भारत और यूरोपीय संघ का 16वां शिखर सम्मेलन 8 मई को वीडियो कांफ्रेसिंग के माध्यम से संपन्न हुआ। संघ के वर्तमान अध्यक्ष पुर्तगाल के राष्ट्रपति एंटोनिओ कोस्टा, जो गोवानी मूल के पुर्तगाली हैं, उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को इसका आमंत्रण भेजा था
28 देशों (भारत और यूरोपीय संघ के 27 देश ) के इस सम्मलेन में विस्तृत विचार विमर्श हुआ जिसका अंदाजा सम्मेलन के बाद जारी किए गए संयुक्त बयान से ही लगाया जा सकता है। इसके अनुसार, सभी देशों ने उन साझा हितों, लोकतंत्र के सिद्धांतों और मूल्यों, स्वतंत्रता, कानून का शासन तथा मानवाधिकारों के सम्मान को रेखांकित किया जो ” हमारी रणनीतिक भागीदारी को बल देते हैं”। सम्मेलन संघ और भारत के बीच अतीत में परस्पर सहमति से बनी “2025 के लिए कार्ययोजना” में निर्धारित लक्ष्यों के कार्यान्वयन को अधिक गति प्रदान करने पर सहमत हुआ। विश्व के दो प्रमुख लोकतंत्रों (यू. संघ और भारत) के बीच इस पर भी सहमति बनी कि बहुध्रुवीय विश्व की सुरक्षा, समृद्धि तथा संयुक्त रा. सं. द्वारा निर्धारित “2030 स्थायी विकास के लक्ष्यों” के अनुरूप स्थायी विकास के लिए योगदान दें। विधि- आधारित बहुलवाद के निर्माण पर भी दोनों पक्ष एकमत थे।कोविड-19 महामारी, जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण संरक्षण, हिन्द-प्रशांत सागर क्षेत्र, द्विपक्षीय व्यापार तथा अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मुद्दों पर भी विस्तार से बातचीत हुई।
कोविड -19 में अन्य देशों को भारत द्वारा मैत्री के तहत दवाएं देने की प्रशंसा हुई और भारत में फ़ैली दूसरी लहर से लड़ने के लिए भारत को हर संभव सहायता देने की प्रतिबद्धता दोहराई गई। यह भी आश्वासन दिया गया की वैक्सीन के किए आवश्यक कच्चे माल की भारत को आपूर्ति पर भी काम किया जाएगा। यह हमारे लिए एक राहत की बात है। यूरोपीय संघ ने भारत को महामारी पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर्गत एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने का भी न्योता दिया। दवाओं के पेटेंट के नियमों में ढील देने के भारत के अनुरोध पर संभवतः कोई निर्णय नहीं हो सका क्योंकि जर्मनी के अनुसार ऐसी छूट देने से विज्ञान के नवाचारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हालांकि यह उम्मीद की जा रही है कि इस मुद्दे पर अमेरिकी रुख में आए लचीलेपन का सकारात्मक प्रभाव जल्दी ही यू. संघ के देशों पर भी पड़ेगा।
विगत आठ वर्षों से लंबित द्विपक्षीय व्यापार और निवेश समझौता और प्रस्तावित भारत -यू. संघ मुक्त व्यापार पर भी सहमति बनी। यह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यूरोपियन संघ भारत का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है जिसके साथ हमारा पिछले वर्ष का व्यापार 6 .20 अरब यूरो (लगभग 7 . 5 4 अरब अमेरिकी डॉलर) था इसके अतिरिक्त 75 . 8 अरब यूरो का सीधा निवेश यू. संघ से भारत में है जिसके तहत 600 से अधिक यूरोपीय कम्पनियां भारत में रह कर लगभग दो लाख लोगों को रोज़गार दे रही हैं।
हिन्द – प्रशांत क्षेत्र पर हुई वार्ता में प्रधान मंत्री मोदी द्वारा 2019 में प्रस्तावित ” हिन्द-प्रशांत सागर पहल” को सराहा गया और यह घोषित किया गया कि सम्मलेन के पक्षकार एक “स्वतंत्र, उन्मुक्त, समाविष्ट तथा कानून पर आधारित हिन्द- प्रशांत क्षेत्र के लिए प्रतिबद्ध हैं जहां क्षेत्रीय अखंडता, सम्प्रभुता, लोकतंत्र, पारदर्शिता का सम्मान हो और जो “सं. रा. संघ के समुद्री कानून के लिए आहूत सम्मलेन (यूएनक्लोस) ” के अनुरूप हो। यद्यपि सीधे- सीधे चीन का नाम नहीं लिया गया था किन्तु सर्वविदित था कि निशाना चीन पर ही है, क्योंकि उपरिलिखित मापदण्डों/ अनिवार्यताओं में से कोई भी चीन में नहीं हैं और न ही चीन ने यूएनक्लोस के नियमों का फिलिपींस, जापान या ताइवान के मामले में पालन किया है। यू. संघ के प्रमुख देशों -जर्मनी, फ़्रांस तथा नेदरलैण्ड्स-ने पहले ही इस क्षेत्र के विषय में अपनी चीन-विरोधी स्थिति स्पष्ट कर दी है। हाल ही में हुए क्वैड शीर्ष समेलन और भारत-फ़्रांस -ऑस्ट्रेलिया की तिकड़ी की बैठक के बाद अब इस सम्मेलन से स्पष्ट हो गया है कि यूरोपीय देश चीन को इतनी आसानी से छोड़ने वाले नहीं हैं और यह बात भारत के भू-रणनीतिक महत्त्व को बढ़ा देती है।
