महाराणा कुंभा के समय (1433-1468) चित्तौड़ भारत की राजधानी के रूप में विकसित हो गया था। यह युग कला शिल्प, स्थापत्य, साहित्य, निर्माण से परिपूर्ण था। मेवाड़ राज्य की सीमाओं का विस्तार इसी कालखंड में हुआ। महाराणा सांगा के समय (1509-1528) देशभर के हिन्दू राजाओं ने अपने नायक के रूप में मेवाड़ का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था। खानवा के युद्ध में शामिल राज्य इसके प्रमाण हैं।
बाबर के खिलाफ युद्ध में राणा सांगा की हार ने देश का भाग्य बदल दिया और दिल्ली में मुगल सत्ता की स्थापना हुई, जो बाबर से अकबर तक विस्तारित होकर दृढ़तर होती गई। राजपूताना के सभी राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। इतना ही नहीं, अपने पवित्र कुलों की कन्याओं को अकबर के हरम में भेज दिया। अत्याचारों का दौर चल पड़ा। मेवाड़ को छोड़ सभी दिल्लीश्वर को जगदीश्वर मान बैठे। ऐसे समय में महाराणा प्रताप का उदय हुआ।
महारानी जयवन्ती बाई के गर्भ से ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, रविवार, विक्रम संवत् 1597 (9 मई, 1540) को कुम्भलगढ़ में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ। चण्डू ज्योतिषी ने प्रताप की जन्म पत्रिका तैयार की। प्रताप का जीवन राजसी वैभव से अप्रभावित, सादगी, सरलता और विनम्रता लिए हुए था। वे उच्च चरित्र के व्यक्ति थे। बचपन में पौराणिक कथाएं, देश के लिए जीने की वृत्ति का उपदेश सुनकर ही प्रताप तैयार हुए। राजकुमारों के समान ही शिक्षा-दीक्षा हुई। शस्त्र विद्या में निपुण प्रताप सिंह अपने आसपास के इलाके में ‘कीका’ नाम से विख्यात थे। इतिहासकार राजशेखर व्यास लिखते हैं कि प्रताप लगभग दस वर्ष तक कुम्भलगढ़ में रहे और अधिकांश समय भीलों के साथ व्यतीत किया। भीलों के साथ उनकी इतनी घनिष्ठता थी कि वे मात्र महाराणा उदयसिंह के पुत्र न होकर प्रत्येक भील परिवार के पुत्र तथा राज परिवार के राजकुमार न रहकर मेवाड़ के व्यापक भील समुदाय के राजकुमार बन गए। मेवाड़ के वनवासी इलाकों में लोक संबंधों की घनिष्ठता इतनी प्रगाढ़ हो गई थीं कि हर रोज भील परिवारों के वृद्ध, प्रौढ़, युवक, पुरुष और महिलाएं प्रताप के अपने घर आने की प्रतीक्षा करते थे। उनके आने पर अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव कर स्वर्गिक आनंद की प्राप्ति करते थे।
कम आयु में गढ़ जीते
प्रताप 12 वर्ष की उम्र में 1552 में कुम्भलगढ़ से चित्तौड़गढ़ आए और वहां तलहटी में झालीमहल (पाडनपोल के पास) में रहकर शस्त्र प्रशिक्षण, राजनीतिक दांव-पेच इत्यादि सीखने लगे। उनके गुरु सलूम्बर के रावत किसनदास थे। अब तक प्रताप को युवराज का पद प्राप्त हो गया था। इसी समय अपनी मित्र मंडली के साथ उन्होंने जयमल मेड़तिया से युद्ध व्यूह कला का प्रशिक्षण प्राप्त किया। मात्र 17 वर्ष की अल्पायु में प्रताप ने वागड़, छप्पन और गोड़वाड़ के इलाके जीत लिए। इसी समय उनका विवाह मामरख पंवार की पुत्री अजबांदे कुंवर से हुआ। 16 मार्च, 1559 को अजबांदे कुंवर की कोख से ज्येष्ठ पुत्र के रूप में अमर सिंह ने जन्म लिया। आगे चलकर महाराणा प्रताप ने सैन्य प्रशिक्षण और सैनिकों की भर्ती के प्रयास शुरू किए, जिसमें भीलू राणा पूंजा का विशेष योगदान रहा। महाराणा प्रताप के राज्यारोहण के समय ही भीलू राणा अपने सैनिकों के साथ पूंजा पानरवा से आ गया था।
