18 मई को श्री बद्रीनाथ मंदिर का कपाट खुल रहा है। इस मंदिर के संस्थापक हैं आद्य शंकराचार्य जी, जिनकी जयंती 17 मई यानी आज है। बद्रीनाथ मंदिर का निर्माण कार्य शंकराचार्य की माताजी आर्यम्बा द्वारा दिए गए धन से शुरू हुआ था। इस प्रसंग का विवरण पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने अपनी पुस्तक (जगद्गुरु शंकराचार्य) में बहुत ही मार्मिक शब्दों में किया है। यहां उसी पुस्तक के कुछ अंशों को लेख के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है—
बद्रिकाश्रम में शंकराचार्य ने गुरु से देश-भ्रमणार्थ आज्ञा लेकर यात्रा की तैयारी की ही थी कि
उन्होंने अपने संबंधी अग्नि शर्मा को आते देखा। अनिष्ट की आशंका से उनका हृदय धड़कने लगा। वे जानते थे कि उनके संबंधी अग्नि शर्मा के आने का और कोई कारण नहीं हो सकता। कालटी के अनेक चित्र एक-एक करके उनकी आंखों के सामने से निकल गए। अग्नि शर्मा का अभिवादन करके उन्होंने कुशल-क्षेम पूछी, किन्तु अग्नि शर्मा शांत खड़ा था।
‘बोलो भाई सब कुशल तो है। चुप कैसे खड़े हो?’ शंकराचार्य ने आग्रहपूर्वक पूछा।
अग्नि शर्मा ने बहुत—सा धन निकालकर शंकराचार्य के सम्मुख रख दिया और बोला, ‘यह धन है जो माता आर्यम्बा ने तुम्हारे पास भेजा है। वे अपनी अंतिम सांसें गिन रही हैं।’
शंकराचार्य के ऊपर मानो वज्र गिर गया। वे हतप्रभ खड़े थे। माता से उनको बहुत प्रेम था। उन्हें इस बात का दुःख नहीं था कि वह परलोक-गामिनी होना चाहती थीं, परन्तु इस बात का कि वे अपनी धर्म-यात्रा अभी प्रारम्भ नहीं कर सकेंगे। शांतचित्त से उन्होंने माता से प्रतिज्ञा की थी कि मरते समय अवश्य आ जाऊँगा, अतः अपनी प्रतिज्ञानुसार अब उनको कालटी जाना था।
माता के भेजे हुए धन का शंकराचार्य क्या करते? वे तो संन्यासी हो चुके थे। अब वह सम्पत्ति उनकी नहीं, राष्ट्र की थी। अतः उन्होंने बद्रिकाश्रम में ही उस धन से श्री बद्रीनाथ का मंदिर बनवाया।
13,000 फीट की ऊँचाई पर हिमालय की उपत्यका में आज भी यह भव्य मंदिर खड़ा हुआ है और इसके साथ ही वह विशाल हिन्दू-राष्ट्र भी खड़ा हुआ है जिसकी नींव शंकर ने इस मंदिर के साथ रखी थी। हमारे प्रमुख तीर्थों में बद्री तीर्थ एक अत्यन्त प्रमुख स्थान रखता है। भारत के कोने-कोने से हिम और शीत की चिंता न करते हुए, जंगल और पहाड़ों की चिंता न करते हुए, सहस्रों की संख्या में हिन्दू श्री बद्रीनाथ के दर्शन करने को जाते हैं और जब वे अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति-भाव से श्री बद्रीनाथ को नमन करते हैं तो अनजान में ही शंकराचार्य और माता आर्यम्बा के प्रति भी अपनी श्रद्धा के दो फूल चढ़ा देते हैं। जिन कांचन पात्रों में भगवान का भोग लगाया जाता है वे शंकराचार्य के दिए हुए हैं तथा आज तक अग्नि शर्मा के वंशज ही इस मंदिर में पूजा करने के अधिकारी हैं।
बद्रीनारायण के मंदिर का निर्माण प्रारम्भ करके शंकराचार्य अपने मित्र विष्णु शर्मा के साथ कालटी चल दिये। विष्णु शर्मा भी अब संन्यासी हो गया था तथा अब उसका नाम चित्सुखाचार्य था। शंकराचार्य अपनी माता के दर्शनों के लिए बड़े उत्सुक थे, जिसके कारण मार्ग का एक-एक डग उनको एक-एक कोस मालूम होता था। इतना लम्बा मार्ग हो गया था कि काटे नहीं कटता था। वैसे भी कोई कम अंतर नहीं है। बद्रिकाश्रम से कालटी लगभग 1800 मील दूर है। उस समय रेल नहीं थी, हवाई जहाज नहीं थे, सम्पूर्ण मार्ग पैदल ही चलना था। कितने दिन लगे होंगे। शंकराचार्य को आते-आते और उनके मन की क्या दशा रही होगी इन दिनों में? उनको बताया गया था कि उनकी माता अंतिम सांसें गिन रही थीं। इधर वे भी एक-एक पग गिन रहे थे। उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे। जमीन छूने में भी समय लगता है न? वे उड़े जा रहे थे। उन्हें विश्राम की चिंता नहीं थी। भूख और प्यास सब मारी गई थी।
