मानवता इस मानवता के शत्रु विचार के विरुद्ध खड़ी होगी। वायरस से तो हम लड़ाई जीतेंगे ही, परंतु उस विचार से लड़ाई जीतना ज्यादा महत्वपूर्ण है जो लोगों को आपस में लड़ाता है, कौमों को खत्म करता है, देशों को खत्म करता है, लोगों और मसलों को अपने एजेंडे का हथियार बनाता है।
कोरोना को जब संक्रमण फैलने के शुरूआती दिनों में चीनी वायरस कहा गया तो चीन नाराज हो गया। इसे चीनी या वुहान वायरस कहने-लिखने पर सोशल मीडिया कम्पनियों की कैंची भी जमकर चली। जिन देशों ने इस वायरस के लिए चीन पर उंगलियां उठाईं, चीन ने उनके विरुद्ध आक्रामक तेवर दिखाते हुए उन्हें खारिज किया। पूरे विश्व में हड़कंप मचाने वाले इस वायरस में आखिर ऐसा क्या है कि इससे नाम जुड़ते ही ड्रैगन ताव खाने लगता है? क्या यहां चोर की दाढ़ी में तिनका मुहावरा सटीक नहीं बैठता? और चाहे जो कारण हों किन्तु एक कारण जो पूरी दुनिया को नजर आ रहा है, वह है तबाही के दौर में चीन की बेपरवाही।
विनाशक दौर में ड्रैगन की निश्चिंतता के कुछ उदाहरण देखिए :
● जब विश्व की सबसे विशाल और भरोसेमंद अर्थव्यवस्थाएं भरभराकर गिर पड़ीं तब चीनी अर्थव्यवस्था का कुलांचे भरती रही! चीनी अर्थव्यवस्था 2020 की पहली तिमाही के मुकाबले 2021 की पहली तिमाही में 18.3 फीसदी की दर से बढ़ी है। ये 1992 से अब तक चीनी अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी बढ़त है। चीन के औद्योगिक उत्पादन में 14.1 फीसदी और खुदरा बिक्री में 34.2 फीसदी की बढ़त दर्ज हुई है। कोविड-19 संक्रमण से पहले चीनी अर्थव्यवस्था की गति धीमी होती जा रही थी लेकिन विश्व भर में फैले संक्रमण के बाद ऐसा लगा जैसे चीनी अर्थव्यवस्था को पंख मिल गए हों। 2020 में बडी अर्थव्यवस्थाओं में केवल चीनी अर्थव्यवस्था ही ऐसी थी जो 2.3 फीसदी की दर से बढ़ी।
● वुहान से वायरस बेकाबू होकर दुनिया भर में फैल गया किन्तु चीन में स्थितियां काबू में रहीं। बीते 16 महीनों में चीन में महज 1 लाख से कुछ अधिक लोग संक्रमित हुए और 5 हजार से भी कम लोगों की मौत हुई।
● जिस समय विश्व के सभी देश स्वास्थ्य और अर्थशास्त्र के संतुलन साधते व्यस्त-पस्त पड़े थे, उस समय चीन भू-रणनीतिक मोर्चों पर तन रहा था-गुर्रा रहा था! इस दौरान चीन की भारत के साथ नियंत्रण रेखा पर तनातनी और युद्ध जैसी तैयारी और बांग्लादेश, ताइवान, फिलीपींस, मलेशिया, वियतनाम, ब्रुनेई जैसे छोटे देशों को धमकाने जैसी हरकतें एक गहरी साजिÞश जैसी दिखाई देती हैं।
ऐसे में इन तथ्यों का उजागर होना कि चीन के सैन्य वैज्ञानिक सार्स वायरस के युद्धक उपयोग पर बीते पांच वर्ष से काम कर रहे थे, विश्व बिरादरी की चिंताएं बढ़ाने वाला है। मानव जीवन के लिए कोविड-19 जैसे महासंकट के दौर में एक-दूसरे का मनोबल बढ़ाने और साथ देने के बजाय चीन की ये हरकतें वायरस के जैविक हथियार होने के संदेह को गहरा कर देती हैं।
गौर कीजिए, अनैतिक-अमानवीय तरीकों से सबपर छा जाने का विचार अपने-आप में महा विध्वंसक है। इसमें किसी दूसरे के लिए रत्तीभर भी गुंजाइश कहां है? चीन में ‘कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ चाइना’ (सीपीसी) के अलावा किसी के लिए कोई गुंजाइश कहां है! अन्य सबको मटियामेट कर देने का विचार भी कोई कैसे कर सकता है! यह बात और कोई सोचे तो सोचे, वामपंथी किसी भरम में नहीं रहते। क्योंकि समाज को फच्चर लगाकर बांटने, खूनी क्रांति में एक-दूसरे को काटने और फिर निर्मम तानाशाही की स्थापना करने का उद्देश्य ऐसा है जिसपर पूरी दुनिया में बंटे कामरेड खामोशी से एकमत रहते है।