हल्दीघाटी युद्ध में वह 500 सैनिकों के साथ पहाड़ों में तंदावल दस्ते में तैनात था। प्रताप की सेना के गोगुन्दा से कोत्यारी के जंगलों से जाने पर मानसिंह की सेना को घेरने, रसद सामग्री लूटने तथा आवरगढ़ में अस्थायी निवास स्थापित कर प्रताप एवं उनके परिवार की सुरक्षा का जिम्मा भीलू राणा पूंजा ने अपने ऊपर लिया था। भीलू राणा पूंजा तथा उसके भील सैनिकों की कर्त्तव्यनिष्ठा, रण-कुशलता तथा छापामार युद्ध प्रणाली की दक्षता के कारण ही प्रताप, अकबर और उसके सेनानायकों के भीषण आक्रमणों का सामना कर सके। चावण्ड में राजधानी की स्थापना के समय तक प्रताप को भीलों का अतुलनीय योगदान प्राप्त था। मेवाड़ ने इसी कारण अपने राज चिह्न में एक ओर राजपूत तथा दूसरी ओर भील सैनिक का चित्र देकर उनके योगदान को मान्यता प्रदान की है। प्रताप के देहावसान के बाद भीलू राणा ने अमरसिंह को भी सैन्य सहायता उपलब्ध कराई थी। 1610 में उसका देहावसान हो गया था। प्रताप के जन-जागरण के कारण मेवाड़ के प्रत्येक परिवार से सैनिक भर्ती प्रारम्भ हो गई। पड़ोसी राज्य से भी सैनिक और आर्थिक सहायता मिलने लगी। आगामी युद्ध की गंभीरता का आकलन कर प्रताप दिन-रात तैयारियों में व्यस्त हो गए।
उधर, अकबर को अपने कूटनीतिक प्रयासों में जब असफलता हाथ लगी तो वह स्वयं 7 मार्च, 1576 को सेना लेकर अजमेर पहुंचा। यहां उसने युवराज मानसिंह को प्रताप के विरुद्ध आक्रमण के लिए अपना प्रधान सेनापति नियुक्त किया। मानसिंह की सेना में आसफ खां, गाजी खान, माघोसिंह, राय लूणकरण, मुजाहिद बेग, मिहत्तर खान आदि लोग थे।
मानसिंह 3 अप्रैल, 1576 को अपनी सेना लेकर अजमेर से बदनोर-भीलवाड़ा होकर माण्डलगढ़ पहुंचा तथा दो मास तक वहीं डेरा डालकर महाराणा प्रताप के आक्रमण का इंतजार करने लगा। मई के अंतिम सप्ताह में महाराणा प्रताप भी कुम्भलगढ़ से गोगुन्दा आ गए तथा युद्ध की भावी रणनीति पर विचार करने के लिए अपने सरदारों, सामन्तों को आमंत्रित किया। इस बैठक में झाला मानसिंह, पूंजा भील, हकीम खां सूरी, झाला बीदा, भामाशाह, रामशाह तंवर एवं उनके तीन पुत्र, राव संग्राम सिंह, रामदास मेड़तिया, कल्याण सिंह चूड़ावत, दुर्गादास, हरिदास चौहान, नाथा चौहान, डूंगर सिंह पंवार, शेरखान चौहान, प्रयागदास झखरोर, आलम राठौड़, नंदा प्रतिहार, महाराणा प्रताप के मामा मानसिंह सोनगरा, कूंपा के पुत्र जयमल और भामाशाह, ताराचंद आदि प्रमुख लोग उपस्थित थे। चित्तौड़ युद्ध के पश्चात वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि ऐसी शूरवीरता की कोई सार्थकता नहीं, जिसके कारण स्वतंत्रता ही कायम न रहे। इसलिए उनका विचार यह बना कि स्वतंत्रता की रक्षा की दृष्टि से एवं संपूर्ण युद्ध में अंतिम सफलता प्राप्त करने के लिए अपनी शक्ति को कायम रखकर युद्ध की स्थिति को देखते हुए अगर बचकर निकलना आवश्यक हो तो उसको कायरता नहीं मानना चाहिए। यही मान्यता ‘छापामार युद्ध नीति’ के रूप में विकसित हुई। उदयसिंह