आजकल पार्टी का चुनाव चिन्ह देखकर आलोचना या प्रशंसा का दौर चल रहा है। माॅब लिचिंग किसे कहा जाएगा और उसे कितनी गंभीरता से लिया जाएगा, इसका फैसला इससे होगा कि करने वाला कौन है ? किसी सरकार की कामयाबी या नाकामी का फैसला इस बात से तय होगा कि सरकार किसकी है ?
मुंशी प्रेमचंद ने अपने उपन्यास ‘गोदान’ में एक जगह लिखा है कि सुख के दिन आये तो लड़ लेना, दुख तो साथ रोने से ही कटता है। परन्तु यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि अभी इस विकट दौर में भी एक ऐसा वर्ग है जो प्रेमचंद की बातों से इत्तेफाक नहीं रखता। यह वर्ग सुख के दिन आने पर रोता है और दुख में लड़ने लगता है। यह वर्ग है हमारा तथाकथित लेफ्ट—लिबरल गैंग और इनकी मालिक कांग्रेस। कोरोना की यह दूसरी लहर इनके लिए अवसर बन कर आई है। चुनावी रणभूमि में पस्त इन लोगों का एक ही ध्येय है, देश कहीं भी जाए, लेकिन मोदी को गिराने का अवसर नहीं जाना चाहिए। देश और देश के बाहर के मोदी विरोधियों को मानों एक संजीवनी सी मिल गई है। लाशों पर राजनीति करने वाले इन बौद्धिक गिद्धों को नया जीवन सा मिल गया है। श्मशान घाटों की फोटो पहले पन्ने पर छप रही हैं। समां ऐसा बांधा जा रहा है, जैसे भारत में जिंदा कम और मुर्दों की संख्या ज्यादा है।
धूर्त लाल सलाम
‘निजी पूंजी की समाप्ति और उत्पादन के आर्थिक संसाधनों का समाजीकरण, जो जमीन को जोते-बोये, वही जमीन का मालिक होये’ जैसे तमाम लोकलुभावन नारों के साथ विदेश से आयातित साम्यवाद और समाजवाद का भारत में प्रवेश और उनका भारतीय जनमानस पर प्रभाव अपने आप में शोध का विषय है। फिर भी एक बात अवश्य है कि कम्युनिस्टों ने भारत में क्लास के बदले कास्ट; जातिवाद का ही सहारा लेकर अपना विस्तार किया। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो बड़े-बड़े समाजवादी नेता पहले जातिवादी हुए, और अंत में परिवारवादी राजनीति के पर्याय बन गए।
बिना तार्किक आधार के खुद से बनाई हुई समस्याओं को लेकर संसद से सड़क तक संघर्ष करने वाले कम्युनिस्टों को अगर अपनी पहचान का संकट सता रहा है तो इसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं। विदेशी चश्मे से भारत को देखने के कारण ये जनता और जमीन से कटते चले गए हैं, परन्तु यह सत्य स्वीकार नहीं कर पाते है। कारण वही इनका बौद्धिक अड़ियलपन। इनकी अवसरवादिता का मिसाल 1974 का जेपी आंदोलन है। सोवियत रूस समर्थक भाकपा ने तब उस आंदोलन का विरोध करने के साथ ही जेपी को अमेरिकी एजेंट तक करार दिया था। माकपा और कांग्रेस के संबंधों से पर्दा तब उठ गया, जब 1980 में इंदिरा गांधी ने दोबारा सत्ता में लौटने के बाद कई राज्यों की सरकारों को तो बर्खास्त कर दिया। लेकिन माकपा के नेतृत्व वाली बंगाल और केरल सरकार को नहीं छेड़ा। इनकी अवसरवादिता का एक और नमूना देखिए, वर्ष 1997 में सीवान जिले में माले से जुड़े जेएनयू के छात्र नेता चंद्रशेखर की हत्या कर दी गई थी। यह हत्या अपराधी शहाबुद्दीन ने कराई, जो लालू प्रसाद के करीबी रहे। माले राजद को अपना दुश्मन नंबर एक कहता था। मगर 2020 के विधनसभा चुनाव में भाकपा, माकपा के साथ ही माले ने भी राजद और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन में चुनाव लड़ा। सोचिए, यही लोग भाजपा को नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं।
