महामारी के दौरान भी दवा कंपनियां और कुछ अन्य लोग स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़ी चीजों और दवाइयों की कालाबाजारी कर इस संकट को और बढ़ाने में लगे हैं। मुनाफे के इन सौदागरों को सबक सिखाने के साथ-साथ कंपनियों को अनिवार्य लाइसेंस देने की जरूरत है
इन दिनों अस्पतालों में बिस्तर, आईसीयू, वेंटिलेटर का तो अभाव है ही, सामान्य स्वास्थ्य उपकरणों जैसे आॅक्सीजन, दवाइयां, स्वास्थ्यकर्मियों आदि की भी भारी किल्लत का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि सरकार ने बिस्तर, दवाइयां, आॅक्सीजन की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु प्रयास किए हैं, लेकिन वर्तमान त्रासदी के समक्ष वे प्रयास बहुत कम हैं। कम ज्यादा मात्रा में इसी प्रकार की स्थिति का सामना अमेरिका, इंग्लैंड, इटली, ब्राजील जैसे देश पहले से ही कर चुके हैं या कर रहे हैं।
भारत में भी इस प्रकार की त्रासदी में लोगों की मजबूरी का लाभ उठाकर मुनाफा कमाने वाले लोगों की कमी नहीं है। हम सुनते हैं कि दवाइयों, आॅक्सीजन, आॅक्सीमीटर आदि के विक्रेता ही नहीं, बल्कि अस्पताल भी मुनाफा कमाने की इस होड़ में शामिल हो चुके हैं।
इन संकटों से समाधान का एक ही रास्ता है कि जल्दी से जल्दी इन स्वास्थ्य सुविधाओं को पुख्ता किया जाए और इलाज हेतु साजो-सामान और दवाइयों को पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध कराया जाए। जहां तक दवाइयों की कमी, उनकी ऊंची कीमतें और उससे ज्यादा मुनाफाखोरी का सवाल है, उसके पीछे देश के व्यापारियों की जमाखोरी से कहीं ज्यादा वैश्विक बहुराष्ट्रीय कंपनियों का एकाधिकार है। पेटेंट और अंतरराष्टÑीय बौद्धिक संपदा अधिकार कानून (ट्रिप्स) के कारण दवाइयों और यहां तक कि स्वास्थ्य उपकरणों आदि में भी इन कंपनियों का एकाधिकार स्थापित है। इन कानूनों के चलते इन दवाइयों और उपकरणों का उत्पादन कुछ हाथों में ही केंद्रित रहता है, जिससे इनकी ऊंची कीमतें ये कंपनियां वसूलती हैं। हाल ही में हमने देखा कि रेमडेसिविर नाम के इंजेक्शन की कीमत 3,000 रुपए से 5,400 रुपए थी, जिसे भारत सरकार ने नियंत्रित तो किया, लेकिन उसके साथ ही उसकी भारी कमी भी हो गई। इसके चलते इन इंजेक्शनों की कालाबाजारी हो रही है और मरीजों से इंजेक्शन के लिए 20,000 रु. से 50,000 रु. की कीमत वसूली जा रही है। यही हालत अन्य दवाइयों की है, जिसकी भारी कमी और कालाबाजारी चल रही है।
ऐसा नहीं है कि भारतीय कंपनियां इन दवाइयों को बनाने में असमर्थ हैं, लेकिन चूंकि वैश्विक कंपनियों के पास इन दवाइयों का पेटेंट है, वे अपनी मर्जी से अन्य कंपनियों (भारतीय या विदेशी) को लाइसेंस लेकर इन दवाइयों का उत्पादन करवाती हैं और इस कारण इन दवाइयों की भारी कीमत वसूली जाती है।
क्या है समाधान?
यह सही है कि इन दवाइयों के पेटेंट इन कंपनियों के पास हैं, फिर भी भारत सरकार वर्तमान महामारी से निपटने हेतु प्रयास कर न केवल इन दवाइयों के उत्पादन को बढ़ा सकती है, बल्कि कीमतों में भी भारी कमी कर लोगों को राहत दे सकती है। गौरतलब है कि पेटेंट से जुड़ी इस प्रकार की समस्या विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के बनने से पहले नहीं थी। देश में सरकार किसी भी दवाई के उत्पादन हेतु लाइसेंस जारी कर उसके उत्पादन को सुनिश्चित कर सकती थी। इस कारण भारत का दवा उद्योग न केवल भारत में, बल्कि विश्वभर में सस्ती दवाइयां उपलब्ध करा रहा था। 1995 में विश्व व्यापार संगठन के बनने के साथ ही ट्रिप्स समझौता लागू हो गया था। इस समझौते में सदस्य देशों पर यह शर्त लगाई गई थी कि वे पेटेंट समेत अपने सभी बौद्धिक संपदा कानूनों को बदलेंगे और उन्हें सख्त बनाएंगे (यानी पेटेंट धारक कंपनियों के पक्ष में बनाएंगे)। इस समझौते से पहले भी इसका भारी विरोध हुआ था, क्योंकि यह तय था कि इस समझौते के बाद दवाइयां महंगी होंगी।