का चित्तौड़ से उदयपुर के पहाड़ों में जाना, हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप का पहाड़ों में अपनी सेना को ले जाना तथा बाद में गोगुन्दा खाली करके कोल्यारी के पहाड़ों में जाना और शाहबाज खान के आक्रमण के समय कुम्भलगढ़ दुर्ग खाली करके जाना, इसके उदाहरण हैं। इसी नीति के कारण वे अन्ततोगत्वा सफल रहे। चित्तौड़ में हुए जौहर तथा उसके 30,000 निर्दोष लोगों की हत्या के कारण सभी सरदारों के मन में अकबर के खिलाफ प्रतिशोध की भावना थी। वे प्रत्यक्ष तौर पर मैदान में युद्ध कर शत्रु का रक्त बहाना चाहते थे, परन्तु महाराणा प्रताप तथा तंवर राजा रामशाह शत्रु को पहाड़ों में घेरकर मारना चाहते थे। शत्रु सेना के पास सैन्य बल अधिक था और तोपखाना भी था, जबकि मेवाड़ी सेना मैदानी युद्ध की अभ्यस्त नहीं थी। इस कारण युद्ध छापामार नीति से ही जीता जा सकता था। ‘राणा रासो’ में लिखा है—
कांठो दे गिरवर गहो,
मांठो औरूं विचारूं।
फेरि घेरि चहुं ओर ते,
मीरन देहं मारूं।।
असल में देखा जाए तो हल्दीघाटी की लड़ाई दोनों युद्धनीतियों का मिश्रित रूप थी। वह खुला युद्ध भी था, जिसमें मेवाड़ी वीरों को पर्वतीय भाग से निकलकर तेज आक्रमण करने एवं खुलकर अपना शौर्य एवं पराक्रम प्रदर्शित करने का अवसर मिला। दूसरी ओर कड़े प्रतिकार की स्थिति उत्पन्न होने एवं शत्रु द्वारा पीछा करने की स्थिति में हल्दीघाटी में प्रवेश कर अपनी रक्षा करते हुए तीव्र गति से पर्वतीय भाग में लौट जाने की युद्ध प्रणाली से भी युक्त था।” उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि घाटी से निकलकर एक बड़े छापे के रूप में मुगल सेना को परास्त कर पुन: पहाड़ों से लौटकर मोर्चाबंदी करना, अपने जन-धन की रक्षा करते हुए शत्रु के जन-धन और सैन्य सामग्री को लूटना, यह युद्ध परिषद में निर्णय हुआ। उधर, काफी प्रतीक्षा के बाद मानसिंह मांडलगढ़ से निकला और नाथद्वारा के पास बनास नदी के किनारे मोलेला ग्राम में पड़ाव डाल दिया। प्रताप ने भी अपनी सेना को गोगुन्दा से लोसिंग की पहाडि़यों में लाकर डेरा डाला। प्रताप ने सुरक्षा की दृष्टि से मायरा की गुफा में अपना शस्त्रागार स्थापित किया तथा पीछे रनिवास में महिलाओं की सुरक्षा का दायित्व अपने 17 वर्षीय पुत्र अमरसिंह को सौंपा।
जान बचाकर भागे मुगल सैनिक
अब प्रताप ने अपनी युद्ध नीति में थोड़ा सा बदलाव किया। उन्होंने रक्षात्मक युद्ध की बजाय आक्रामक युद्ध नीति अपनाई। अब्दुल रहीम खानखाना के असफल होकर लौट जाने के पश्चात प्रताप ने भामाशाह, उसके भाई ताराचन्द और अपने पुत्र अमरसिंह को साथ लेकर कुम्भलगढ़ से 30 मील उत्तर-पूर्व में 1552 को विजयादशमी के दिन दिवेर ग्राम में आक्रमण किया, जहां अकबर का चाचा सुल्तान खां मुख्तार था। सुल्तान खां ने आसापास के मुगल थानों से सेना एकत्रित की। दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध प्रारम्भ हुआ। सुल्तान खां हाथी पर बैठकर आया तो महाराणा प्रताप के सैनिकों ने हाथी के पांव काट दिए। इसके बाद वह घोड़े पर बैठकर आया, तब अमरसिंह ने भाले का ऐसा जोरदार प्रहार किया कि एक ही वार में सुल्तान खां, उसके घोड़े तथा टोप-बख्तर के टुकड़े-टुकड़े कर उसे जमीन में गाड़ दिया। ‘अमर काव्य’ के अनुसार भाला सुल्तान खां की छाती में ऐसा लगा कि वह खींचने पर भी नहीं निकला। अमरसिंह ने ठोकर से उसे खींच निकाला। मरते-मरते सुल्तान खां ने पानी मांगा तो महाराणा प्रताप ने उसे गंगाजल से भरा स्वर्ण कलश ले जाकर दिया।
