इस बार पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की स्थिति और खराब हो गई। कांग्रेस को असम और केरल से उम्मीदें थी, इसलिए पार्टी आक्रामक ढंग से चुनाव लड़ी। लेकिन यह आक्रामकता पार्टी के काम न आई। पश्चिम बंगाल में वह वाम दलों के साथ गठबंधन बना कर चुनाव लड़ी और दोनों का सूपड़ा ही साफ हो गया
हाल ही में पांच राज्यों में संपन्न विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की उपलब्धि क्या है? पश्चिम बंगाल से सूपड़ा साफ, असम और केरल में सत्ता हासिल करने में विफलता और पुदुच्चेरी में पराजय। पार्टी को केरल में काफी उम्मीदें नजर आ रही थीं, क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसने कुल 20 में से 19 सीटें जीती थीं। लेकिन सारी उम्मीदों पर भारी तुषारापात हुआ है। जो एकमात्र बात उसके पक्ष में गई है, वह है तमिलनाडु विधानसभा में 10 सीटों की वृद्धि।
सवाल है कि इन परिणामों का असर क्या पार्टी के संगठन, नेतृत्व और कार्यक्रमों पर भी पड़ेगा? जिस प्रकार जी-23 (कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का गुट) ने पिछले साल कुछ सवाल उठाए थे, क्या वैसे ही सवाल अब उठाए जाएंगे? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या अब जून में राहुल गांधी पार्टी की कमान फिर से अपने हाथ में लेंगे? इसके अलावा, संप्रग के भविष्य से जुड़े सवाल भी हैं। राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी दलों की गोलबंदी क्या अब कांग्रेस के बजाय किसी दूसरे दल के हाथों में होगी?
चार राज्यों और एक केंद्र-शासित प्रदेश के परिणामों में देश की भावी राजनीति के लिए तमाम संदेश छिपे हैं। भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, वामपंथी दल और तमिलनाडु के दोनों क्षेत्रीय दलों (एआईएडीएमके और डीएमके) पर इन परिणामों का असर आने वाले समय में देखने को मिलेगा। लेकिन इन परिणामों का सबसे बड़ा झटका निर्विवाद रूप से कांग्रेस और सीपीएम को बंगाल में लगा है।
‘एंटी-इनकम्बैंसी’ की हार
राष्ट्रीय स्तर पर नए राजनीतिक गठबंधनों की सम्भावनाएं भी इन परिणामों में छिपी हैं। पांच में से तीन राज्यों में वर्तमान सत्तारूढ़ दलों का फिर से जीतकर आना इस बात का संकेत भी देता है कि देश की राजनीति में ‘एंटी-इनकम्बैंसी’ यानी सत्ता विरोधी लहर से जुड़ी अवधारणाएं बदल रही हैं। क्षेत्रीय नेताओं की भूमिका भी उजागर हुई है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, केरल में सीपीएम के पिनरई विजयन और तमिलनाडु में द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम के एमके स्टालिन का कद पहले से बढ़ा है।
पांचों राज्यों की कुल सीटों के लिहाज से कांग्रेस की सीटें पिछले विधानसभा चुनावों की तुलना में कम हुई हैं। पिछले चुनावों में इन राज्यों में उसे कुल 114 सीटें मिली थीं, जो इस बार 70 रह गई हैं। सफलता के नाम पर उसे केवल तमिलनाडु में लाभ हुआ है, जहां उसके पास पिछली बार केवल आठ सीटें थीं, वह इस बार बढ़कर 18 हो गई हैं। साथ ही, उसके गठबंधन को सरकार बनाने का मौका भी मिला है। पुदुच्चेरी हाथ से निकल गया है। असम में सीटों की संख्या 26 से बढ़कर 29 जरूर हो गई है, पर राजनीतिक धरातल पर उसे मिला कुछ नहीं है। जिस राज्य में 2016 तक तरुण गोगोई के नेतृत्व में पार्टी ने लगातार तीन बार विजय हासिल की, वहां अब वह क्षीणकाय नजर आने लगी है। पार्टी ने इस बार वहां भूपेश बघेल को खासतौर से तैनात करके सफलता के अपने ‘छत्तीसगढ़ मॉडल’ को लागू किया था, जो फुस्स रहा।
केरल में पिछली बार की स्थिति बरकरार है, जबकि राज्य की परम्परा को देखते हुए उसे सरकार बनाने का मौका मिलना चाहिए था। कांग्रेस के हाथों से निकलने वाली ज्यादातर सीटें पश्चिम बंगाल और पुदुच्चेरी में हैं। पिछले चुनावों में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं, पर इस बार एक भी नहीं मिली। पुदुच्चेरी में पार्टी के पास पहले 14 सीटें थीं, लेकिन अब केवल दो हैं।
