने के सिद्धांत का प्रचार कई प्रमुख शोध प्रकाशनों में हुआ था। पशु उत्पत्ति सिद्धांत को पुनर्स्थापित करने के लिए डॉ. शी को दुनिया भर में ‘बैट वुमन’ के रूप में प्रचारित किया गया था।
इसी के ऊपर, चीनी अधिकारियों ने इस सिद्धांत का प्रचार किया कि नए कोरोना वायरस की उत्पत्ति वुहान के समुद्री उत्पादों के बाजार में हुई थी। लेकिन उक्त सिद्धांत अब विश्वसनीयता खो चुका है। वुहान में महामारी के पहले चरण के दौरान अस्पतालों में सार्स-सीओवी-2 से संक्रमित होकर भर्ती हुए कई मरीजों का उस बाजार से कोई संबंध नहीं था। बाजार से एकत्र किए गए कुछ नमूने केवल मानवों को संक्रमित कर सकने वाले सार्स-सीओवी-2 प्रदर्शित करते थे और उनमें पशु वायरस होने के कोई संकेत नहीं थे। चीनी वैज्ञानिकों द्वारा चमगादड़ के स्थान पर मलायन पैंगोलिन को वायरस के वाहक के रूप में स्थापित करने का प्रयास भी किया गया था। लेकिन वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार पैंगोलिन के मध्यवर्ती मेजबान होने की संभावना नहीं है। अध्ययनों से पता चलता है कि मलय पैंगोलिन के एक दशक लंबे निगरानी अध्ययन में किसी भी कोरोना वायरस का पता नहीं चला था। वैज्ञानिक समुदाय में कई लोगों का कहना है कि वायरस के बारे में चीन-प्रचारित पशु-उत्पत्ति सिद्धांत सिर्फ धोखाधड़ी है।
प्रयोगशाला में वायरस बनाने के साक्ष्य
कुछ हालिया अध्ययन चौंकाने वाले तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि वायरस प्राकृतिक नहीं था बल्कि प्रयोगशाला में आनुवंशिक जोड़तोड़ से बना था। आज प्रयोगशाला में किसी भी वायरस के पुनर्निर्माण के कई उन्नत तरीके हैं। कई वैज्ञानिक रिपोर्ट्स का कहना है कि यह बहुत मुश्किल काम नहीं है। इन वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला के भीतर बहुत कम समय में नोवेल कोरोना वायरस के निर्माण का प्रदर्शन किया है।
डॉ ली-मेंग यान ने नाम न छापते हुए पहली बार 19 जनवरी, 2020 को पदार्फाश किया था कि सार्स-सीओवी-2 प्रयोगशाला मूल का वायरस है। ऐसे विज्ञान आलेखों की बहुत बड़ी संख्या है जो इस वायरस की प्रयोगशाला उत्पत्ति और चीन द्वारा की गई आनुवंशिक इंजीनियरिंग के वैज्ञानिक प्रमाण देते हैं। इसे दो मौजूदा वायरसों को संशोधित करके प्रयोगशाला में बनाया गया है। जीनोम अध्ययनों से यह भी पता चला है कि सार्स-सीओवी-2 को कृत्रिम रूप से संश्लेषित किया जा सकता है।
सोरेनसेन और उनके सह-लेखकों का कहना है कि ‘हम देखते हैं कि सार्स-सीओवी-2 में कुल छह कृत्रिम संरचनाएं सम्मिलित हैं जो अन्य ज्ञात सार्स वायरस से अलग दिखती हैं।’ इस हेरफेर और स्पाइक इंजीनियरिंग में शामिल क्लोनिंग तकनीकें 2017 से उपलब्ध हैं। डॉ. ली और उनके सहयोगियों का कहना है कि कोरोन वायरस जो सार्स-सीओवी-2 के सबसे अधिक निकट वायरस आरएटीजी13 है जो मूल रूप से 2012 में चीन के युन्नान प्रांत में संक्रमित खनिकों के फेफड़ों से आनुवंशिक रूप से अलग किया गया था।
प्रयोगशाला में कोरोना वायरस बनाने का देरी से पदार्फाश
डॉ. झेंगली शी को यह स्वीकार करना पड़ा कि चीन की प्रयोगशाला में मनुष्यों से मिले आरएटीजी13 के पूरे जीनोम की सीक्वेंसिंग 2018 में की गई थी। लेकिन दबाव में इसका प्रकाशन जनवरी 2020 तक रुका रहा। 18 और 19 जनवरी, 2020 को डॉ ली-मेंग यान ने गुमनाम रूप से पहली बार खुलासा किया कि सार्स-सीओवी-2 एक प्रयोगशाला मूल का वायरस है। इसके तुरंत बाद, 20 जनवरी को, डॉ. झेंगली शी को अपनी पांडुलिपि ‘नेचर’ को देने के लिए बाध्य किया गया जिसमें पहले प्रयोगशाला-निर्मित वायरस, आरएटीजी13, के बारे में सूचना दी। इस प्रकार, 2018 से 2020 तक आरएटीजी13 के कृत्रिम निर्माण को जानबूझकर छिपाया गया था।
क्या करना चाहिए
इन हालात में दुनिया को यह पता लगाने की जरूरत है कि क्या चीनी प्रयोगशालाओं में कोविड-19 के और भी प्रारूप मौजूद हैं। डॉ. ली-मेंग यान ने मांग की है कि ‘वुहान इंस्टीट्यूट आॅफ वायरोलाजी की पी4 प्रयोगशालाओं और उनके साथ करीबी सहयोग करने वाली प्रयोगशालाओं का स्वतंत्र आॅडिट हो। इस तरह की जांच बहुत पहले हो जानी चाहिए थी।’ इसी तरह, भारत में वायरोलॉजिस्टों को चाहिए कि वे बी.1.170 प्रारूप का जीनोम जांच कर उसके चीनी मूल का पता लगाएं, न कि उसके बारे में भारतीय संस्करण के रूप में अनुमान लगाते रहें।
-साजी नारायणन
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