दूसरी ओर अकबर ‘मीर’ की उपाधि हासिल करने के लिए चित्तौड़ विजय के दौरान 30,000 निरीह, निर्दोष, निहत्थे लोगों का कत्लेआम करवाता है। महाराणा प्रताप की दिवेर की जीत को कर्नल टॉड ने ‘मैराथन’ की संज्ञा दी है। दिवेर विजय की ख्याति चारों ओर फैल गई और मुगल सैनिक अपनी चौकियां खाली करके भागने लगे। जो बच गए थे, उनका वहीं पर सफाया कर दिया गया। महाराणा प्रताप के लिए दिवेर विजय नव विजय अभियान का शुभ एवं कीर्तिदायी शुभारम्भ था। इसके बाद तो उन्होंने सारी शाही चौकियों को पुन: अपने कब्जे में ले लिया तथा छप्पन के इलाके एवं डुंगरपूर-बांसवाड़ा को भी जीत लिया। उस समय पूरे मेवाड़ पर प्रताप का अधिकार हो गया था। प्रताप ने 1585 में चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया तथा यहीं से सभी गतिविधियां संचालित करने लगे। उधर, दिवेर युद्ध में मुगलों की पराजय के बाद अकबर ने 1584 में जगन्नाथ कच्छवाहा को बड़ी सेना देकर भेजा, किन्तु वह भी असफल होकर लौट गया। इससे अकबर निराश हो गया और मेवाड़ से अपना ध्यान हटा लिया।
1576 से 1585 तक अकबर ने सात बार अपने सेनापतियों को समस्त संसाधनों से युक्त बड़ी सेना के साथ महाराणा को पराजित करने के लिए भेजा। एक बार तो वह खुद भी आया। यही नहीं, अकबर ने अपने सेनापतियों को धमकी भी दी कि असफल होने पर उनके सिर कलम करवा देगा। इसके बावजूद अकबर के सेनापतियों का हर आक्रमण असफल रहा। संक्षेप में कहा जा सकता है कि संघर्ष के इस दशक में (1576-1585) अकबर हर मामले में महाराणा प्रताप से पराजित हुआ। प्रताप अन्ततोगत्वा अपनी छापामार युद्धनीति के कारण शत्रु को परास्त करने में सफल होकर स्वयं अविजित रहे और स्वतंत्रता की अलख जलाकर विदेशी दासता के बंधनों से मातृभमि को मुक्त रख सके।
चावण्ड का वैभवकाल
पूर्ण निश्चिंतता नहीं होने और मेवाड़ में शत्रु को सुविधा नहीं देने की नीति के अनुसरण में अपने हाथों अपनी बस्तियां, बाग, खेत आदि उजाड़ दिए जाने और मुगल सेना द्वारा सालों तक निर्मम लूट तथा तबाही मचाने के कारण मेवाड़ के पुनर्निर्माण का प्रयास कितना कठिन था, इसका अनुमान लगाने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। यह महाराणा प्रताप का सर्वाधिक प्रशंसनीय पक्ष है। जेम्स टॉड से लेकर दूसरे इतिहासकारों ने प्रताप द्वारा उदयपुर की पुन: प्राप्ति को इतना महत्वहीन माना कि उसका उल्लेख करना भी अनावश्यक समझा। हाल तक के इतिहासकारों, जैसे- डॉ. वी.एस. भार्गव (राजस्थान, पृष्ठ 247), जिन्होंने राणा के विरुद्ध अंतिम अभियान के बाद दस पंक्तियों में ही प्रताप के जीवन को समेट दिया है, जबकि इसमें दस साल लगे थे। इन वर्षों के दौरान महाराणा प्रताप के जीवन पर बहुत कम प्रकाश डाला गया है, लेकिन अब अंधकार से प्रकाश पुंज फूटा है और उनके विषय में विश्वसनीय जानकारी सामने आने लगी है। इस दिशा में डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने प्रारम्भिक प्रयत्न किए हैं। शर्मा (मेवाड़, पृष्ठ 103-105) लिखते हैं- ”ऐसा लगता है कि 1585 का वर्ष प्रताप के जीवन में अत्यंत महत्व का हो गया।
