महाराणा प्रताप बप्पा रावल की उस परम्परा के प्रतिनिधि शूरवीर रहे हैं, जिन्होंने विदेशी भूमि से आए आक्रमणकारी आततायियों के सामने घुटने नहीं टेके
भारतवर्ष धर्मवीरों, दयावीरों, दानवीरों एवं कर्मवीरों की जन्मभूमि रही है। यह प्रकृति की सुंदरतम सृजन है। इसकी रक्षा सदैव महर्षियों, ब्रह्मऋषियों, एवं राजर्षियों ने की है। यहां के महात्माओं, महामनाओं, एवं महाराणाओं की अद्भुत कीर्ति रही है। यहां का जीवनदर्शन श्रेयस और प्रेयस रहा है। यहां का प्रत्येक तृण औषधि एवं प्रत्येक अक्षर मंत्र है। यह त्रिनों की शान्ति, दिशाओं की शांति , आकाश की शान्ति, पृथ्वी की शान्ति, सजीव और निर्जीव की शान्ति हेतु प्रार्थना और साधनारत नागरिकों की भूमि रही है। आत्मबोध एवं आत्मशोध से श्रीयुक्त यहां का सामान्य जन भी पहले परोपकार और सर्वोपकार को ही प्राथमिकता देता रहा है। स्वोपकार को तो वह द्वितीयक प्राथमिकता देता रहा है। यह शैव और वैष्णव परम्परा की संस्कृति का अद्भुत संगम स्थल है। ऐसी श्रेष्ठताओं के इस देश में सनातन प्राणशक्ति शास्वत रूप से प्रवाहित होती रही और इस प्रवाह को प्राणमय एवं प्रणमय बनाये रखने का परमदायित्व शीलवान राजपुरुषों का रहा है, जिनको श्रेष्ठ आचार्यों ने संस्कारों के प्रशिक्षण के माध्यम से आत्मयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, एवं सहयोग का स्तंभपुरुष बनाया। ऐसे ही सिद्ध उत्तराधिकारी राजा अपने प्रजा की सर्वांगींण रक्षा करते हुए ‘स्वराज’ ‘सुराज’ एवं ‘स्वतंत्र’ राज्य का बोध कराता था। आधुनिक विश्व के श्रेष्ठतम लोकतंत्र से भी भारत के श्रेष्ठ राजा श्रेष्ठतम प्रजापालक सिद्ध हुए। ऐसे ही राजाओं में भी दृष्टांत योग्य हर्षवर्धन, अशोक, चित्रगुप्त, बप्पा रावल, पृथ्वीराज, राणा सांगा एवं महाराणा प्रताप हुए हैं।
महाराणा प्रताप बप्पा रावल की उस परम्परा के प्रतिनिधि शूरवीर रहे हैं, जिन्होंने विदेशी भूमि से आये आक्रमणकारी आततायियों के सामने घुटने नहीं टेके। उन्होंने भारतीय शौर्य, स्वाभिमान, और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए ही ‘महारण’ लड़ा और आजतक यहां के भारतवंशियों को ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया है कि भारत का एक-एक बच्चा, अपने को ‘महाराणा’ ही समझता है, एक-एक बच्ची महाराणा प्रताप की उस बेटी जैसे ही आत्मसम्मान और राष्ट्रसम्मान के लिए सन्नद्ध रहती है, जैसे महाराणा प्रताप जी की पत्नी और बेटी ने महाराणा को सन्धि- पत्र लिखने से रोक लिया था। स्मरण करें कि जंगल में रहते हुए दूब घास की बनी रोटी को उदबिलावके झपट कर खा लेने पर भी अपने कर्मपथ से विपथित नहीं हुए। मेवाड़ की यह घटना और ऐसी स्वाभिमान की गाथा दुनिया में दूसरी नहीं मिलती है। यह था ‘महाराणा’ और ऐसे थे इसके नायक ‘महाराणा’।
महाराणा प्रताप जी के पिताजी महाराणा उदय प्रताप सिंह जी ने ही मेवाड़ की राजधानी को चित्तौड़गढ़ से उदयपुर परिवर्तित किया था। यहीं पर महाराणा प्रताप जी का जन्म 9 मई 1549 को हुआ था। जीवन को अपना पहला आश्रम अर्थात् ब्रह्मचर्यकाल बिता भी नहीं था कि महाराणा प्रताप जी को 23 वर्ष की आयु में मेवाड़ राज्य का उत्तराधिकारी संभालने का अवसर प्राप्त हुआ था। ऐतिहासिक त्रुटि के कारण तथा चारण प्रवृत्ति से इतिहास लेखन करने वाले इतिहासकारों ने जिस अकबर को महान अकबर कहा था और अब भी औपनिवेशिक मानसिकता वाले विद्वान उसे महान अकबर ही कहते हैं, उस महाहीन एवं महानीच अकबर ने आक्रामकता और आततायीपन की कुप्रवृत्ति से प्रेरित होकर एक-एक भारतीय राज्य को जीतकर अपने राज्य का विस्तार करने के अभिमान में मेवाड़ राज्य के भी अधिकांश भाग से अपने राज्य में मिला लिया। क्षेत्र की दृष्टि से तो विस्तार करने में सफल रहा परन्तु राजस्थान की राजपूत तेजस्विता को धूमिल करने में पूर्णतः असफल।