न्याय और सुशासन का कोई भी मॉडल स्थापित करने में विफल वामपंथी बीसवीं सदी की शुरूआत से ही अराजकता के वैश्विक प्रसार में लगे रहे। देशों के स्तर पर शासन, कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय गुटबन्दियों से परे समाजों के स्तर पर अलगाव-छिटकाव हिंसा को बढ़ावा देकर ‘सम्प्रभुताओं के संकट’ कैसे गढ़े जा सकते हैं, वामपंथी बौद्धिक इस पर काम करते रहे।
1910 और 1920 के दशक में जब खूनी क्रांति (समाजवादी क्रांति) के वैचारिक प्रयोग सोवियत संघ से परे विफल रहे, तो एंटोनियो ग्राम्स्की और जॉर्ज लुकास जैसे मार्क्सवादी विचारकों ने इसका तोड़ यह निकाला कि संस्कृति और धर्म क्रांति की राह में बाधक हैं। समाधान यह था कि मार्क्सवादियों को शैक्षिक संस्थानों के माध्यम से एक लंबी लड़ाई लड़नी चाहिए। ताकि विश्वविद्यालयों और स्कूलों, नौकरशाहों और मीडिया – तक सभी क्षेत्रों में सांस्कृतिक मूल्यों को उत्तरोत्तर रूप से बदला जा सके। आस्थाओं, परम्पराओं और परिवारों तक का विघटन इस विचार के केंद्र में था।
देश, समाज, परिवार, रिश्ते-नाते… सबको मटियामेट करने के लिए स्कूल-कॉलेज, मीडिया और अफसरशाही को मोहरा बनाने के इस विचार का नामकरण किया गया -सांस्कृतिक मार्क्सवादी। दूसरे को नष्ट करना, राष्ट्र को नष्ट करना, समाज को नष्ट करना, परिवार को नष्ट करना और एक मनचाहे विचार को इन सब पर थोपना जिसकी नींव ही खून और अत्याचार पर है, यह वामपंथ का बीज है।
यद्यपि वायरस का कोई विचार नहीं होता, महामारी एक आपदा है लेकिन ऐसे में क्या हैरानी नहीं होती कि जिस वायरस को फैलाने के लिए चीन की तरफ उंगलियां उठ रही है, उस वायरस के कारण उत्पन्न स्थितियां समाज को तोड़ने की उसी दिशा में काम कर रही हैं जो वामपंथ की सत्ता पर कब्जा करने के डिजाइन का हिस्सा है, उसके षड्यंत्रों का हिस्सा है? इस समय देश थरथरा रहे हैं, समाज प्रकंपित है, परिवार टूट रहे हैं, लोग संकट के समय एक-दूसरे के साथ नहीं खड़े हो पा रहे हैं। लोग आस्था और मत से डिगे दिखाई देते हैं। यानी आम दिनों में जो काम वामपंथ करता है आपदा में वह काम उसके आकाओं की लैब से उड़ा ‘चीनी वायरस’ कर रहा है!
वायरस या वामपंथ, दोनों का चरित्र आज एक सा दिखता है।
किन्तु यह भूलने वाली बात नहीं है कि मानव का मूल स्वभाव मिलकर रहने का है। प्रेम, करुणा और नैतिकता समाज जीवन का मूल चरित्र है। परस्पर अविश्वास, रक्तपात और खूनी क्रांति इस मूल आधार पर फौरी आघात भले करें, स्थाई तौर पर थोपी नहीं जा सकतीं।
मानवता इस मानवता के शत्रु विचार के विरुद्ध खड़ी होगी। वायरस से तो हम लड़ाई जीतेंगे ही, परंतु उस विचार से लड़ाई जीतना ज्यादा महत्वपूर्ण है जो लोगों को आपस में लड़ाता है, कौमों को खत्म करता है, देशों को खत्म करता है, लोगों और मसलों को अपने एजेंडे का हथियार बनाता है। यह विचार खत्म नहीं होगा तो इस तरह के विनाशक औजार भी खत्म नहीं होंगे और विश्व मानवता के लिए खतरा लगातार बना रहेगा।
हितेश शंकर
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