महामारी के इस भयावह दौर में प्रियजनों के वियोग की विचलित-विगलित करने वाली खबरों के बीच रंगकर्मी विमल लाठ जी की लोक यात्रा को भी विराम लग गया। यद्यपि वे पिछले दो महीने से गंभीर रूप से अस्वस्थ थे और दूसरी शारीरिक व्याधियों से पीड़ित थे, तथापि उनका होना आश्वस्ति प्रदान करता था। 21 अप्रैल, रामनवमी के दिन उनका गोलोकवास हुआ। अपनी अयोध्या केन्द्र्रित लंबी कविता में विमल जी ने कभी लिखा था-
‘रामलला का जयघोष/भारत माता की आरती है,
करोड़ों कंठों की आवाज/अरिदमन राम को पुकारती है।’ कह सकते हैं कि रामभक्त विमल लाठ, रामजी के चरणों में विलीन हो गए।
महामारी के विस्तार तथा काल के क्रूर प्रहार से सारे देश में उदासी एवं शोक का माहौल है। मन भारी है, कलम लाचार है। गीतकार रमानाथ अवस्थी के गीत की एक पंक्ति मन:स्थिति का बयान करने में सहायक बन रही है-
‘न जाने क्या लाचारी है, आज मन भारी-भारी है।’
प्रख्यात रंगकर्मी, सहृदय कवि, कुशल मंच-संचालक, प्रभावी वक्ता, कई सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रेरक-पोषक, राष्ट्रवाद के प्रखर-प्रवक्ता विमल लाठ का देहावसान एक ओर वेदना-व्यथित कर रहा है तो दूसरी ओर अतीत के उन प्रसंगों की सुखद-स्मृति भी करा रहा है, जो उनके सान्निध्य में व्यतीत हुए थे। 43 वर्ष पूर्व उनसे पहली मुलाकात ने मेरे जीवन को सार्थक एवं रचनात्मक दिशा देने में महती भूमिका का निर्वाह किया था। मुलाकात के प्रेरक बने थे श्रद्धेय गुरुवर प्रो. विष्णुकांत जी शास्त्री। एक स्थानीय पत्रिका में मेरे निराला केन्द्रित आलेख को पढ़कर उन्होंने अपना आशीर्वाद देते हुए ‘अनामिका’ संस्था से जुड़ने का मुझे प्रस्ताव दिया था और विमल लाठ से मिलने की सलाह दी थी। तब मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय में एमए (हिन्दी) का विद्यार्थी था। साहित्य के प्रति अपनी स्वाभाविक रुचि के कारण मैंने उसी दिन विमल जी से भेंट की और वहीं से मेरे सार्वजनिक जीवन की शुरुआत हो गई। विमल जी ने मुझे ‘अनामिका’ के साथ बड़ाबाजार पुस्तकालय से भी जोड़ा। परवर्ती काल में आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के आदेश, जुगल किशोर जी जैथलिया के आग्रह तथा विमल जी के परामर्श से मुझे श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय के दायित्वपूर्ण पदों पर काम करने का अवसर मिला।
इस दीर्घ अवधि में उन विभूतियों के संपर्क से बहुत कुछ सीखने-समझने का सहयोग प्राप्त हुआ। विमल जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विविध आयामों ने अलग-अलग क्षेत्र के लोगों को प्रेरित-प्रभावित किया। मेरे साथ उनका आरंभिक परिचय आत्मीयता में, फिर अंतरंगता में रूपांतरित होकर ऐसे धरातल पर पहुंचा, जहां वे वृहत्तर समाजिक परिवार के अपरिहार्य अंग बन गए।