दौड़ते-दौड़ते जैसे-तैसे कालटी पहुँचे। भगवान् की कृपा से माता के अंतिम दर्शन कर सके। जैसे ही वे घर में गये कि दौड़कर अपनी माता के चरण पकड़ लिये। वे भूल गये थे कि वे संन्यासी हैं, सर्ववन्द्य हैं। नहीं, भूले नहीं थे। वे जानते थे कि कितने ही बड़े क्यों न हो जायें माता के लिए तो वही शंकर है और फिर माता-माता ही है, सर्वदा आदरणीय है, पूज्या है। माता आर्यम्बा ने उसको गले से लगा लिया। हर्षातिरेक से उसके आँसू निकलने लगे।
शंकराचार्य ने माता की खूब सेवा-सुश्रूषा की। सदा माता की खाट के पास ही बैठे रहते, उसे दवा देेते, गर्मी में पंखा झलते। माता आर्यम्बा का व्रत था कि वह नित्यप्रति पूर्णा नदी में स्नान करती थीं। अब वह दुर्बल हो गयी थीं, अब शरीर में इतनी शक्ति नहीं थी कि नदी तक जा सकें। नदी दूर थी आर्यम्बा बड़ी चिंतामग्न थीं। सोचती थीं कि अब अन्त समय में मुझे अपना व्रत तोड़ देना पड़ेगा। उनको इस प्रकार चिंताकुल देखकर शंकराचार्य ने कहा, ‘माँ तुम चिंता क्यों करती हो? अब तक तुम नदी तक जाती थीं, अब नदी तुम्हारे पास आएगी।’ आर्यम्बा कुछ भी नहीं समझ पाईं परंतु उन्होंने अपने पुत्र की बात पर विश्वास कर लिया, क्योंकि वह जानती थीं कि शंकराचार्य में अलौकिक शक्ति है।
दूसरे दिन प्रातःकाल जब शंकराचार्य कंधे पर घड़ा रखकर जाने लगे तो आर्यम्बा ने पूछा, ‘कहां जाता है शंकर?’
‘नदी लेने जा रहा हूँ माँ’ शंकराचार्य ने उत्तर दिया।
‘नहीं, बेटा नहीं, नदी पर मत जा, नदी में ग्राह है।’ आर्यम्बा ने घबराकर कहा।
शंकराचार्य हंस दिये और बोले, ‘वह तो मर चुका माँ! अब मुझे फिर संन्यास थोड़े ही लेना है?’
शंकराचार्य नदी पर गये। एक मटका पानी भरा और नदी में कुछ बल्लियों का बेड़ा इस प्रकार बांध दिया कि नदी का प्रवाह पलट गया। माता आर्यम्बा ने उस दिन घड़े के पानी से स्नान किया। बचा हुआ पानी द्वार पर फेंक दिया। दूसरे दिन लोगों को देखकर आश्चर्य हुआ कि पूर्णा का जल शंकराचार्य के द्वार की सीढ़ियों से टकरा रहा था। उनका बल्लियों का लगाना काम दे गया। परन्तु लोगों को यह रहस्य कहाँ मालूम था, वे तो शंकराचार्य के अतिमानुषी कार्य के सम्बंध में तरह-तरह की चर्चा करने लगे।
एक दिन आर्यम्बा ने शंकराचार्य से कहा, ‘शंकर! तू धर्म का ज्ञाता है। देशभर में धर्म का प्रचार करने वाला है। तनिक मुझे भी तो कुछ धर्म बता। मरते-मरते कुछ तो शांति मिले।’
शंकराचार्य ने माता की आज्ञा पाकर उसे अद्वैत की बातें अत्यंत ही सीधी और सरल भषा में बताने का प्रयत्न किया। उसे समझाने के लिए उन्होंने तत्वबोध नाम का एक सरल ग्रंथ भी रचा। सब कुछ सुनकर माता आर्यम्बा ने कहा, ‘ये तो ऊँची बातें हैं शंकर! देश के सब लोग इन बातों को समझ सकेंगे? मुझे तो कुछ भगवान् कृष्ण के विषय में ही बता।’