वामपंथी राग—मोदी विरोध
आजकल पार्टी का चुनाव चिन्ह देखकर आलोचना या प्रशंसा का दौर चल रहा है। माॅब लिचिंग किसे कहा जाएगा और उसे कितनी गंभीरता से लिया जाएगा, इसका फैसला इससे होगा कि करने वाला कौन है ? किसी सरकार की कामयाबी या नाकामी का फैसला इस बात से तय होगा कि सरकार किसकी है ? राजा-महाराजाओं के जमाने में दरबार में रत्न होते थे। जनतंत्र आने के बावजूद वह परंपरा खत्म नहीं हुई। इसलिए उन्हें सत्ता की संगत की आदत हो गई। अब आदत इतनी जल्दी कहां छूटती है।
2014 में मोदी सरकार सराकर बनने से पहले देश में एक ऐसा सुविधभोगी वर्ग था, जो वामपंथी विचारधारा की छत्राछाया में शैक्षणिक संस्थानों से लेकर अकादमिक जगत और विभिन्न पुरस्कारों तक में अपना वर्चस्व जमाए हुए था। विदेशी चंदे से पोषित यह वर्ग विदेशों के दौरे करता था और विभिन्न कार्यक्रमों में भारतीयता के विचारों को कमतर बताता था। लेकिन नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद भारतीय शासन व्यवस्था में देश के असली और जमीनी लोगों को जगह मिलने लगी। पद्म पुरस्कार दूरदराज के इलाकों और गांवों में मौजूद सुपात्र लोगों तक पहुंचने लगे। पुरस्कारों और सम्मानों से इस वर्ग का एकाधिकार खत्म होता गया। परिणामस्वरूप यह वर्ग हर हाल में सरकार के विरोध के अवसर तलाशता रहता है। आंदोलन जैसा भी हो, जिसका भी हो, जहां भी हो, यह वर्ग अपना तिरपाल तानकर वहां पहुंच ही जाता है। प्रधनमंत्री मोदी ने ठहरे हुए पानी में कंकड़ फेंका होता तो शायद यह इन लोगों की नजर में क्षम्य होता। मोदी ने तो पूरी चट्टान ही गिरा दी। विदेशी चंदे, देसी कम्युनिस्टों के बौद्धिक विध्वंस के सतत प्रयास, कांग्रेस और दूसरे कई दलों की सरकारों के संरक्षण से यह वर्ग आजादी के बाद से फलफूल रहा था। मोदी ने आते ही इनका धंधा और चौधराहट, दोनों खत्म कर दी। मोदी ने जीवन में जो कुछ हासिल किया है, वह इस मंडली की वजह से नहीं, बल्कि इसके बावजूद किया है। इसलिए वह इन बौद्धिक ठेकेदारों की परवाह नहीं करते। जैसे पौधे सूरज की रोशनी न मिलने से मुरझाने लगते हैं उसी तरह इस मंडली के सदस्यों को जब सत्ता की गर्माहट नहीं मिल रही है तो ये मुर्झा रहे हैं। साल 2014 में नहीं रोक पाए। साल 2017 में उत्तर प्रदेश में नहीं रोक पाए, फिर 2019 तो वज्रपात की तरह आया।
इस तरह के सभी प्रयासों के मूल में मुख्य रूप से इन बौद्धिक नरभक्षियों की तीन इच्छाएं छिपी हैं। एक, मोदी से जल्दी छुटकारा मिले। दो, मोदी के बाद अमित शाह न आने पाएं। तीन, मोदी, शाह और योगी एक-दूसरे को शक की निगाह से देखने लगें। दरअसल इन लोगों को कांग्रेस के जमाने से यही करने की आदत रही है। इन्हें पता नहीं है कि मोदी और शाह कोई इंदिरा गांधी, राजीव या सोनिया नहीं हैं। जिनकी नींद अपनी ही पार्टी के नेता के कद को लेकर उचटी रहती हो। मोदी और अमित शाह ने अपने साथियों और खासतौर से मुख्यमंत्रियों का कद बढ़ाने का खुद ही