इस समय तक मुगल संकट समाप्त हो गया था। व्यावहारिक दृष्टि से जगन्नाथ कच्छवाहा का आक्रमण अंतिम महत्वपूर्ण आक्रमण था, क्योंकि मेवाड़ में मिली लगातार पराजय का प्रभाव अंतिम साम्राज्य के शेष भागों पर पड़ने लगा था। इस कारण अकबर पंजाब तथा पश्चिम-उत्तर सीमान्त प्रदेश के अधिक महत्व के प्रश्नों से निपटने में लग गया। महाराणा प्रताप ने इस समय का अच्छा उपयोग किया। उन्होंने मुख्यत: मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम, उत्तर-पूर्व तथा मध्य भाग में फैली मुगल चौकियों पर हमले किए। अपने पुत्र कुंवर अमरसिंह तथा भामाशाह, ताराचंद आदि को साथ लेकर उन्होंने 36 स्थानों से मुगल थाने हटा दिए, जिसमें मुख्य थे- उदयपुर, मोही, पानरवा, गोगुन्दा, माण्डल। इस तरह महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के उन हिस्सों को दोबारा हासिल कर लिया, जिन पर मुगलों का कब्जा था। उदयपुर स्थित कमिश्नर कार्यालय से प्राप्त एक प्राचीन लेख से स्पष्ट है। इस पर कार्तिक पूर्णिमा विक्रम संवत 1685 (1588) की तिथि अंकित है और उसमें त्रिवेदी सार्दुलनाथ को जहाजपुर के निकट पंडेर की जागीर देने का उल्लेख है। इससे हम इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि उस समय तक महाराणा ने मेवाड़ का उत्तरी-पूर्वी प्रदेश भी हस्तगत कर लिया था और अपने विश्वसनीय अनुयायियों को जागीरें देकर पुनर्निर्माण के कार्य में व्यस्त थे। जैसा कि सुरखंड आलेख में बताया गया है, प्रताप ने इस समय का उपयोग 1885 में चावण्ड में अपनी राजधानी बनाने में किया। यह सुरक्षित स्थान था, जहां उनके लिए रहना और शासन व्यवस्था का संचालन करना सरल था। इसी अवधि में चावण्ड में महल और चामुण्डा माता मन्दिर बनवाए गए।
डॉ. देवीलाल पालीवाल (महाराणा प्रताप महान, पृष्ठ 68) लिखते हैं, ”इस भांति प्रताप के शेष शांतिपूर्ण जीवनकाल में मेवाड़ ने सभी क्षेत्रों मं5 उन्नति की और जब 1600 में अकबर ने पुन: मेवाड़ के विरुद्ध युद्ध शुरू किया, उस समय मेवाड़ पूरी तरह धन-धान्य से परिपूर्ण एवं खुशहाल था। उन्होंने जो संपत्ति और साधन अर्जित किए, उनके सहारे राणा अमरसिंह अगले 15 वर्षों तक मुगल सेना से लड़ता रहा।”
चावण्ड को नई राजधानी बनाने के बाद प्रताप ने शासन व्यवस्था में बदलाव किए और नई नियुक्तियां भी कीं। हालांकि राजधानी बाने के बाद भी चावण्ड सुरक्षित नहीं था। यह क्षेत्र व्यापारिक और राजनीतिक दृष्टि से गुजरात और मालवा के नजदीक पड़ता था। इस कारण इन क्षेत्रों के साथ संबंध स्थापित करने में महाराणा को सुविधा हुई। महाराणा ने मेवाड़ तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में एकता स्थापित किया। जागीरें बांटीं और नई भूमि व्यवस्था को लागू किया। बच्चे और स्त्रियां सभी जगह बेहिचक भ्रमण कर सकती थीं। बिना कारण स्वयं महाराणा प्रताप भी कभी किसी को दंडित नहीं करते थे। दंड की व्यवस्था समुचित होने के कारण चोरी-डकैतियां भी कम हो गई थीं। कुल मिलाकर संपूर्ण प्रदेश के आचरण में नैतिकता आ गई थी। उनके कार्यकाल में कृषि उत्पादन और व्यापार में वृद्धि हुई। महाराणा केवल योद्धा और कुशल शासक ही नहीं थे, अपितु कला, शिल्प, साहित्य में भी उनकी रुचि थी। उनके समय ही नई राज्याभिषेक पद्धति विकसित हुई थी।