उन्होंने कोलकाता की साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संस्थाओं के साथ अपनी कर्मठता एवं सक्रियता से जो व्यापक वृत्त निर्मित किया था उसमें साहित्यकार, कलाकार, संगीत प्रेमी, रंगकर्मी, समाजसेवी, उद्योगपति सभी समाहित थे। विभिन्न दायित्वपूर्ण पदों पर रहकर उन्होंने अनामिका, बड़ाबाजार पुस्तकालय, कुमारसभा पुस्तकालय, वनबंधु परिषद्, श्री हरि सत्संंग समिति, भारतीय संस्कृति संसद, विश्व हिंदू परिषद, संस्कार भारती, परिवार मिलन, आदि संस्थाओं को नई ऊंचाइयां प्रदान की थी। श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय में उनकी सक्रियता तथा परामर्श से ‘विवेकानंद सेवा सम्मान’ एवं ‘डॉ. हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान’ जैसे महत्वपूर्ण आयोजनों को आखिल भारतीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। कार्यक्रमों की परिकल्पना से लेकर क्रियान्वयन तक उनके परामर्श से पुस्तकालय लाभान्वित हुआ।
बड़ाबाजार पुस्तकालय के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने संस्था को जो उत्कर्ष प्रदान किया, वह रोखांकित करने योग्य है। वे भारतीय संस्कृति संसद के मंत्री भी रहे तथा संस्था की साहित्यिक सक्रियताओं को नवीन आयाम प्रदान किया। वनबंधु परिषद के संस्थापक मंत्री के रूप में उनका अवदान अविस्मरणीय है। एकल विद्यालय की परिकल्पना आज जिस गौरवशाली ऊंचाई पर है, उसके आरंभिक दौर में विमल लाठ की दूरदृष्टि एवं अनथक परिश्रम का बड़ा अवदान है।
संस्कार भारती पूर्वोत्तर के माध्यम से हिन्दुत्व जागरण का कार्य विमल जी के संयोजन में ही सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। 2006 ई. में ‘दृष्टि 2010’ की परिकल्पना रूपायित करने का उन्हें दायित्व मिला। कला एवं साहित्य के माध्यम से पूर्वोत्तर की चुनौतियों का सामना एवं समाधान करने का सत्संकल्प लेकर वे गतिशील हुए। उनके प्रयासों से नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, सिक्किम जैसे राज्यों में भारतीय संस्कृति की विचार संपदा का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। राजनीतिक बयान में बदलाव के पीछे इन कामों की बड़ी भूमिका है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निष्ठावान स्वयंसेवक विमल लाठ के हृदय में देशभक्ति का अजस्र स्रोत प्रवाहित था। उनके आचार-व्यवहार, चिन्तन-लेखन में प्रखर राष्ट्रीयता का भाव झलकता था। वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुखर प्रवक्ता थे। 1960 ई. में वे संघ के स्वयंसेवक बने तथा विविध कालखंड में उन्होंने विभिन्न जिम्मेदारियों का निर्वाह किया। वे कलकत्ता दक्षिण-पश्चिम भाग के संघचालक भी रहे।
भारत माता के प्रति अनन्त अनुराग के साथ वैचारिक दृढ़ता उनके व्यक्तित्व के अविभाज्य अंग थे। वे जिन संस्थओं से जुड़े, उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। संस्थाओं में लचीलेपन का आग्रह करने वाले व्यवहार कुशल लोगों ने उनकी दृढ़ता को हठ या जिद के रूप में भले ही देखा हो, परंतु विमल जी की ध्येयनिष्ठता कभी डिगी नहीं। उनका लक्ष्य स्पष्ट था- परम वैभव संपन्न राष्ट्र, जाग्रह हिन्दू समाज तथा राष्ट्रशिल्पी डॉ. हेडगेवार की विचार-संपदा का जन-जन में प्रसार।
विमलजी पर केन्द्र्रित एक कृति का शीर्षक ही है-लक्ष्य एक। साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े आम और खास व्यक्तियों से साक्षात्कार के माध्यम से विमल लाठ के जीवन और कार्य को प्रस्तुत किया है, लाठ जी के स्नेही कवि मित्र श्री गिरिधर राय ने। शिल्पगत नवीनता से संपन्न यह पुस्तक विमल जी को समझने में सहायक है। लगभग 3 वर्षों के कठिन परिश्रम से गिरिधर जी ने इसको प्रस्तुत कर बहुआयामी व्यक्तित्व से संपन्न लाठ जी के अंतरंग पक्षों का अवलोकन किया है। समाज की भावी पीढ़ी एवं युवा कार्यकर्ताओं के लिए यह कृति अवश्य पठनीय है।