यद्यपि विश्व व्यापर संगठन के नियमों, घरेलू उद्द्यमियों और किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी पर संभवतः कोई बात न हो सकी, फिर भी भारत के पक्ष में कुछ और बातें भी रहीं – अंतरिक्ष में सहयोग पर बल दिया गया और कहीं भी भारत द्वारा मानवाधिकारों के तथाकथित उल्लंघन की चर्चा नहीं की गयी, बल्कि मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सभी द्वारा प्रतिबद्धता व्यक्त की गई। आतंकवाद के विरुद्ध कार्रवाई की प्रतिबद्धता से भारत के रुख को समर्थन मिला है। फ़्रांस ने तो खुले तौर पर भारत का पक्ष लेते हुए कह दिया कि भारत को वैक्सीन या कि अन्य बात पर किसी से ज्ञान लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। यूरोपीय परिषद् के अध्यक्ष कार्लोस मिकेल और यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वान डेर लेवेन ने इस सम्मेलन को यू. संघ-भारत के रिश्तों के इतिहास में “एक नया अध्याय” और के “मील का पत्थर” बताया है।
इस शीर्ष सम्मेलन ने अपेक्षित रूप से जिन दो देशों को बौखलाहट में डाल दिया है, वे हैं चीन और पाकिस्तान। हिन्द प्रशांत क्षेत्र में स्वतंत्रता, उन्मुक्तता और कानून पर आधारित व्यवस्था के ज़िक्र ने चीन की दुखती रग पर हाथ रखा है। मानवाधिकारों की बात भी दरअसल चीन को ही लक्ष्य करके कही गई है। चीन की बौखलाहट का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि चीनी सरकार के मुखपृष्ठ ग्लोबल टाइम्स ने अगले ही दिन भड़ास निकलते हुए लिखा कि “चीन को दरकिनार करके यू. संघ द्वारा भारत को व्यापार के लिए एक वैकल्पित योजना के रूप में प्रस्तुत करना ख्याली पुलाव पकाने जैसा है” और यह कि ” भारत की वैक्सीन कूटनीति बुरी तरह असफल हुई है”। दरअसल, चीन को यह आशंका है कि कोरोना की दूसरी लहर के कारण आए अवरोध के बाद अब भारत की वैक्सीन मैत्री यूरोप और अमेरिका के सहयोग से कहीं फिर न गति पकड़ ले। यूरोप के साथ घटते चीन के व्यापार और भारत के साथ बढ़ता सहयोग चीन के व्यापारिक हितों के खिलाफ ही जाएंगे।
चीन के “सदाबहार मित्र” पकिस्तान की कुंठा दूसरी ही है। अभी पिछले सप्ताह ही यूरोपीय संसद ने एक प्रस्ताव पारित कर पाकिस्तान पर ईशनिंदा के तानाशाही कानूनों द्वारा अल्पसंख्यकों की प्रताड़ना और मानवाधिकारों के हनन का आरोप लगते हुए उससे GSP ( वरीयताओं की सामान्य प्रणाली) के अंतर्गत दी गई सीमा शुल्क छूटें छीन लीं। पाकिस्तान के समग्र निर्यात का एक तिहाई यूरोप को जाता है। इसमें उसका कपड़ा उद्योग भी है, जिसका 80 प्रतिशत यूरोप में सीमा शुल्क में भारी छूट ले कर प्रविष्ट होता है। इन रियायतों के हटने से पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को काफी नुक्सान होगा। इसी कंगाली में आटा तब गीला हो गया जब विचाराधीन सम्मेलन ने, भले ही नाम लिए बिना, आतंकवाद के वित्तपोषण के खिलाफ कार्रवाई करने के प्रतिबद्धता दिखाई जिसका इशारा परोक्ष रूप से पाकिस्तान की ओर था तथा जो आने वाले समय में एफएटीएफ में पाकिस्तान की कठिनाई बढ़ा सकता है, क्योंकि इसके 37 सदस्यों में 18 यूरोपीय संघ के सदस्य हैं। इसके ठीक विपरीत यू. संघ के साथ भारत के बढ़ते हुए रिश्तों से पाकिस्तान और भी बौखलाया है।
बहरहाल, इस शीर्ष सम्मेलन से यह तो साफ़ हो गया कि भारत के बढ़ते कद के कारण यूरोप को भारत की अगर अधिक नहीं तो उतनी तो ज़रुरत है ही जितनी भारत को यूरोप की है। पारस्परिक हितों का यह संगम, चाहे रणनीतिक हो चाहे व्यापारिक या कूटनीतिक, यूरोप को लम्बे समय तक भारत से बांधे रहने के लिए पर्याप्त है।
जितेंद्र कुमार त्रिपाठी
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