इन राज्यों में कांग्रेस की सीटें कम होने का मतलब है कि आने वाले समय में राज्यसभा में कांग्रेस का संख्याबल और कम होगा। अगले साल गोवा, मणिपुर, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात, इन सात राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इनमें से केवल पंजाब में पार्टी की सरकार है। उसके सामने पंजाब को फिर से जीतने की चुनौती होगी। उसे गुजरात और गोवा में अपनी ताकत परखने का मौका भी मिलेगा। ऐसा ही मौका उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में भी है, क्योंकि इन दोनों राज्यों में सीधे मुकाबला होता है। पर सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश में होगी, जहां उसकी दशा बहुत खराब है।
कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका पश्चिम बंगाल में लगा है, जहां उसका वामपंथी दलों के साथ गठबंधन था। लेकिन यहां दोनों ही पार्टियों का सूपड़ा साफ हो गया। आजादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी दलों का एक भी विधायक नहीं चुना गया। 2016 के विधानसभा चुनाव में इनके गठबंधन को 77 सीटें मिली थीं। इतनी ही सीटें इस बार भाजपा को मिली हैं। पिछली बार कांग्रेस-वाम गठबंधन का वोट शेयर 26.2 प्रतिशत था, जो अब आठ प्रतिशत के आसपास सिमटकर रह गया।
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पार्टी की अंतर्कलह
पिछले कई महीनों से कांग्रेस पार्टी की आंतरिक राजनीति का विश्लेषण बाहर के बजाय भीतर से ज्यादा अच्छा हो रहा है। इसमें सबसे बड़ी भूमिका ग्रुप-23 की है। इसमें शामिल नेता तो पार्टी में हैं, पर नेतृत्व की बातों से असहमति को पार्टी के मंच पर और बाहर भी व्यक्त करते हैं। बहरहाल, इन चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर पार्टी संकोच के साथ ही प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही है। राहुल गांधी ने 2 मई को तीन ट्वीट किए थे। एक में कहा गया था कि हम जनता के फैसले को स्वीकार करते हैं। ऐसा ही ट्वीट पार्टी प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने किया। राहुल गांधी के शेष दो ट्वीट में ममता बनर्जी और एमके स्टालिन को जीत पर बधाई दी गई थी। उन्होंने ममता बनर्जी को बधाई दी, पर ऐसी ही बधाई पिनरई विजयन को नहीं दी।
विस्तार से पार्टी का कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं हुआ, पर जी-23 के दो वरिष्ठ सदस्यों, कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद ने कहा कि देश में महामारी की स्थिति को देखते हुए यह समय टिप्पणी करने के लिहाज से उचित नहीं है। बंगाल की हार को लेकर अधीर रंजन चौधरी ने दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार को कुछ सफाई दी है। खबर थी कि उन्होंने कोई ट्वीट भी किया है, पर वह नजर नहीं आया। शायद हटा दिया गया। ऐसा लगता है कि फिलहाल पार्टी की रणनीति है कि चुनाव-परिणामों पर चर्चा नहीं की जाए। इसकी जगह महामारी को लेकर केंद्र पर निशाना लगाया जाए। यह रणनीति एक सीमा तक काम करेगी, पर यह एक प्रकार का पलायन साबित होगा।
केरल में असंतोष
नेतृत्व भले ही चुनाव-परिणामों पर चुप्पी साधे, पर कार्यकर्ता कब तक मौन रहेगा? केरल से उनकी आवाज सुनाई पड़ने लगी है। उन्हें उम्मीद थी कि पार्टी की सत्ता में वापसी होगी। केरल में इससे पहले सत्ता में बैठी सरकार ने कभी वापसी नहीं की है, इसलिए यूडीएफ को वापसी की उम्मीद थी। बहरहाल, शुरुआती चुप्पी के बाद, केरल से दबे-छिपे बातें सामने आने लगी हैं। एनार्कुलम के युवा कांग्रेस सांसद हिबी एडेन ने फेसबुक पर लिखा,‘हमें क्या अब भी लगातार सोते हाईकमान की आवश्यकता क्यों है?’