शंकराचार्य ने कृष्णाष्टक बनाकर माता को सुनाया तथा उसी दिन यह भी समझा कि जब तक वेदांत के तत्वज्ञान को भक्ति का पुट नहीं मिलता तब तक वह जन-साधारण के किसी काम का नहीं है और इसी समय भक्तों के भिन्न इष्टदेवों के पीछे एक परब्रह्म की प्रतिष्ठापना का निश्चय कर लिया। कृष्णाष्टक सुनकर आर्यम्बा इतनी भक्तिभाव पूर्ण हो गईं कि भगवान् का ध्यान करते-करते उसकी आत्मा भगवान् में लीन हो गई। कृष्णाष्टक समाप्त करते ही शंकराचार्य ने देखा कि उनके सामने माता का प्राणहीन शरीर पड़ा हुआ है। माता की मृत्यु के उपरान्त उनका अंतिम संस्कार करना उनका कर्तव्य हो जाता था, क्योंकि वे इसकी प्रतिज्ञा कर चुके थे। वे संन्यासी थे और संन्यासी को दाहकर्म की आज्ञा नहीं है, यह वे जानते थे।
यह समस्या उनके समक्ष भी उपस्थित हुई थी जब माता आर्यम्बा ने उनसे उनका अन्त्य संस्कार करने की प्रतिज्ञा करवा ली थी। वह सोचती थी कि अंतिम संस्कार की प्रतिज्ञा और संन्यास दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते। इसलिए शंकर संन्यास का विचार छोड़ देगा। परन्तु शंकराचार्य ने संन्यास धर्म इसलिए अपनाया था कि इस मार्ग से देश, जाति और धर्म का अधिक से अधिक कार्य कर सकेंगे, न कि इसलिए कि उन्होंने संन्यास को ही सर्वस्व समझ रखा था। वे जानते भी थे कि माता से की हुई उनकी प्रतिज्ञा उनके देश कार्य में बाधा नहीं डाल सकेगी। इसलिए उन्होंने वास्तविक संन्यास ग्रहण किया, केवल दिखावे का नहीं। माता का अंतिम संस्कार करने के कारण संन्यास धर्म से च्युत श्रीशंकराचार्य के जीवन के साथ-साथ कौन-सा परम नैष्ठिक संन्यासी तुलना करने का साहस करेगा? क्या शंकराचार्य के समान किसी अन्य संन्यासी ने देश सेवा की है? यदि नहीं तो शंकराचार्य सच्चे संन्यासी थे, मन से थे, तत्वतः वे केवल कपड़े रंग कर दिखावा करने वाले नहीं और इसीलिए तो आज तक वे संन्यासियों के समक्ष भी आदर्श बने हुए हैं।
शंकर के इस कार्य के कारण उनके कुल के तथा कुटुम्ब के लोग उनसे बिगड़ गये तथा किसी ने भी आर्यम्बा का शव उठाने तक में सहायता नहीं दी। परन्तु दृढ़निश्चयी, दृढ़प्रतिज्ञ, निर्भीक एवं अपने अन्तःकरण में प्रतिष्ठापित सत्य के समक्ष संसार की चिंता न करने वाले शंकराचार्य ने स्वयं एकाकी ही सम्पूर्ण संस्कार विधिवत् किये। अपने घर के आंगन में ही चिता रचकर अपनी बलिष्ठ भुजाओं से उठाकर शव को चिता पर रखा और वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए अग्नि-संस्कार किया। उसी समय उन्होंने मातृ-स्तुति नाम की कविता रची। उनके हृदय में माता के प्रति कितना प्रेम और कितनी श्रद्धा थी, यह इस कविता के एक-एक अक्षर से टपकता है।
माता का अंतिम संस्कार समाप्त ही कर पाये थे कि शंकराचार्य को सदानन्द नाम के एक व्यक्ति ने भगवत् गोविन्दपाद के अमरकांत आने और रुग्ण-शैया पर पड़े होने का समाचार दिया। वे मृत्यु के पूर्व शंकराचार्य से भेंट करना चाहते थे। अतः उसके द्वारा उन्होंने उनको बुलवाया था। समाचार सुनते ही वे अमरकांत की ओर दौड़ पड़े। बड़ी कठिनाई से एक मास में अमरेश्वर पहुँच पाये। जब वे वहाँ पहुंचे तो भगवत् गोविन्दपाद अचेत अवस्था में पड़े हुए थे, किन्तु जैसे ही अपने प्रिय शिष्य शंकर की वाणी सुनी वैसे ही उन्होंने आँखें खोल दीं। एक बार जोर लगाकर उठकर खड़े हो गये मानो भले-चंगे हों और शंकराचार्य को गले से लगा लिया। शंकराचार्य को अंतिम संदेश दिया। उसे दिग्विजय प्रारम्भ करने का आदेश तथा सफलता का आशीर्वाद दिया। फिर वे महाप्रयाण कर गये। उनके स्थान पर शंकराचार्य ही शिष्य समूह के गुरु थे।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय
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