अनिल दवे उदारमना, बौद्धिक संवाद में रूचि रखने वाले, नए ढंग से सोचने वाले और जीवन को बहुत व्यवस्थित ढंग से जीने वाले व्यक्ति थे। उनके भारतप्रेम और भारतबोध गहरा था।
उन्हें याद करना एक ऐसे व्यक्ति को याद करना है, जिसके लिए राजनीति का मतलब पृथ्वी और मानवता के सामने उपस्थित संकटों का समाधान खोजना था। उनका सुदर्शन, सजीला और नफासत से भरा व्यक्तित्व मानव जीवन की चुनौतियों से व्यथित रहता था। अपने संवादों में वे इन चिंताओं को निरंतर व्यक्त भी करते थे। विचारों में आधुनिक, किंतु भारतीयता की जड़ों से गहरे जुड़े अनिल दवे संघ परिवार के उन कार्यकर्ताओं में थे, जिनमें गहरा भारतप्रेम और भारतबोध था। पर्यावरण, जल, जीवन और जंगल के सवाल भी किसी राजनेता की जिंदगी की वजह हो सकते हैं, ऐसे ही राजनेता थे अनिल माधव दवे।
18 मई, 2017 को वे हमें छोड़कर चले गए, पर उनकी दिखाई राह आज भी उतनी ही पवित्र, परिपूर्ण और प्रासंगिक है। वे जिस तरह बुनियादी सवालों पर संवाद करते थे, वह दुर्लभ है। जिंदगी को प्रकृति से जोड़ने और उसके साथ सहजीविता कायम करने की उनकी भावना अप्रतिम थी। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री के तौर पर संसद में उन्हें गंभीरता से सुना जाता था। अनिल माधव दवे देश के उन चुनिंदा राजनेताओं में थे, जिनमें बौद्धिक गुरुत्वाकर्षण मौजूद था। उन्हें देखने, सुनने और सुनते रहने का मन होता था। पानी, पर्यावरण, नदी और राष्ट्र के भविष्य से जुड़े सवालों पर उनमें गहरी अंतर्दृष्टि थी। वे ऐसे कठिन समय में हमें छोड़कर चले गए, जब देश को उनकी जरूरत सबसे ज्यादा थी। अपनी वसीयत में उन्होंने साफ कर दिया था कि उनकी प्रतिबद्धता क्या है। वसीयत में उन्होंने लिखा था कि मेरा अंतिम संस्कार नर्मदा नदी के तट पर बांद्राभान (होशंगाबाद) में किया जाए तथा उनकी स्मृति में कोई स्मारक, प्रतियोगिता, पुरस्कार, प्रतिमा स्थापना इत्यादि न हो। दवे जी का जीवन और उनकी वसीयत बहुत कुछ सिखाती है।
भोपाल में जिन दिनों मैं पढ़ाई कर रहा था, वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। विचार को लेकर स्पष्टता, दृढ़ता और गहराई के बावजूद उनमें जड़ता नहीं थी। वे उदारमना, बौद्धिक संवाद में रूचि रखने वाले, नए ढंग से सोचने वाले और जीवन को बहुत व्यवस्थित ढंग से जीने वाले व्यक्ति थे। उनके आसपास एक ऐसा आभामंडल स्वतः बन जाता था कि उनसे सीखने की ललक होती थी। नए विषयों को पढ़ना, सीखना और उन्हें अपने विचार परिवार (संघ परिवार) के विमर्श का हिस्सा बनाना, उन्हें महत्वपूर्ण बनाता था। वे परंपरा के पथ पर भी आधुनिक ढंग से सोचते थे। वे अविवाहित रहे और अपना जीवन समाज को समर्पित कर दिया। वे सच्चे अर्थों में भारत की ऋषि परंपरा के उत्तराधिकारी थे। संघ की शाखा लगाने से लेकर हवाई जहाज उड़ाने तक, वे हर काम में सिद्धहस्त थे। 6 जुलाई, 1956 को मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले के बड़नगर में जन्मे श्री दवे की मां का नाम पुष्पादेवी और पिता का नाम माधव दवे था।
उनकी सादगी में भी एक सौंदर्यबोध परिलक्षित होता था। बांद्राभान में जब वे अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव का आयोजन करते थे, तो इतने भव्य कार्यक्रम की एक-एक चीज पर उनकी नजर होती थी। यही विलक्षता भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में भी दिखी। आयोजनों की भव्यता के साथ सादगी और एक अलग वातावरण रचना उनसे सीखा जा सकता था। सही मायने में उनके आसपास की सादगी में भी एक गहरा सौंदर्यबोध छिपा होता था। वे एक साथ कितनी चीजों को साधते हैं, यह उनके पास होकर ही जाना जा सकता था।