केरल में कांग्रेस की अंतर्कलह का अंदाज मार्च में वरिष्ठ नेता पीसी चाको के पार्टी छोड़ने से समझ में आ जाना चाहिए था। उन्होंने पार्टी छोड़ते समय राज्य के दो वरिष्ठ नेताओं रमेश चेन्नीथला और ओमान चांडी व उनके गुटों की आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि संगठन के बाद दोनों नेता हमेशा सीटें आपस में बांट लेते हैं। केरल में केवल उन नेताओं का भविष्य है जो इनमें से किसी ग्रुप का हिस्सा हैं, बाकी को दरकिनार किया जाता है। केरल में कांग्रेस पार्टी हमेशा से दो गुटों में बंटी रही है। एक गुट के. करुणाकरन का है और दूसरा ए.के. एंटनी का। 2000 के बाद से करुणाकरन गुट का नेतृत्व चेन्नीथला और एंटनी गुट का ओमान चांडी के पास है।
यह गुटबंदी आज भी जारी है। पिछले दो वर्षोें में राहुल गांधी के करीबी के.सी. वेणुगोपाल के रूप में एक नया शक्ति केंद्र सामने आया है। बहरहाल, केरल में निचले स्तर पर कार्यकर्ता नाराज हैं, जिसका असर भविष्य में दिखाई पड़ेगा। ऐसी अंतर्कलह बंगाल से भी सुनाई पड़ेगी। अभी यह भी पता नहीं कि हार की जिम्मेदारी कौन लेगा। फिलहाल बंगाल, असम और केरल के पार्टी प्रमुखों के सिर पर तलवार लटकी है।
नए अध्यक्ष का चुनाव
चुनाव-परिणामों के विश्लेषण से ज्यादा बड़ा मसला पार्टी अध्यक्ष के चुनाव का है, जो जून में होने वाला है। सुनाई पड़ रहा है कि यह चुनाव कोरोना के कारण स्थगित किया जा सकता है। शायद कुछ महीनों के लिए चुनाव टल जाएं। इसकी जरूरत इसलिए भी होगी, ताकि निचले स्तर पर जो असंतोष पैदा हो रहा है, वह कम हो जाए। पर ऐसा कब तक होगा? पार्टी ने जून में चुनाव कराने को बेहतर समझा था, क्योंकि उसे उम्मीद थी कि असम और केरल से खुशखबरी सुनाई पड़ेगी। ऐसा हुआ नहीं, बल्कि पुदुच्चेरी भी हाथ से निकल गया।
अब इन सभी बातों पर विचार करने के लिए देर-सबेर कार्यसमिति की बैठक बुलाई जाएगी। शुक्रवार, 22 जनवरी को हुई बैठक में अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर दो गुटों के बीच काफी बहस हुई थी, जिसमें राहुल गांधी ने भी दखल दिया था। बैठक में गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक और चिदंबरम ने तत्काल संगठनात्मक चुनाव कराने के लिए कहा था। ये उन नेताओं में शामिल हैं, जिन्होंने कई चुनावों में हार के बाद हाल के महीनों में पार्टी के नेतृत्व और प्रबंधन पर असहज सवाल उठाए हैं।
इस मांग के खिलाफ अशोक गहलोत, कैप्टन अमरिंदर सिंह, एके एंटनी, तारिक अनवर और ओमान चांडी ने कहा था कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव बंगाल और तमिलनाडु सहित पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों के बाद होना चाहिए। उस बैठक के बाद कहा गया था कि कांग्रेस महासमिति का सत्र 29 मई को आयोजित किया जाएगा। महामारी को देखते हुए लगता है कि अब नया कार्यक्रम आएगा।
फिर से राहुल
पार्टी के ज्यादातर नेताओं की मांग है कि राहुल गांधी एकबार फिर पार्टी की कमान संभालें, पर राहुल गांधी अध्यक्ष बनने की बात पर कोई खास दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। ऐसे में सवाल उठने लगा है कि आखिरकार अगर अध्यक्ष राहुल गांधी को ही बनना हो तो फिर क्या जनवरी, क्या फरवरी, जून और दिसम्बर… उन्हें पार्टी की कमान सौंप देनी चाहिए। पर क्या यह सम्भव है?