ऐसे में जागरूक जन संगठनों और दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राजनेताओं के प्रयासों से विश्व व्यापार संगठन और अमीर मुल्कों के दबाव को दरकिनार करते हुए भारत ने पेटेंट कानूनों में संशोधन करते हुए जन स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताओं का काफी हद तक निराकरण कर लिया था। हालांकि प्रक्रिया पेटेंट के स्थान पर उत्पाद पेटेंट लागू किया गया और पेटेंट की अवधि भी 14 वर्ष से बढ़ाकर 20 वर्ष कर दी गई थी, लेकिन उसके बावजूद जेनेरिक दवाइयों के उत्पादन की छूट पुन: पेटेंट की मनाही, अनिवार्य पेटेंट का प्रावधान, अनुमति पूर्व विरोध आदि कुछ ऐसे प्रावधान भारतीय पेटेंट कानून में रखे गए थे, जिससे काफी हद तक जन स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों का समाधान हो सका। लेकिन इन सबके बावजूद अमेरिका समेत अन्य देशों की सरकारों ने भारत पर यह दबाव बनाए रखा कि भारत अपने पेटेंट कानूनों में ढील दे और अपने पास उपलब्ध प्रावधानों का न्यूनतम उपयोग करे।
अनिवार्य लाइसेंस
संशोधित भारतीय पेटेंट अधिनियम (1970) के अध्याय 16 और ट्रिप्स प्रावधानों के अनुसार अनिवार्य लाइसेंस दिए जाने का प्रावधान है। अनिवार्य लाइसेंस से अभिप्राय है सरकार द्वारा जारी लाइसेंस यानी अनुमति जिसके अनुसार किसी भी उत्पादक को पेटेंट धारक की अनुमति के बिना पेटेंट उत्पादन को बनाने, उपयोग करने और बेचने का अधिकार दिया जाता है। इसका मतलब यह है कि वर्तमान में कोविड-19 से संक्रमित व्यक्तियों के लिए उपयोग की जाने वाली दवाइयों यानी रेमडेसिविर और अन्य दवाओं के संदर्भ में यदि सरकार अनिवार्य लाइसेंस जारी कर दे तो भारत की कोई भी फार्मा कंपनी सरकार द्वारा निर्धारित राशि (जो अत्यंत कम होती है) पेटेंट धारक को देकर उन दवाइयों का उत्पादन कर बेच सकती है। विशेषज्ञों का मानना है कि पेटेंट कानून की धाराएं 92 और 100 वैक्सीन हेतु अनिवार्य लाइसेंस जारी करने के लिए उपयुक्त है। सरकार स्वेच्छा से ‘राष्ट्रीय आपदा’ अथवा ‘अत्यधिक तात्कालिकता’ के मद्देनजर गैर व्यावसायिक सरकारी उपयोग के लिए इन धाराओं का उपयोग करते हुए अनिवार्य लाइसेंस जारी कर सकती है।
गौरतलब है कि ये कंपनियां महामारी के बढ़ते प्रकोप से मुनाफा कमाने की फिराक में हैं और अमेरिका सरीखे देशों की सरकारें इन दवाओं और वैक्सीन की जमाखोरी के माध्यम से विकासशील और गरीब देशों के शोषण की तैयारी कर रही हैं। हाल ही में भारत में वैक्सीन उत्पादन हेतु आवश्यक कच्चे माल की आपूर्ति में अमेरिका सरकार ने अड़ंगा लगाया था और अपने पास जमा की वैक्सीन को भारत समेत दूसरे देशों को भेजने पर रोक लगा दी थी। बाद में अंतरराष्ट्रीय और घरेलू दबाव के कारण उन्हें यह रोक हटानी पड़ी। गिलिर्ड कंपनी द्वारा रेमडेसिविर इंजेक्शन की भारी जमाखोरी के समाचार भी आ रहे हैं। ऐसे में भारत में इन दवाओं और वैक्सीन उत्पादन हेतु अनिवार्य लाइसेंस लागू करना अत्यंत आवश्यक हो गया है।
हालांकि भारत सरकार ने दक्षिणी अफ्रीका के साथ मिलकर विश्व व्यापार संगठन में भी ट्रिप्स प्रावधानों में छूट हेतु गुहार लगाई है, लेकिन अमेरिका, यूरोप और जापान जैसे देशों के रुख से इसमें उचित परिणाम आने में देर हो सकती है। ऐसे में सरकार को अपने सार्वभौम अधिकारों का उपयोग करते हुए ये अनिवार्य लाइसेंस तुरंत देने चाहिए, ताकि महामारी से त्रस्त जनता को कंपनियों के शोषण से बचाया जा सके। गौरतलब है कि विश्व व्यापार संगठन के दोहा मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में ट्रिप्स एवं जन स्वास्थ्य से संबंधित एक राजनीतिक घोषणा स्वीकृत की गई, जिसमें सरकारों के इस सार्वभौम अधिकार को मान्य किया गया कि किसी भी आपातकाल अथवा अत्यधिक तत्कालिकता की स्थिति में सदस्य देशों को अधिकार है कि वे ट्रिप्स के प्रदत्त बौद्धिक संपदा अधिकारों को दरकिनार करते हुए जन स्वास्थ्य की रक्षा कर सकें। इस घोषणा द्वारा सदस्य देशों को राष्ट्रीय आपातकाल या अत्यधिक तात्कालिकता की अन्य परिस्थितियों का निर्धारण करने के लिए अनुमति दी गयी है कि यह सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है।
30 अप्रैल, 2021 को सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र सरकार से पूछा है कि कोरोना से संबंधित दवाओं के लिए अनिवार्य लाइसेंस लागू करने हेतु सरकार क्यों नहीं सोच रही?
डॉ अश्विनी महाजन
(लेखक पीजीडीएवी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)
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