पश्चिम बंगाल का विधान सभा चुनाव जीत कर तृणमूल कांग्रेस चाहे कितनी इतरा ले परन्तु नन्दीग्राम में ममता की पराजय का दंश कोमोडो ड्रैगन के विषाक्त विषदन्त के दंश की भांति उसे हरदम सालता रहेगा। और देर सवेर अपना असर दिखाना शुरू कर दे तो बहुत बड़ी बात न होगी।
कोमोडो ड्रैगन इण्डोनेशिया की दैत्याकार छिपकली है, जिसके दन्तदंश से बड़े से बड़े जीव में भी मौत का टाईम बम फिट हो जाता है और जीव कितना भी भाग ले अन्तत: उसी ड्रैगन के हाथों उसका शिकार हो जाता है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की जीत के बावजूद राज्य की सबसे चर्चित सीट नन्दीग्राम में भाजपा के शुभेंदु अधिकारी ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को शिकस्त दी है। उन्होंने जीवन-मरण का प्रश्न बनी इस सीट पर ममता को 1956 मतों सो परास्त किया। ममता की यह पराजय उनके राजनीतिक जीवन के लिए कोमोडो ड्रैगन का दंश साबित हो तो इसमें किसी को अधिक आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ममता की इस पराजय ने उनका राजनीतिक कद कुछ कम किया है, यह बात अलग है कि तृणमूल कांग्रेस में उनके बराबर आज भी कद्दावर नेता नहीं। परन्तु इस हार ने टीएमसी के ही उन कई नेताओं के मनों में महत्वाकांक्षाओं के बीज बोए होंगे जो खुद को ममता का विकल्प समझते हैं। चाहे 1989 में भी ममता को जादवपुर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से मालिनी भट्टाचार्य के खिलाफ पराजय का स्वाद चखना पड़ा, परन्तु उस समय उन्होंने देश भर में चल रही कांग्रेस के खिलाफ लहर का खामियाजा भुगतना पड़ा। इसके विपरीत आज बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की लहर के बावजूद उनकी हुई हार कई तरह की आशंकाएं पैदा करती है।
याद रहे कि ममता ने 1984 में जादवपुर से ही वामपंथी नेता सोमनाथ चटर्जी को पराजित कर देश की राजनीति में सनसनी पैदा कर दी थी और उसके बाद 1989 को छोड़ कर कोई चुनाव नहीं हारीं। उन्हें देश की पहली महिला रेल मंत्री होने का भी गौरव मिला। 1991 के बाद लगातार 6 बार लोकसभा चुनाव जीतने व कांग्रेस से अलग होने के बाद वह प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हो गईं और पिछले दस सालों से राज्य की मुख्यमन्त्री चली आ रही हैं। अब नन्दीग्राम में अपने ही करीबी रहे शुभेंदु अधिकारी से वह परास्त हो गईं और यह हार भविष्य की राजनीति के लिए कई तरह के कयास पैदा करने वाली है। अगर यह साधारण हार होती तो ममता को अपने कार्यकर्ताओं को यह नहीं कहना पड़ता कि वे नन्दीग्राम को छोड़ें बाकी बंगाल की जीत का जश्न मनाएं। इस हार ने ममता का यह भ्रम तो तोड़ा ही है कि प्रदेश की राजनीति में वह ‘अपराजिता’ हैं।
नन्दीग्राम की जीत ने बंगाल को शुभेंदु अधिकारी के रूप में दूसरा बड़ा नेता दिया है, जो ममता को सीधी चुनौती देने की मुद्रा में आ चुका है। ज्ञात रहे कि इस बार राज्य में अपार जनसमर्थन के बावजूद भाजपा की पराजय का एक कारण ममता के बराबर कोई भाजपाई चेहरा नहीं होना भी रहा है, जिसकी कमी शुभेंदु अधिकारी पूरी करते दिख रहे हैं। अभी केवल नन्दीग्राम में परन्तु आगे चल कर शुभेंदु अधिकारी पूरे राज्य में ममता के विकल्प के रूप में उभर सकते हैं।
यकीनन ममता की पराजय तृणमूल कांग्रेस के लिए बड़ी नैतिक पराजय व भाजपा के लिए जीत कही जा सकती है।
