नेपाल में वामपंथी दल अपनी गति को प्राप्त हो रहे हैं। पार्टी में एक बार विभाजन हो चुका है और दूसरा कभी भी हो सकता है। इस खींचतान के बीच केपी शर्मा ओली विश्वासमत खोने के तीन दिन बाद ही फिर से प्रधानमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, पर आगे की राह उनके लिए आसान नहीं दिख रही
नेपाल के प्रधानमंत्री के रूप में एक बार फिर केपी शर्मा ओली ने शपथग्रहण कर लिया है। संसद में विश्वास मत खोने के तीन दिन बाद ही ओली को नेपाल के संवैधानिक प्रावधानों के तहत प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। संसद में विश्वास मत खोने के बाद राष्ट्रपति विद्या भंडारी ने विपक्षी दलों को भी तीन दिन का समय दिया था। लेकिन विपक्षी दल ओली के खिलाफ एकजुट नहीं हो सके, जिससे ओली को दोबारा सरकार बनाने का मौका मिल गया।
कभी ओली के साथ पार्टी में रहे माओवादी नेता पुष्पकमल दहल प्रचंड ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। तीन दशक से ओली के साथ रहने वाले नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री माधव नेपाल ने तो यहां तक कह दिया था कि ओली को हटाने के लिए वे अपने तीन दर्जन से अधिक सांसदों का सामूहिक इस्तीफा दिलवा देंगे। प्रमुख विपक्षी दल नेपाली कांग्रेस ने भी साफ कह दिया था कि ओली को सत्ता से हटाने और बहुमत जुटाने में वह कोई कसर नहीं छोड़ेगी। इसके अलावा, पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई और उनकी पार्टी ने तो ओली को सत्ता से हटाने के लिए अपनी पार्टी का विभाजन कराने तक की तैयारी कर ली थी, लेकिन चौतरफा घेराबंदी के कारण ओली विश्वास मत हासिल करने से चूक तो गए, पर विपक्षी दल को भी बहुमत हासिल नहीं करने दिया। नतीजा यह हुआ कि बहुमत खोने के तीन दिन बाद ही ओली को दोबारा प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल गया। अब उनके पास बहुमत साबित करने के लिए 30 दिन का समय है।
इस बीच, ओली ने मधेश के कुछ मुद्दों का हल करने का प्रयास किया है और मधेशी दल की मांग को पूरा करने की भी शुरुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुआत कर दी है। इसलिए इस बार संभावना है कि वे अपनी सरकार बचा लेंगे। हालांकि ओली की प्राथमिकता अभी भी संसद भंग कर मध्यावधि चुनाव कराना ही है। अगर इन 30 दिनों में ओली बहुमत नहीं जुटा पाए तो उनके पास संसद भंग करने का विकल्प है।
पार्टी की अंदरूनी कलह और चीन के लगातार हस्तक्षेप से आजीज ओली ने पिछली बार जब संसद भंग कर जनादेश लेने का फैसला किया था तो उसका जबरदस्त विरोध हुआ था। चीन से निर्देशित व संचालित ओली की पार्टी का एक गुट आंदोलन पर उतर आया था। प्रमुख विपक्षी दल भी आंदोलन में शामिल हो गया था और देशभर में बड़ी-बड़ी रैलियां व विरोध सभाएं होने लगीं। बसों में भर-भर कर समर्थकों को काठमांडू लाया जाने लगा था। ओली के खिलाफ सड़क पर ऐसा माहौल बना दिया गया कि लगता था जैसे लोग ओली को सत्ता से बेदखल करके ही दम लेंगे। सरकार विरोधी आंदोलन को चीन आर्थिक मदद पहुंचा रहा था। चीन के चंगुल से निकलकर ओली उसे ही आंखें दिखाने लगे और उसकी बनाई नीतियों को संसद में पारित करने से मना कर दिया। उन्होंने शासन व्यवस्था में चीनी मॉडल को लागू करने से भी इनकार कर दिया तो चीन ने ओली को अपदस्थ करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी। चीन ने न केवल ओली की पार्टी को टूट के कगार पहुंचा दिया, बल्कि उनके खिलाफ पार्टी के भीतर विरोधियों की पूरी जमात खड़ी कर दी।
यही नहीं, चीन ने नेपाली कांग्रेस में भी घुसपैठ कर उसे ओली के खिलाफ सड़क पर उतरने को मजबूर कर दिया, जबकि लोकतांत्रिक मूल्यों को मानने वाली कांग्रेस को चुनाव में जाना ही लाभदायक लगा। लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रामचन्द्र पौडेल चीन के झांसे में आ गए और पूरी पार्टी को सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया। जनता समाजवादी पार्टी में पुराने कम्युनिस्ट नेताओं के जरिए चीन ने बाबूराम भट्टराई व पूर्व उप-प्रधानमंत्री उपेंद्र यादव को धन का लालच देकर ओली के खिलाफ आंदोलन के लिए माहौल बनाने की कोशिश की। जवाब में ओली ने भी देश के प्रमुख शहरों में शक्ति प्रदर्शन कर देश की जनता को संसद विघटन के पक्ष-विपक्ष में विभाजित कर दिया। इसी बीच, सर्वोच्च अदालत ने संसद भंग करने के फैसले को अमान्य करार देकर ओली के निर्णय को पलट दिया। इससे विपक्षी दल व चीन समर्थित अन्य नेता उत्साहित हो गए और ओली के फैसले को गलत ठहराते हुए संसद की पुनर्बहाली के फैसले का स्वागत किया। सभी को लगा कि अब तो ओली का सत्ता से बाहर जाना तय है। लेकिन ओली ने इस्तीफा नहीं दिया।