हरसंभव प्रयास किया है। पिछले सात सालों में पार्टी संगठन और सरकार में अपेक्षाकृत युवा लोगों को आगे बढ़ाया गया है। इसकी वजह यह है कि ये असुरक्षा की भावना से ग्रस्त नेता नहीं हैं। ये संघर्ष से निकल कर यहां तक पहुंचे हैं। उनकी ताकत लोगों का विश्वास और समर्थन है। ये इन षड़यंत्रों और बौद्धिक चालबाजियों के मायाजाल में फंसने वाले नहीं हैं। पर कोशिश करने वाले कहां मानते हैं। ये लाल सलामी वाले बेचारे खुद केरल और जेएनयू तक सिमट कर रह गये। पर नेता अपने को पूरे देश का मानते हैं। अपने को ही केवल समझदार मानने का इनका बालहठ इन को लगातार पतन की तरफ ले जा रहा है। पर जो सुधर जाये वो कामरेड कैसा। सरकारी आवभगत छिन जाने की छटपटाहट है इनमें।
मीडिया का पक्षपाती रवैया
मीडिया के एक वर्ग के तथाकथित बुद्धिजीवी ऐसे व्यवहार कर रहे हैं, जैसे कमजोर स्वास्थ्य ढांचे के लिए केवल केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है। जबकि लोक स्वास्थ्य राज्य के अधिकार क्षेत्र वाला विषय है। चूंकि कमजोर स्वास्थ्य ढांचे के लिए केंद्र और राज्य, दोनों बराबर के जिम्मेदार हैं। इसलिए आलोचना दोनों की होनी चाहिए। जब कोई किसी एक को बख्श देता है और दूसरे पर नजला गिराता है तो वह बेईमानी कर रहा होता है। इन दिनों इस बेईमानी का घनघोर प्रदर्शन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया का एक हिस्सा खूब कर रहा है। मीडिया का यह वर्ग स्वास्थ्य ढांचे और कोरोना से निपटने में लगे सरकारी अमले की कमियां उजागर करने के नाम पर सरकारों संग समाज का मनोबल गिराने में लगा हुआ है। इस तरह से देखें तो इस कठिन समय में भी राजनीति और पत्रकारिता, दोनों के बुनियादी उसूल ताक पर रख दिए गए हैं। टीवी पर एक तथाकथित स्वघोषित सत्यवादी पत्रकार उत्तर प्रदेश पर तो बात करते हैं परन्तु महाराष्ट्र पर उनकी जुबान को लकवा मार जाता है। बंगाल हिंसा पर इन महोदय की चुप्पी पक्षपात का शानदार नमूना है। पर साहेब की नजर में बाकी सब गलत है।
एक वरिष्ठ महिला पत्रकार बरखा दत्त ने तो श्मशान में ही स्टूडियो बना लिया। कथित पत्रकार राणा अयूब ने तो जलती चिताओं के दृश्य को शानदार तक बताया। राणा अयूब का नजरिया कटृटरपंथी इस्लामवाद वाला है। तो जाहिर तौर पर इस सरकार से उनकी नफरत प्राकृतिक है। आज के समय में रिपोर्टिंग के नाम पर कोरोना त्रासदी की मीडिया कवरेज में भय और वीभत्स रस परोसा जा रहा है। इस कवरेज में संवेदनशील और जिम्मेदारी का अभाव है। जिस विदेशी मीडिया ने अपने देश की कोरोना कवरेज में संयम बरता था, वह भारत में हो रही मौतों में एक विकृत तृप्ति ढूंढ रहा है।
आज भयंकर मानसिक त्रास से जूझ रहे जनमानस को ढांढस बंधाने की आवश्यकता है। घर-घर में कोरोना के मरीज और तीमारदारों पर निराशा की बारिश का क्या असर पड़ रहा होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। आपदा के समय धैर्य और गंभीरता का परिचय समाज के हर संस्थान की जिम्मेदारी है। बदनीयती, द्वेष और नकारात्मकता से पता नहीं यह लोग कौन सा हित साधना चाहते हैं।
अभिषेक कुमार
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