पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को मिली भारी जीत के लिए तो ममता बनर्जी को भी आत्मविश्वास नहीं था। दूसरे चरण के बाद भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस-वामपंथियों के मैदान छोड़कर तृणमूल को आगे करने की रणनीति ने असर जता दिया है। हालांकि ऐसा करके कांग्रेस ने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ अभियान को स्वयं ही समर्थन दे दिया
पश्चिम बंगाल के मतदाताओं ने अपने भाग्य का फैसला किया है। इसका पश्चिम बंगाल के मतदाताओं को पूर्ण अधिकार है। लोकतंत्र में मतदाताओं का निर्णय सर्वोच्च होता है।
लेकिन यह भी तय है कि अगर किसी राज्य के लोकतांत्रिक निर्णय को शेष देश खून का घूंट पीकर स्वीकार करता है, तो उस राज्य को पूरे देश के साथ कदमताल कर सकने लायक बनने में एक-दो दशक का समय लग जाता है। लालू प्रसाद भी बिहार में चुनाव जीतते थे, और देश आह भर कर उसे स्वीकार करता था। परिणाम आज सबके सामने है।
खैर, पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में दीदी को, या उनकी पार्टी को जो भारी जीत प्राप्त हुई है, उसकी पूर्व कल्पना या पूर्व अनुमान शायद ही किसी को रहा हो। सभी एग्जिट पोल, सभी राजनीतिक विश्लेषणों और जमीन से आती आवाजों को तो छोड़िए, खुद दीदी का आत्मविश्वास भी ऐसा नहीं था, जिससे अनुमान लगाया जा सकता हो कि वह इतनी बड़ी जीत प्राप्त करने जा रही हैं।
लेकिन यह अनुमान सभी को था कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट मिल कर भी दोनों में से किसी भी पक्ष के पासंग भी नहीं बन सकेंगे।
माने लड़ाई आमने-सामने की होगी।
माने दिल्ली विधानसभा चुनाव वाला मॉडल।
माने भाजपा की अप्रत्याशित हार, चाहे उसके पास कितने ही प्रतिशत वोट क्यों न हों।
माने एक परिपूर्ण रणनीति की ऐसी बिसात, जिसका कोई तोड़ नहीं था।
तोड़ इसलिए नहीं था, क्योंकि-डेमोग्राफी डेस्टिनी है। राज तो जनसंख्या करती है।
तोड़ इसलिए नहीं था, क्योंकि-दो वर्ष पूर्व 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और वाममोर्चा को 12 प्रतिशत वोट मिले थे। आज यह वोट प्रतिशत 7 दशमलव 63 है। लगभग आधा। लेकिन उनका यह वोट भाजपा को नहीं मिला है। बल्कि भाजपा को तो 2019 में जो 40 प्रतिशत वोट मिले थे, उनकी तुलना में इस बार लगभग 2 प्रतिशत कम वोट मिले हैं। मजेदार बात यह है कि तृणमूल कांग्रेस का मत प्रतिशत 2019 में मिले 43.3 प्रतिशत से लगभग 5-6 प्रतिशत ज्यादा हो गया है।
तारीफ करने लायक बात है। क्योंकि यह वोट शुद्ध राजनीतिक है। कोई और सोच समझ नहीं। किसी दृष्टि, नीति, सिद्धांत की जरूरत नहीं। किसी विकास की, न्याय की कोई दरकार नहीं और न गुंडागर्दी से बचाव की कोई जरूरत। सीधे कहें- तो कोई मुद्दा ही नहीं। जाहिर है, इसे भाजपा अपनी उस तरह की नैतिक जीत भी नहीं बता सकती है, जैसी नैतिक जीत हाल के समय में फैशन में रही है।
कोई शक नहीं कि इस लड़ाई में भाजपा ने अपने सारे साधन झोंक दिए थे। हौसला, इरादा, सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता मैदान में उतार दिए गए और न जाने कितने कार्यकतार्ओं को प्राण भी इस लड़ाई में गंवाने पड़े। ऐसे में यह हार भाजपा के लिए निश्चित एक भीषण क्षति है। लेकिन साथ ही तथ्य यह है कि यह एक ऐसी लड़ाई भी थी जिसे जीतने के लिए भाजपा इससे अधिक कुछ नहीं कर सकती थी।