अभी विपक्षी दल संसद पुनर्बहाली का जश्न मना ही रहे थे कि शीर्ष अदालत के एक फैसले ने नेपाल की राजनीति की दशा और दिशा ही बदल दी। सत्ताधारी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नाम को लेकर विवाद का निपटारा करते हुए अदालत ने दो बड़े कम्यनिस्ट दलों के विलय की वैधानिकता को ही खत्म कर दिया। लिहाजा, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी फिर से दो भागों में बंट गई। ओली और प्रचंड अलग-अलग हो गए। ओली की पार्टी फिर से संसद की सबसे बड़ी पार्टी बन गई। सर्वोच्च अदालत के फैसले से चीन इतना हैरान था कि आनन-फानन में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने विदेश विभाग प्रमुख के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल भेजा। एक हफ्ते तक काठमांडू में नेताओं के घर जाकर प्रतिनिधिमंडल ने पूरी कोशिश की और कम्युनिस्ट पार्टी की एकता बनाए रखने के लिए अनुनय-विनय किया, लेकिन सत्ता के लालच में किसी भी कम्युनिस्ट नेता ने उसकी नहीं सुनी। नतीजा, चीनी प्रतिनिधिमंडल को निराश लौटना पडा। चीन की बनाई कम्युनिस्ट पार्टी भी टूट गई और चीनी नियंत्रण वाली सरकार भी हाथ से निकल गई। हालांकि वे ओली को तो हटा भी नहीं पाए, लेकिन कई महीनों तक चलने वाली राजनीतिक अस्थिरता जरूर कायम हो गई। ओली ने विश्वास मत खोकर भी दोबारा शपथ ले लिया।
करीब तीन साल पहले भी ओली ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी, लेकिन अब सबकुछ बदल गया है। नेपाल में संविधान लागू होने के बाद हुए पहले चुनाव में वामपंथी दलों का दबदबा रहा और करीब दो तिहाई सीटें जीतकर ओली ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली। इसके बाद दोनों बड़े कम्यनिस्ट दलों के विलय की घोषणा हुई और उनकी सरकार बनी। लेकिन तीन साल में राजनीतिक हालात ऐसे बदल गए कि दो तिहाई वाली कम्युनिस्ट पार्टी अब दो हिस्सों और तीन गुटों में बंट गई है। तीन साल में ही दो तिहाई बहुमत वाली सरकार अब अल्पमत की सरकार में बदल गई है। दो तिहाई की शक्तिशाली बहुमत वाले प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली अब सामान्य बहुमत हासिल करने में भी नाकाम रहे। बहुमत पाने के उद्देश्य से अब वे एक बार फिर छोटे राजनीतिक दलों का समर्थन जुटाने के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे हैं।
दो तिहाई बहुमत का दंभ भरने वाले और इस आधार पर नेपाल में अपना सर्वसत्तावादी हुकूमत थोपने का षड्यंत्र करने वाले वामपंथी नेताओं की हालत ऐसी हो गई है कि अब उनके लिए नेपाल का संविधान, नेपाल की संसद, नेपाली वामपंथियों की एकता सब मुश्किल में दिखाई दे रहा है। वामपंथी दल और इसके सभी बड़े नेता अपने ही बनाए चक्रव्यूह में ऐसे फंस गए हैं कि उन्हें समझ नहीं आ रहा कि आखिर इतनी बड़ी पार्टी, शक्तिशाली सरकार और चीन का पूरा सहयोग होते हुए भी सब कुछ ताश के पत्तों की तरह कैसे ढह गया। बीते कुछ माह के दौरान नेपाल में वामपंथियों की जो हालत हुई है, उससे उनके मन में यह डर बैठ गया है कि अगला चुनाव आते-आते कहीं उनकी हालत बंगाल के वामपंथियों जैसी न हो जाए। इस सदमे से बाहर निकलने के लिए नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के छोटे से लेकर बड़े नेताओं ने केरल में दोबारा वामपंथी सरकार बनने पर सामाजिक संजाल के जरिए उन्हें बधाई दी और अपने यहां नेताओं को नसीहत। साथ ही, कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने का भरपूर प्रयास किया कि अगर केरल में वामपंथ फिर से सत्ता में आ सकता है तो नेपाल में क्यों नहीं? केरल का किस्सा सुनाकर नेपाल के वामपंथी सदमे से उबरने का चाहे जितना प्रयास कर लें, पार्टी में अंतर्कलह को देखते हुए लग रहा है कि किसी भी समय पार्टी में फिर से टूट हो सकती है।
नेपाल पर चाइनीज मॉडल वाली शासन व्यवस्था थोपने के लिए जो बड़ी साजिश की गई थी, फिलहाल टल गई है। सत्ता की खींचतान में नेपाल की सबसे मजबूत वामपंथी दल की हालत आज ऐसी हो गई कि इसके शीर्ष नेता आपस में ही लड़ने लगे, एक-दूसरे के खिलाफ सड़क पर उतरे, मुकदमे हुए और एक-दूसरे के खिलाफ जितनी निकृष्ट भाषा का प्रयोग कर सकते थे, वह भी किया। नतीजा, पार्टी विभाजन, अल्पमत की सरकार, एक-दूसरे को पटखनी देने में ही इनकी ऊर्जा खत्म हो रही है।
पंकज दास
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