आंकड़ों के जोड़-घटाव के अनुसार तो यह सही है कि राज्य में भाजपा को सफलता नहीं मिली। परन्तु नन्दीग्राम के बाद उसने दूसरी सबसे बड़ी नैतिक जीत नक्सलबाड़ी आन्दोलन के गढ़ में हासिल की है। माटीगारा-नक्सलबाड़ी विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के आनन्दमोय बर्मन ने तृणमूल कांग्रेस के राजन सुन्दास को 70 हजार से ज़्यादा मतों से हराया। यह अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट है। यहां 2016 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के शंकर मालाकार की जीत हुई थी और वह इस बार तीसरे स्थान पर रहे। यह वही नक्सलबाड़ी क्षेत्र है, जहां से 1967 में वामपंथी आतंकी नेताओं ने हथियारबन्द आन्दोलन शुरू किया। इसके बाद यह आन्दोलन देश के विभिन्न हिस्सों में फैला और जिसकी विषाक्त जड़ें आज भी कहीं-कहीं मिल जाती हैं। इस आन्दोलन ने देश के वंचित व वनवासी समाज को अपनी ओर आकर्षित किया परन्तु आज वह अपने ही गढ़ में राष्ट्रवाद से परास्त हो गया। इस जीत से पता चलता है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों में वामपंथियों की पकड़ बहुत ढीली पड़ चुकी है। इसी इलाके में फांसीदेवा विधानसभा क्षेत्र है और यहां से भी भाजपा के दुर्गा मुर्मु को लगभग 30 हजार के अन्तर से जीत मिली है। ये अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित सीट है। सीपीआई (एमएल-एल) ने चाय बगान की एक मजदूर लड़की सुमन्ती एक्का को उतारा लेकिन उन्हें 3000 भी वोट नहीं मिले।
भाजपा दलितों और आदिवासियों को पश्चिम बंगाल में अपने साथ लाने में सफल हो चुकी है। इसका उदाहरण है कि 294 सदस्यों वाली बंगाल विधानसभा में कुल 84 आरक्षित सीटें हैं, इनमें से 68 अनुसूचित जाति और 16 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। भारी बहुत के बावजूद इस बार टीएमसी को 45 रिजर्व सीटों पर जीत मिली और भाजपा को 39 सुरक्षित सीटों पर।
मत प्रतिशत और सीटों की संख्या की दृष्टि से टीएमसी की अब तक की सबसे बड़ी जीत है, लेकिन 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के प्रदर्शन की तुलना इन चुनावों से करें तो यह उसकी भी एक बड़ी जीत है। 2016 में भाजपा को केवल तीन सीटें मिलीं और इस बार 77 सीटें मिली हैं। भाजपा की इस जीत से कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां साफ हो गईं। आजादी के बाद से ऐसा पहली बार हुआ है कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी दलों के एक भी विधायक नहीं चुने गए। यह ठीक है कि भाजपा यहां सरकार नहीं बना पाई, परन्तु विपक्ष का सारा इलाका उसने घेर लिया है। नए प्रदेशों में कई बार जगह बनाने के लिए विपक्ष की भी राजनीति करनी पड़ती है, जिसके लिए भाजपा तैयार दिखाई दे रही है। मतगणना पश्चात अपने कार्यकर्ताओं की हुई हत्या के खिलाफ सशक्त आवाज उठा कर उसने यह काम शुरू भी कर दिया है। केवल तीन सीटों से सीधे सत्ता पर कब्जा करना देश की राजनीति में अभी तक हुआ नहीं। भाजपा से यह अपेक्षा करना और ऐसा न होने पर उसे पराजित मानना तो राजनीतिक बेईमानी ही हुई।
कहने को तो विगत विधानसभा में भी टीएमसी के खिलाफ विपक्ष के 83 विधायक थे, परन्तु इनमें अधिकतर वामपंथी और कांग्रेस के थे। प्रदेश की राजनीति के विपरीत राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस व वामपंथियों को ममता की जरूरत पड़ती रही है। प्रदेश में भी कहने को अलग-अलग थे, परन्तु भाजपा विरोध के चलते एक पाले में खड़े दिखते और राजनीतिक नूरा कुश्ती करते नजर आते थे। इसी का लाभ उठा कर ममता बनर्जी अभी तक राज्य में मनमानी करती आई हैं, परन्तु मुख्य विपक्षी दल भाजपा बनने के बाद अब ममता चाह कर भी ‘एको अहं द्वितीयो नास्ति’ के सिद्धान्त का पालन नहीं कर पाएंगी। प्रदेश के चुनाव जीत कर तृणमूल कांग्रेस चाहे कितनी इतरा ले परन्तु नन्दीग्राम में ममता की पराजय का दंश कोमोडो ड्रैगन के विषाक्त विषदन्त के दंश की भान्ति सालता रहेगा। और देर सवेर अपना असर दिखाना शुरू कर दे तो बहुत बड़ी बात न होगी।
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