बिहार चुनाव की हार की टीस से पार्टी अभी तक उबरी नहीं है। ऐसे में पार्टी नहीं चाहती कि नए अध्यक्ष को हार के उपहार के साथ कुर्सी पर बैठाया जाए। व्यावहारिक स्थिति यह है कि राहुल गांधी भले ही अध्यक्ष नहीं हैं, पर ज्यादातर फैसले वही करते हैं। उन्हें केवल औपचारिक रूप से अध्यक्ष बनना है। उसमें भी किसी न किसी वजह से अड़ंगे लग रहे हैं।
एक सम्भावना यह भी है कि राहुल गांधी स्वयं अध्यक्ष बनने के बजाय किसी विश्वस्त व्यक्ति को अध्यक्ष पद सौंप दें। इस स्थिति के लिए भी कुछ नाम हवा में हैं जैसे कि अशोक गहलोत, भूपेश बघेल, केसी वेणुगोपाल या मुकुल वासनिक। पार्टी पर नजर रखने वालों में से कुछ का विचार है कि प्रियंका वाड्रा भी आगे आ सकती हैं, हालांकि इसकी सम्भावना सबसे कम है। राहुल गांधी कह चुके हैं कि परिवार का कोई व्यक्ति नहीं होना चाहिए।
संप्रग का नेतृत्व ममता के हाथ!
कांग्रेस के सामने अब एक और चुनौती है। बंगाल में विजय के बाद ममता बनर्जी का कद बढ़ा है। उनके समर्थकों का ही नहीं, विरोधी दलों के कई नेताओं का विचार है कि ममता को अब विरोधी गठबंधन का नेतृत्व करना चाहिए। इस विचार के पीछे शरद पवार की भूमिका भी है। ममता के अलावा एमके स्टालिन का कद भी अब बड़ा होगा। अब सवाल है कि क्या ममता बनर्जी को सोनिया गांधी के स्थान पर संप्रग का अध्यक्ष बनाया जा सकता है? इस कदम को कांग्रेस के जी-23 का समर्थन भी मिल सकता है। पर क्या सोनिया गांधी और राहुल गांधी खुद आगे बढ़कर ममता को संप्रग की जिम्मेदारी लेने का निमंत्रण देंगे? क्या कांग्रेस ने वास्तविकता को स्वीकार कर लिया है? ऐसे बहुत से सवाल कुछ दिनों में सामने आएंगे। ममता बनर्जी के साथ शिवसेना और आम आदमी पार्टी के रिश्ते भी अच्छे हैं। क्या इस गठजोड़ में सपा के अखिलेश यादव और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी शामिल होंगे? आंध्र के जगनमोहन रेड्डी, तेलंगाना में के. चंद्र्रशेखर राव और कर्नाटक के देवेगौड़ा भी इसमें शामिल होंगे? हालांकि बाहरी तौर पर राजनीति में चुप्पी है, पर भीतर-भीतर गतिविधियां तेज हैं। टेलीफोन लाइनें बहुत व्यस्त हैं। हिसाब लगाने वाले 2024 में ग्रहों की स्थिति का पता लगा रहे हैं। राजनीति की गोटियां बैठाई जा रही हैं और रिश्ते बनाए जा रहे हैं। इन परिणामों के गर्भ में काफी बातें हैं, जिन्हें सामने आने में कुछ समय लगेगा। ल्ल
जहां राहुल ने रैली की, वहां जमानत भी नहीं बची
पश्चिम बंगाल में तीसरे मोर्चे के रूप में वामदलों के सहारे कांग्रेस विधानसभा चुनाव मैदान में उतरी थी, लेकिन दोनों ही पार्टियों का राज्य से सफाया हो गया। गठबंधन का तीसरा साथी और फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की अगुवाई वाला भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा (आईएसएफ) एक सीट जीतने में सफल रहा। आलम यह रहा कि जहां-जहां राहुल गांधी ने रैलियां कीं, वहां-वहां कांग्रेस प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई। राहुल ने 14 अप्रैल को माटीगारा-नक्सलबाड़ी और गोलपोखर में रैलियां की थीं। माटीगारा-नक्सलबाड़ी में कांग्रेस 10 साल से जीत रही थी, लेकिन पार्टी के विधायक रहे शंकर मालाकार को मात्र 9 प्रतिशत वोट मिला। वे तीसरे स्थान पर रहे। इसी तरह, गोलपोखर में भी मात्र 12 प्रतिशत वोट के साथ कांग्रेस तीसरे स्थान पर खिसक गई, जबकि इस सीट पर 2006 से 2009 और 2011 से 2016 तक कांग्रेस का कब्जा था। कुल मिलाकर तीसरे मोर्चे ने राज्य की सभी 292 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे, लेकिन मात्र 42 सीटों पर ही इसके उम्मीदवार अपनी जमानत बचा सके और 85 प्रतिशत की जमानत जब्त हो गई। वामदल 170 पर चुनाव लड़ा, लेकिन केवल 21 सीटों पर ही अपनी इज्जत बचा पाया। कांग्रेस 90 में से केवल 11 सीटों पर, जबकि आईएसएफ 30 में से 10 सीटों पर जमानत बचाने में सफल रहा।
प्रमोद जोशी
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