विमल जी का जन्म 4 अगस्त, 1942 को मंडावा (राजस्थान) के पैतृक गांव में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता में ही हुई। एम. कॉम, एलएलबी करने के उपरांत वे शिपिंग का पैतृक व्यवसाय संभालने लगे। नाटकों के प्रति अभिरुचि के कारण वे 1955 में रंगमंच के प्रति आकृष्ट हुए और महानगर की स्वनामधन्य नाट्य संस्था ‘अनामिका’ के नाटकों में अभिनय-निर्देशन-लेखन आदि किया। नाट्योत्सव तथा कार्यशालाओं के आयोजनों एवं विचार-गोष्ठियों के कारण उन्हें अखिल भारतीय कीर्ति मिली। नाट्य क्षेत्र में सक्रिय देश की शीर्ष हस्तियों के साथ उनका संबंध विकसित हुआ। ‘अनामिका’ द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका नाट्यवार्ता के वे संपादक भी रहे। इस पत्रिका के कई विशेषांकों ने अपनी संग्रहणीय सामग्री के कारण सारे देश में यश अर्जित किया। प्रोफेसर विष्णुकांत शास्त्री तथा प्रतिष्ठित रंगकर्मी डॉ. प्रतिभा अग्रवाल का स्नेह-सान्निध्य उन्हें इस संस्था में सहज सुलभ था। लाठ जी कई वर्षों तक ‘अनामिका’ के अध्यक्ष भी रहे।
रंगमंच से अर्जित अनुभव एवं ज्ञान के माध्यम से वे साहित्य की अन्य विधाओं में नए-नए प्रयोग करने के आग्रही रहे। कहानी मंचन, कविता-मंचन, काव्य यामिनी, गजलों की सांगीतिक अभिनयात्मक प्रस्तुति तथा नृत्यन-नाटिकाओं के द्वारा भी लोगों का ध्यान विमल जी की नवनवोन्मेष शालिनी प्रतिभा की ओर आकृष्ट हुआ। बंधी-बंधाई लीक से हटकर नवीन भंगिमा के साथ कार्य करने के उनके रचनाशील मन को साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में भी स्नेह-सादर प्राप्त हुआ। उनके प्रिय कवि सर्वेश्वर की प्रक्तियां याद आ रही है-
‘लीक पर वे चलें, जिनके चरण, दुर्बल और हारे हैं।
हमें तो, जो हमारी यात्रा से बने, ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।।’
विमल लाठ की प्रकाशित कृतियां हैं-साकार होता सपना (नाटक), अंतस (कविताएं), खुली किताब (नाटक)। अयोध्या आंदोलन जब चरम पर था, उस कालखंड में देश के प्रमुख कवियों की अयोध्या केन्द्र्रित कविताओं का विमल जी ने संपादन किया था। ‘फिर से बनी अयोध्या योध्या’ पुस्तक का प्रकाशन श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकाता ने किया था। उन्होंने ‘नाट्यशास्त्र’ की प्रासंगिकता शीर्षक ग्रंथ का संपादन भी किया था। रंगमंच के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय अवदान को मान देते हुए उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी का बीएम शाह सम्मान तथा मध्य प्रदेश सरकार का राष्ट्रीय कालिदास सम्मान उन्हें प्राप्त हुआ था।
विमल जी की नाट्य कृति ‘साकार होता सपना’ के नायक चाणक्य हैं। इस पुस्तक में आधुनिक संदर्भ में चाणक्य की अर्थवत्ता प्रमाणित की गई है। ‘खुली किताब’ (नाटक) को उन्हों ने स्वयं ‘जिन्दगी का नाटक’ कहा है। इस नाटक में संवादों के बीच कहीं-कहीं कविताओं का समावेश विमल जी के कवि मन की उद्विग्नता को व्यक्त करता है। कविताओं से ऊर्जा एवं रस प्राप्त करने वाले विमल जी स्वयं भी सुकवि थे। ‘अंतस’ काव्य-कृति की ‘कविता’ शीर्षक रचना में वे कहते हैं-‘कविता अनुशासन है/अंतस की गहराई है/विस्मिल्ला की शहनाई है।’