विचार के प्रति अविचल आस्था, गहरी वैचारिकता, सांस्कृतिक बोध के साथ वे विविध अनुभवों को करके देखने वालों में थे। शौकिया पर्यटन ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा था। वे मुद्दों पर जिस अधिकार से अपनी बात रखते थे, उससे पता चलता था कि वे किस तरह विषय के साथ गहरे जुड़े हुए हैं। उनका कृतित्व और जीवन पर्यावरण, नदी संरक्षण, स्वदेशी के युगानुकूल प्रयोगों को समर्पित था। वे स्वदेशी और पर्यावरण की बात कहते नहीं, करके दिखाते थे। उनके बड़े आयोजनों में तांबे के लोटे, मिट्टी के घड़े, कुल्हड़ से लेकर भोजन के लिए पत्तलें प्रयुक्त होती थीं। आयोजनों में उनके द्वारा बनाई गयी कुटिया में देश के दिग्गज लोग भी आकर रहते थे। हर आयोजन में नवाचार करके उन्होंने सबको सिखाया कि कैसे परंपरा के साथ आधुनिकता को साधा जा सकता है। राजनीति में होकर भी वे इतने मोर्चों पर सक्रिय थे कि ताज्जुब होता था।
वे एक कुशल संगठनकर्ता होने के साथ चुनाव रणनीति में नई प्रविधियों के साथ उतरना जानते थे। वे भाजपा के चुनिंदा कुशल चुनाव संचालकों, रणनीतिकारों में से एक थे। किसी राजनेता की छवि को किस तरह जनता के बीच स्थापित कर अनूकूल परिणाम लाना है, ऐसा वे मध्य प्रदेश के कई चुनावों में करते रहे। दिग्विजय सिंह के दस वर्ष के शासनकाल के बाद उमा भारती के नेतृत्व में लड़े गए विधानसभा चुनाव और उसमें अनिल माधव दवे की भूमिका को याद करें तो उनकी कुशलता एक मानक की तरह सामने आएगी। सबको साथ लेकर चलना और साधारण कार्यकर्ता से भी बड़े से बड़े काम करवा लेने की उनकी क्षमता को मध्य प्रदेश ने बार-बार देखा और परखा।
उनके लेखन में गहरी प्रामाणिकता, शोध और प्रस्तुति का सौंदर्य दिखता है। लिखने को कुछ भी लिखना उनके स्वभाव में नहीं था। उन्होंने शिवाजी एंड सुराज, क्रिएशन टू क्रिमेशन, रैफ्टिंग थ्रू ए सिविलाइजेशन, ए ट्रैवलॉग, शताब्दी के पांच काले पन्ने, संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से, महानायक चंद्रशेखर आजाद, रोटी और कमल की कहानी, समग्र ग्राम विकास, अमरकंटक से अमरकंटक तक, बियोंड कोपेनहेगन, यस आई कैन, सो कैन वी जैसी पुस्तकों के माध्यम से अपनी बौद्धिक क्षमताओं से लोगों को परिचित कराया। अनछुए और उपेक्षित विषयों पर गहन चिंतन कर वे उसे लोक-विमर्श का हिस्सा बना देते थे। आज मध्य प्रदेश में नदी संरक्षण को लेकर जो चिंता सरकार के स्तर पर दिखती है, उसके बीज कहीं न कहीं दवे जी ने ही डाले हैं, इसे कहने में संकोच नहीं करना चाहिए।
नर्मदा समग्र संगठन के माध्यम से उन्होंने जो काम किए, आज हम सबके सामने हैं। ‘नर्मदा समग्र’ के कार्यालय का नाम उन्होंने ‘नदी का घर’ रखा। वे जीवन भर हमें नदियों से, प्रकृति से, पहाड़ों से संवाद का तरीका सिखाते रहे। प्रकृति से संवाद दरअसल उनका प्रिय विषय था। दुनिया भर में होने वाली पर्यावरण से संबंधित संगोष्ठियों और सम्मेलनों मे वे ‘भारत’ (इंडिया नहीं) के अनिवार्य प्रतिनिधि थे। उनकी वाणी में भारत का आत्मविश्वास और सांस्कृतिक चेतना का निरंतर प्रवाह दिखता था। आज जब बाजारवाद हमारे सिर पर चढ़कर नाच रहा है, प्रकृत्ति और पर्यावरण के समक्ष रोज संकट बढ़ रहा है, हमारी नदियां और जलश्रोत- मानव रचित संकटों से बदहाल हैं, अनिल दवे का हमारे साथ न होना हमें बहुत अकेला कर गया है। कोरोना संकट के बहाने हमें एक बार फिर जड़ों से जुड़ने और प्रकृति के साथ संवाद का अवसर मिला है। इस अवसर को हम न चूकें, यही अनिल जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
-प्रो.संजय द्विवेदी
(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं)
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