महाराणा प्रताप जी ने 1572 ई. में राजगद्दी पर उत्तराधिकारी प्राप्त करने से लेकर लगातार 20 वर्षों तक अकबर से युद्ध करते रहे। इस युद्ध की घड़ी में उन्हें अपने ही कुल तथा जाति के कुलद्रोही एवं राष्ट्रद्रोही लोगों से भी लड़ना पड़ा। एक तरफ़ उनके अपने अनुज शक्ति सिंह प्रारम्भ में राजपूतों को लेकर महाराणा प्रताप के विरुद्ध लड़े तो इसी क्रम में राजामान सिंह जो क्षत्रिय जाति भारतवर्ष के गौरवमयी परम्परा को गिरवी रखकर अकबर की ओर से आकर महाराणा प्रताप से लड़ा। ऐसा प्रतिघात क्रूर इतिहास में यदा- कदा ही मिलता है। महाराणा ने अपनी प्रजा के हित पोषण,राज्य की रक्षा, स्वतंत्रता, स्वाभिमान, और शौर्य के लिए अकथ्य कठिन दिनों का सामना किया तथा समय ऐसा भी आया कि महाराणा को अपनी पत्नी एवं कम उम्र की बेटी के साथ जंगलों में अपना दिन काटनापड़ा था । महाराणा ने कभी भी अपनी मज़बूत आत्मबल को क्षीण नहीं होने दिया । जंगल में फलों को खाकर किसी भी तरह जीवन यापन किया । जंगलों में महाराणा को परिवार के साथ घास की बनी रोटी तक खानी पड़ी। उसी समय महाराणा का पितारूपी हृदय करूणवश अकबर से सन्धि-पत्र लिखने को विवश कर दिया था, परन्तु आदिशक्ति मां दुर्गा स्वरूप महारानी ने उस सन्धि-पत्र को रोक लिया था, तथा और भी प्रेरणादायी चरित्र उस अल्पायु बेटी का उभर कर सामने आया जिसने सन्धि पत्र को फाड़ भी दिया। अब पाठक वृंद आप ही विचार करें की महान कौन था? वीर कौन था ? वीरांगना कौन थी ?
हल्दीघाटी के युद्ध में ही सरदार झाला ने अपना जीवन गंवा दिया था। राणा के अनुज शक्ति सिंह ने इसी युद्ध में अपनी त्रुटि पर पश्चाताप करते हुए महाराणा प्रताप जी के साथ खड़ाकर अपनी खोई हुई नैतिकता को प्राप्त किया। उनके घोड़े चेतक ने तो अद्भुत स्वामिभक्ति दिखायी जो अविस्मरणीय है। मंत्री भामाशाह ने तो अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति ही महाराणा प्रताप जी को सौंप दी थी। साथ देने वालों में मेवाड़ राज्य की जनजाति थी जिनकी राष्ट्रभक्ति से प्रभावित होकर महाराणा प्रताप ने अपने छापामार युद्धकाल में यह व्रत ही ले लिया था कि अपने राज्य की वापसी होने तक वह जंगल में भूमि पर शयन करेंगे तथा पत्तल में ही भोजन करेंगे। इस प्रकार के व्रत और त्याग से ही यह राष्ट्र बच पाया है। भारत के इतिहास के इस शुक्ल पक्ष को तो अभी तक कोई भी शब्द भी हम नहीं दे पाए हैं। दोषपूर्ण झूठाइतिहास पढ़ाना जाना चाहिए। महान तो महाराणा कुल था, मेवाड़ के गिरिजन थे, सरदार आला थे, घोड़ा चेतक था, मंत्री भामाशाह थे तथा सुधरे हुए अनुज शक्ति सिंह थे।
अकबर को ‘महान’ विशेषण से अलंकृत करने वाले इतिहासकारों एवं इस झूठ को दस्तावेज के रूप में अब भी प्रचारित एवं प्रसारित करने वाले विद्वानों से मेरे कुछ प्रश्न हैं। पहला – क्या वह महान इसलिए था कि ‘हरम’ में जाता था, और एक से अधिक विवश नारियों से सम्बंध बनाता था ? दूसरा – क्या वह ‘मीना’ बाज़ार नहीं लगवाता था ? क्या मीना बाज़ार लगवाना महानता का परिचायक है ? तीसरा – क्या वह प्रलोभन द्वारा धर्मांतरण नहीं करवाता था ? चौथा – क्या वह छल, छद्म एवं पाखण्ड का सहारा नहीं लेता था ? पांचवा – क्या वह पवित्र क्षत्राणियों को जौहर व्रत के अंतर्गत सती होने के लिए विवश नहीं करता था ? छठा – क्या उस दीन-ए- इलाही स्वयं इस्लाम के वसूलों के विपरीत नहीं था ?और सातवां – क्या उसका सम्पूर्ण आचरण घिनौना, क्रूर तथा दानवीय नहीं था ?
इतिहास विध्वंसंकों को एक सुझाव है कि वह कर्नल टॉड की प्रसिद्ध पुस्तक “एनल्सएंडएंटीक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान” अवश्य पढ़ें तथा उसकी स्वीकारोक्ति के हिन्दी अनुवाद को इन पंक्तियों में देखें।
“अरावली की पर्वतमाला में एक भी घाटी ऐसी नहीं है,
जो राणा प्रताप के पुण्य कर्म से पवित्र नहीं हुई हो,
चाहे वहां उनकी विजय हुई या यशस्वी पराजय ”
राजस्थान की महादेवियों का महासतित्व और महाराणा का शौर्य ही भारत के अस्तित्व को बचा पाया है।
प्रो.हरिकेशसिंह
( लेखक जयप्रकाश विश्वविद्यालय के पूर्वकुलपति हैं )
टिप्पणियाँ