वास्तव में बीच चुनाव में छद्म सहानुभूति कार्ड खेलने का विशेषाधिकार सिर्फ ममता बनर्जी के पास था। जब भी शक्तिशाली क्षेत्रीयतावादी कार्ड खेला जाता है, तो उसके आगे किसी राष्ट्रीय दल के पास कोई उपाय नहीं होता है। वह मात्र इस आधार पर ‘बाहरी दल’ हो जाता है कि वह अखिल भारतीय क्यों है। हालांकि सारे क्षेत्रीय दल खुद को अखिल भारतीय ही कहते हैं। लेकिन उसमें अंतर्निहित यह होता है कि धरती जिस धुरी पर घूमती है, उसकी लोकेशन उनकी क्षेत्रीय अस्मिता के अनुसार होती है। कोई अखिल भारतीय दल न उसे स्वीकार कर सकता है, न नकार सकता है।
और रणनीतिक वोटिंग। वह भी पांच करोड़ अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों के साथ। ‘बहुत बड़ी संख्या वाले’ ‘अल्पसंख्यक’ वोटबैंक की मौजूदगी हर किस्म के तुष्टिकरण को एक कारगर हथियार बना देती है, और इसका भी प्रतिकार कर सकना राजनीतिक तौर पर सहज नहीं होता है।
इच्छा मृत्यु की कांग्रेस की इच्छा पूरी करने के मतदाताओं के फैसले का भी सम्मान किया जाना चाहिए। वास्तव में यह चुनाव ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के आगमन की सूचना देने वाले हूटर की तरह है। यह सहज बात नहीं है। बात यह है कि पूरे देश में भाजपा या तो सत्ता में है, या विपक्ष में। कोई अखिल भारतीय पार्टी उनके सामने टक्कर में नहीं है।
फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि भाजपा के सामने खाली मैदान है। खास तौर पर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव का परिणाम इस बात का सबूत है कि भाजपा का जो भी शत्रु है, वह अदृश्य है, खुल कर सामने नहीं आता है, और उसके पास किसी भी ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री मनोनीत कर सकने की क्षमता है।
इसे ऐसे समझिए। हाल ही में देश भर में कोरोना की स्थिति को लेकर भारी विवाद हुआ। उसके पहले वैक्सीन का विरोध किया गया, उसकी उपलब्धता को संकट में डालने का प्रयास किया गया और उसके खिलाफ जमकर दुष्प्रचार किया गया। आर्थिक समझ की कमी किसी को भी वामपंथ की तरफ धकेल देती है, और इसी दौर में सोशल मीडिया पर यह ज्ञान बड़े पैमाने पर बांटा गया कि सरकार सड़क, कृषि, शिक्षा, सुरक्षा और यातायात तक पर खर्च करना बंद कर दे और अस्पताल खोले। बिना सड़क के अस्पताल क्या करेगा, या बिना शिक्षा के अस्पताल कैसे बनेगा- इन सवालों तक को शोर में दबा दिया गया। इस सारे टूल किट की अंत परिणिति को इस दिशा में मोड़ दिया गया कि भाजपा के और विशेषकर प्रधानमंत्री मोदी के चुनाव प्रचार के कारण ही यह स्थिति बन रही है।
क्षेत्रीयता और तुष्टिकरण के कार्ड की तरह, इसका भी प्रतिकार कर सकना राजनीतिक तौर जोखिम भरा हो गया।
इससे भाजपा विरोध के प्रयासों को राजनैतिक और धारणागत मैदानों में वह अवसर मिल गया, जिसके बिना उनके लिए चुनाव जीतना संभव नहीं था।
यह टूल किट किसने चलाया? किसी गलतफहमी की गुंजाइश नहीं है। तृणमूल कांग्रेस इसकी लाभार्थी जरूर रही, लेकिन ठीक वैसे ही जैसे कोई प्यादा आगे बढ़कर वजीर हो जाता है। लेकिन अंतत: वह होता एक प्यादा ही है। और वह कभी यह नहीं जान पाता है कि उसे वजीर किसने और क्यों बनाया है। वह वजीर बन कर ही प्रसन्न हो लेता है।
ममता जी मुख्यमंत्री बन ही जाएंगी, प्रसन्न भी रह सकेंगी, और प्लास्टर भी अब तो कटवा ही लेंगी- यह कामना की जानी चाहिए। बाकी तो 2 मई के बाद उनके मुख्यमंत्री बनने की स्थिति में विरोधियों का क्या होगा, इसकी धमकी तो उन्होंने खुलेआम दी ही थी। यह धमकी कितनी कारगर है, इसकी झलक चुनाव परिणाम सामने आने के बाद आरामबाग में भाजपा दफ्तर फूंक कर तृणमूल कार्यकर्ताओं ने दे ही दी है।
ज्ञानेंद्र बरतरिया
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