पश्चिमी मीडिया के दोहरे मानदंड
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पश्चिमी मीडिया के दोहरे मानदंड

by WEB DESK
May 18, 2021, 12:59 pm IST
in दिल्ली
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पश्चिमी मीडिया ने एक निहायत चिंताजनक कार्यप्रणाली अपना रखी है जिसके तहत बनाई खबरों से वे दुनिया भर में एक अलग ही रुझान की पटकथा परोस रहे हैं। ब्रह्म चेलानी के एक विश्लेषण के अनुसार पश्चिमी मीडिया ने अपने देशों के मुकाबले विकासशील और कम विकसित देशों में हो रही मानव त्रासदी की रिपोर्टिंग करने में दोहरे मापदंड अपना रखे हैं

राष्ट्रपति शी जिंगपिंग के अधीन चीन की विदेश नीति का एक स्याह पक्ष उभरा है जो वुल्फ वारियर के समान छिप कर वार करने की आक्रामक कूटनीति पर अमल कर रहा है। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय मंच पर बीजिंग को काफी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।

चीन के शक्तिशाली पोलित ब्यूरो के अध्यक्ष राष्ट्रपति शी जिंगपिंग ने घरेलू और विदेशी नीतियों को एक ऐसे ढांचे में ढाला है जो देश के अंदर और बाहर दोनों ही जगहों पर वुल्फ वारियर जैसी हमलावर कूटनीति के अनुरूप है। अगर उइगर मुस्लिम नरसंहार पर बारीकी से गौर करें तो चीन के इन आक्रामक राजनयिकों को डराने-धमकाने और यहां तक कि कमजोर सरकारों पर भी हावी होने की खुली छूट थी।

आज वुल्फ वारियर समान चीनी राजनयिकों की मनमानी की बात सामने लाने की बड़ी जरूरत है, क्योंकि पश्चिमी मीडिया ने एक निहायत चिंताजनक कार्यप्रणाली अपना रखी है जिसके तहत बनाई खबरों से वे दुनिया भर में एक अलग ही रुझान की पटकथा परोस रहे हैं।
कोविड 19 महामारी से जूझते भारत का कवरेज, विशेष रूप से पिछले कुछ हफ्तों में उभरी दूसरी लहर, शी जिंगपिंग के वुल्फ वारियर की तरह जांच का एक मुद्दा बन गया है। दरअसल, एक आॅस्ट्रेलियाई अखबार ने भारतीय लोगों की त्रासदी पर सबसे असंवेदनशील और निजता का हनन करने वाली रिपोर्टिंग को ‘वल्चर जर्नलिज्म’ का नाम दिया है।
यहां वल्चर जर्नलिज्म का अर्थ ऐसी रिपोर्टिंग से है जिसके तहत लाखों कोविड 19 संक्रमित रोगियों के इलाज में भारत के अस्पतालों के बुनियादी ढांचे के विफल हो जाने की कठोर आलोचना करते हुए लोगों के अपार दुख और त्रासदी का सबसे अमानवीय मंजर परोसा जा रहा है।

ब्रह्म चेलानी के एक विश्लेषण के अनुसार पश्चिमी मीडिया ने अपने देशों के मुकाबले विकासशील और कम विकसित देशों में हो रही मानव त्रासदी की रिपोर्टिंग करने में दोहरे मापदंड अपना रखे हैं।
सवाल यह है कि क्या पश्चिमी मीडिया के संवाददाताओं ने पिछले कुछ हफ्तों के दौरान भारत में अचानक उभरे मौत, पीड़ा और शोक के तांडव और दुख में डूबे लोगों के निजी क्षणों की तस्वीरों को बेरहमी से अपनी रिपोर्ट में पेश करते समय पत्रकारिता के पहले नियम को नहीं तोड़ा?

जो पश्चिमी मीडिया भारत के शोक-संतप्त लोगों के प्रति असंवेदनशील बन, उनकी निजता का हनन कर कोविड महामारी में जान गंवाने वाले मृतकों के अंतिम संस्कार की तस्वीरों को जितनी तत्परता से परोस रही है, वही चीन में ब्यूबोनिक प्लेग के शिकार हुए लोगों के बारे में मौन है, क्या इससे पत्रकारिता की नैतिकता पर गंभीर सवाल नहीं उठते?
क्या वे अपने देशों में जलती चिताओं की भयानक तस्वीरें दिखाएंगे? जबकि वास्तविकता यह है कि इस महामारी के दौरान होने वाली कुल मौत में से आधे से अधिक यूरोप और अमेरिका में हुर्इं, क्या उन्होंने उन जगहों की ऐसी ही ‘अमानवीय रिपोर्टिंग’ की है जैसे भारत की?