महाराणा के समय चित्रकला का इतना विकास हुआ था कि उस विशेष चित्र शैली को ‘चावण्ड चित्रशैली’ के नाम से जाना जाता था। उनके चित्र आज भी संग्रहालय में मौजूद हैं। चावण्ड चित्र शैली को चावण्ड कलम और रागमाला के नाम से जाना जाता है। इसका प्रणयन निसारदी नामक मुस्लिम द्वारा किया गया जो मालवा से महाराणा प्रताप के पास आया था। उनके शासनकाल में चित्रकला के साथ-साथ साहित्य कला का भी सृजन हुआ। महाराणा स्वयं कवि थे। ‘पद्मिनी चरित्र’ और ‘दुरसा आहडा’ प्रताप के युग को आज भी अमर बनाए हुए है। चक्रपाणि, रामा सांदु, हेमरतन सूरी जैसे साहित्यकार उनके साथ थे। इससे पूर्व ऐसा प्रयोगधर्मी शासक मेवाड़ को नहीं मिला, जिसने शोध और अनुसंधान के विशेष प्रयास किए हों। दूसरा महत्वपूर्ण ग्रंथ मुहर्तमाला तथा तीसरा राज्याभिषेक पद्धति है। यहां ध्यान देने की बात है कि जहां तत्कालीन राजाओं और बादशाहों ने अपनी प्रशंसा में ग्रंथ, साहित्य की रचना करवाई, वहीं प्रताप ने अपनी प्रशंसा में दो शब्द भी नहीं लिखवाए, बल्कि लोक कल्याणार्थ साहित्य की रचना करवाई। स्थापत्य की दृष्टि से किलों और महलों का निर्माण तथा कमोल, कमलनाथ, उबेश्वर, चावण्ड, जावर, बदराणा के मंदिरों का निर्माण आज भी इसके साक्षी हैं। चावण्ड में राजमहल, सामन्तों के रहने के लिए भवन तथा चामुण्डा माता का मन्दिर आज भी देखा जा सकता है। सड़क व्यवस्था, सैन्य व्यवस्था, छापामार युद्ध पद्धति का विकास अन्य उल्लेखनीय पहलू हैं।
इस प्रकार युद्ध के पश्चात शान्ति काल में महाराणा ने सभी दृष्टि से मेवाड़ का विकास किया। महाराणा प्रताप को युद्ध के पश्चात यह काल नहीं मिलता तो उनके व्यक्तित्व के इस रचनात्मक पक्ष का परिचय संसार को नहीं मिल पाता। वे युद्ध और शान्ति, दोनों कालों के सुयोग्य नेता थे। अब्दुल रहीम खानखाना, जिन्हें अकबर ने प्रताप को मिटाने भेजा था, महाराणा की प्रशंसा में दो पंक्तियां लिख गए हैं-
धरम रहसी रहसी धरा,
खप जासी खुरसाण।
अमर विसम्भर ऊपरे,
राख निहच्चौ राण।।
अर्थात् धर्म रहेगा, धरती रहेगी, परन्तु शाही सत्ता सदा नहीं रहेगी। अपने भगवान पर भरोसा करके राणा ने अपने सम्मान को अमर कर लिया है। इस अमरत्व को प्राप्त करने के लिए प्रताप को केवल 57 साल का जीवन और 25 साल का राजकाल मिला। राजस्थान का गौरव सूर्य उगने से पहले ही कुम्हला गया और अपने जीवन के भरे मध्याह्न में जमीन से लग गया। जेम्स टॉड से लेकर आधुनिक इतिहासकारों ने मृत्यु के समय महाराणा प्रताप की दु:खी मनस्थिति का वर्णन किया है तथा इसका कारण अमरसिंह की अयोग्यता बताया है। सरदारों के शपथ लेने पर उन्होंने शान्तिपूर्वक प्राण त्याग दिए। यह घटना वि.सं. 1653 माघ सुदी 11 की है। महाराणा प्रताप ने अपने अंतिम समय में मेवाड़ को पूर्ण स्वतंत्र (मेवाड़ के सभी 32 किले) कराकर, उसे सुव्यवस्थित कर लिया था। जो लक्ष्य या वीरव्रत लेकर वह चले थे, उन्हें आंखों के समक्ष पूरा करते हुए अत्यंत सहज रूप से अपने प्राण त्यागे थे। एक गोभक्षी बघेरे को स्वयं महाराणा प्रताप ने धनुष द्वारा तीर चलाकर मारा।