राष्ट्रभाषा हिन्दी को दरकिनार कर अंग्रेजी के प्रति बढ़ती ललक से कवि क्षुब्ध होता है। सीधी-सपाट शब्दावली में वह कह उठता है- ‘अंग्रेजी में ही रोना है, गाना है/ अंग्रेजी ओढ़ना है, बिछौना है/ सदियों का बोझ है, ढोना है।’
अहंकार से ग्रस्त एवं आत्ममुग्धता के शिकार व्यक्तियों से विमल जी की संगति नहीं बैठती थी। अपनी एक त्रिपदी में उन्होंने ऐसे लोगों का आकलन करते हुए लिखा है- ‘मैं, मैं और मैं/ कितना बड़ा भूगोल है/ अंदर सारा पोल है।’
मंच-संचालन के क्षेत्र में विमल लाठ जी को महारत हासिल था। संतुलित भाषा, स्पष्ट उच्चारण, उपयुक्त काव्य पंक्तियों का समावेश और इन सबके साथ सधी हुई वाणी। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि लोग विमल जी के संचालन के प्रति भी आकृष्ट होकर कार्यक्रम में उपस्थित होते थे। आयोजनों को उद्देश्यपूर्ण बनाने हेतु मंच की पृष्ठभूमि में लगे बैनर की भी अपनी अर्थवत्ता होती है, इसकी प्रतीति विमलजी को थी। उसी के अनुरूप गंभीर चिंतन एवं गहन परिश्रम से वे बैनर बनाने वाले कलाकार को परामर्श देते थे। कुमारसभा पुस्तकालय या विमल जी से जुड़ी संस्थाओं में मंच-संचालन के दौरान उनका कड़ा अनुशासन अविस्मरणीय है। कार्यक्रम के अथ से इति तक के प्रत्येक क्षण की योजना उनके पास रहती थी और उसके सुव्यवस्थित पालन के लिए वे किसी प्रकार का समझौता नहीं करते थे। मंच पर अवांछित व्यक्तियों की आवाजाही या वजह-बेवजह परामर्श उन्हें बर्दाश्त नहीं था। कार्यक्रम ठीक समय से प्रारंभ हो, इसके लिए उन्होंने जो कठोर नियम बनाए थे, उनका पालन आज भी विमल जी से जुड़ी संस्थाओं में हो रहा है। समय-निष्ठा के पालन हेतु बड़े से बड़े पद-प्रतिष्ठा वालों के विलंब को भी बेहिचक अस्वीकार कर देने में वे संकोच नहीं करते थे।
बेबाकी विमल लाठ
बेबाकी से जो कहा- बढ़ी उसी से शान
हिन्दू हिन्दी हिन्द का- विमल ने रखा मान
विमल ने रखा मान, काम कुछ ऐसा ठाना
नाटक सेवा संघ, सदा सर्वोपरि माना
कहते गिरिधर राय- काम ना छोड़ा बाकी
ठान लिया जो किया, रहा सबसे बेबाकी
-गिरिधर राय (विमल लाठ पर केन्द्रित पुस्तक ‘लक्ष्य एक’ के लेखक)
विमल जी का देहावसान साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक क्षेत्र के निष्ठावान साधक का अवसान है। उनका अभाव हमें लंबे समय तक सालता रहेगा। गजलकार जहीर कुरैशी की पंक्तियां हैं-
सबकी आंखों में नीर छोड़ गए,
जाने वाले शरीर छोड़ गए।
राह भी याद रख नहीं पाई,
क्या, कहां, राहगीर छोड़ गए।।
परंतु विमल जी ने अपनी सार्थक एवं उद्देश्यपूर्ण लोक यात्रा में जो मुकाम हासिल किया, वह अविस्मरणीय तो है ही, प्रेरक एवं अनुकरणीय भी है। अपनी कीर्ति एवं कृतियों में वे जीवित रहेंगे। अपनी प्रिय संस्थाओं के माध्यम से वे सदैव याद किए जाएंगे। सलाह है, विमल जी के अनन्य बंधु कवि नवल की-
रमता आंसू पोंछ ले, यहां न आंसू काम।
अंसुवन में तो जग मुआ, जीवन हंसता राम।।
राम-कृपा संधान है, राम कृपा है ध्यान।
एकनिष्ठ जब मैं हुआ, सब तो राम समान।।
विमल जी को मेरी भावपूर्ण श्रद्धांजलि।
डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी
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