उनके टीवी चैनलों के कैमरे मुर्दाघरों, आपातकालीन वार्डों, यहां तक कि श्मशान और कब्रगाहों में प्रवेश करने से नहीं हिचके, न ही रोते-बिलखते पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के मुंह के सामने माइक्रोफोन लगाते उनके हाथ कांपे। इन सभी की जांच होनी चाहिए।
हालांकि, इसमें ज्यादा दोष भारतीय विजुअल मीडिया का है जो टीआरपी रेटिंग के खेल और विज्ञापनों से ऊंची कमाई की होड़ में इंसानियत से नीचे गिरते हुए लोगों के दुख, तकलीफ और त्रासदी का जश्न मनाता दिख रहा है।

उदाहरण के लिए, जब बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स या वाशिंगटन पोस्ट ने जलती चिताओं की भयावह तस्वीरें दिखाईं तो वे या तो उनके अपने रिपोर्टरों की ली हुई तस्वीरें थीं, या वैश्विक समाचार एजेंसियों, या गुजराती अखबार संदेश या दैनिक भास्कर जैसे अपने भारतीय समाचार भागीदारों के भारतीय संस्करणों में छपी थीं।
क्या मीडिया को कोविड 19 को 100 सालों में एक बार उभरने वाली मानवीय त्रासदियों की तरह समझकर उसकी रिपोर्टिंग में संयम नहीं बरतना चाहिए था? खबरों को सबसे पहले दिखाने और उसे सबसे रोमांचक रूप में परोसने की खबरिया प्रवृत्ति पर लगाम की जरूरत है।
यहां मुद्दा सिर्फ बुनियादी संवेदनशीलता के अहसास का नहीं, बल्कि सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या पत्रकार किसी व्यक्ति, परिवार या समुदाय की निजता का हनन कर सकते हैं जो अपार शोक और पीड़ा से गुजर रहा है?

फेसबुक या व्हाट्सएप जैसे टेक्नोलॉजिकल प्लेटफार्म की ओर से व्यक्तियों और परिवारों के डेटा को उनकी जानकारी के बिना इकट्ठा करने के संबंध में गोपनीयता के अधिकार से जुड़ा मुद्दा बना और इस पर बहस जारी है। आधार कार्ड जारी करने के लिए भारत सरकार द्वारा नागरिकों के डेटा के मिलान को उनकी निजता का हनन माना गया, और इस पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान भी लिया। फिर संवेदनाशून्य और अमानवीय गिद्ध सरीखे पत्रकारों पर लगाम नहीं लगानी चाहिए?
देखा जाए तो पश्चिमी मीडिया प्रतिनिधि एक भावहीन चेहरा लेकर घूम रहा है और विश्व शक्तियों को सहायता प्रदान करने के लिए प्रेरित करने के आडंबर में भारत की मानवीय त्रासदी की अपनी कवरेज को उचित ठहरा रहा है। पश्चिमी मीडिया के प्रतिनिधियों को भारतीयों की सहायता का इंतजाम करने की आड़ में यह छूट लेने का हक है? अगर ऐसी ही स्थिति अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी या स्पेन में हो तो क्या वहां के पत्रकार अपने देश के लिए ऐसा ही करेंगे?

क्या हमारे सामने पश्चिमी दुनिया के देशों की ऐसी दर्दनाक तस्वीरें परोसी गई जिनमें मेडिकल सुविधाओं या उपकरणों की कमी से लोग हांफते, तड़पते दम तोड़ते दिखाई दे रहे हैं?
बात सिर्फ कोविड-19 की नहीं। सुनामी, भूकंप, सूखा या बाढ़ जैसी अधिकांश त्रासदियों के कवरेज को निहायत ही संयम के साथ कवर करना चाहिए। युद्ध या संघर्षों की रिपोर्टिंग करते समय भी मीडिया को अपने रुख में बदलाव लाते हुए संवेदनशीलता और जिम्मेदारी के साथ काम करना होगा।
कोविड-19 जैसी त्रासद स्थितियों में पीड़ितों की कहानियों को रिपोर्टिंग के नाम की आड़ में टीआरपी की की बिसात पर विजयी होने के लिए नैतिकता और संवेदनाओं की सीमा का अतिक्रमण करती एक अंधी दौड़ जारी है।

आधी-अधूरी कहानियों को खौफनाक मंजर के रूप में पेशकर भारतीय समाज में दहशत, अवसाद और निराशा फैलाई जा रही है और स्वतंत्रता का घोर दुरुपयोग हो रहा है। पश्चिमी और भारतीय मीडिया दोनों की ओर से दिखाई जा रही ज्यादातर रिपोर्ट तथ्यात्मक रूप से गलत और कुछ मामलों में बिल्कुल ही झूठी हैं। वे पत्रकारिता के दायित्व का सही पालन नहीं कर रहीं।

लोगों और समाज में अपनी रिपोर्टिंग के जरिए दशहत फैलाना एक गैरजिम्मेदाराना हरकत है। ऐसी पत्रकारिता पर लगाम लगाने की जरूरत है। ल्ल
-के.ए.बदरीनाथ

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