तीर चलाते समय प्रताप की आंतों में खिंचाव आया, जिसके कारण वे अस्वस्थ हो गए। दो मास की अस्वस्थता के पश्चात उन्होंने देह त्यागकर गोलोकवास किया। उन्होंने गोमाता की रक्षार्थ अपने प्राण समर्पित किए। मेवाड़ राजघराने की परम्परा थी कि पिता का स्वर्गवास होने पर युवराज दाहसंस्कार के समय उपस्थित नहीं रहते थे। लेकिन उस प्राचीन परम्परा को तोड़कर उनके पुत्र अमरसिंह ने अन्त्येष्टि क्रिया, जो श्रुति, स्मृति पुराण आदि शास्त्रोक्त विधि से आचार्य सम्मत थी, सम्पन्न की। पितृभक्त अमरसिंह के इस कृत्य को देखकर गुणवानों ने धन्य-धन्य कहा। महाराणा प्रताप का अंतिम संस्कार चावण्ड से 3 कि.मी. दूर बण्डोली ग्राम के पास स्थित केजड़ के तालाब में किया गया। वहां अब पुल बन गया है। वहां मुगल शासकों के वैभवपूर्ण स्मारक से इतर सफेद पत्थर की आठ खंभों वाली एक साधारण छतरी है, जो प्रताप के महान व्यक्तित्व का प्रतीक है। ‘महाराणा यश प्रकाश’ के अनुसार जब प्रताप की मृत्यु का समाचार (लाहौर में) अकबर के पास पहुंचा, तो वह स्तब्ध और उदास हो गया। उसका यह हाल देखकर दरबारी ताज्जुब में पड़ गए, वहां मौजूद प्रसिद्ध चारण कवि दुरसा आढ़ा ने सम्राट की भावना को ठीक तरह से समझा और उसी समय कहा-
आ लैगो अणदाग,
पाघ लेगो अणनामी,
गौ आड़ा गवड़ाय,
जिको बहतो धुर कामी।
नवरोजे नह गयो,
न गौ आंतसा नवल्ली,
न गौ झरोखा हेठ,
जेठ दुनियाण दहल्ली।
गहलोत राण जीती गयो,
दसाण मूंद रसणा डसी,
नीलाक मूक भरिया नयन,
तो मृत भाह प्रताप सी।।
अर्थात् ”तूने अपने घोडे़ को (शाही) दाग नहीं लगने दिया। अपनी पगड़ी तूने कभी भी किसी के सामने नहीं झुकाई। तू अपने यश के गीत गवा गया। अपने राज्य के धुरे को तू अपने बाएं से चलाता रहा। तू न तो नवरोज में गया और न शाही डेरों में। तू शाही झरोखे के नीचे नहीं गया। तेरी श्रेष्ठता के कारण दुनिया ही दहलती रही। हे प्रतापसिंह! तेरी मृत्यु पर शाह (अकबर) ने दांतों के बीच जीभ दबाई। नि:स्वासें छोड़ीं और आंखों में आंसू भर गए। गहलोत राणा (प्रताप) तेरी ही विजय हुई। तू जीत गया।”
इस प्रकार महाराणा प्रताप ने अपने तपस्वी, वीरव्रती जीवन से केवल मेवाड़ ही नहीं, बल्कि व्यक्तित्व व कृतित्व से पूरे विश्व में हिन्दुत्व का डंका बजाया। इसलिए उनके लिए लिखा गया है
माई ऐहड़ा पूत जण,
जेहड़ा राणा प्रताप।
अकबर सूतो ओझके,
जाण सिरहाणे सांप।।
भारतवर्ष की प्रत्येक नारी महाराणा प्रताप जैसे यशस्वी पुत्रों को जन्म देकर अपनी कोख सार्थक कर मां भारती को गौरवान्वित करे, और हम सभी महाराणा प्रताप के श्रेष्ठतम जीवन आदर्शों को ऊपने जीवन में आचरण कर जीवन की सार्थकता का अनुभव करें।
(वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप समिति, उदयपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘प्रताप गाथा’ से साभार)
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