गत 28 अप्रैल को दिल्ली में ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (संशोधन) अधिनियम 2021’ लागू हो गया। अब दिल्ली में ‘सरकार’ का मतलब है उपराज्यपाल। इससे उन केजरीवाल की मनमानी पर लगाम लगेगी, जो दिल्ली में स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने के बजाए अपनी राजनीति चमकाने के लिए हर महीने 116 करोड़ रु. से अधिक का विज्ञापन मीडिया को देते हैं
इन दिनों दिल्ली में कोरोना से हर चार मिनट पर एक व्यक्ति की मौत हो रही है। किसी को कोरोना है या नहीं, यह पता लगाने के लिए ‘टेस्टिंग’ तक नहीं हो पा रही है, जो कोरोना के खिलाफ लड़ाई का पहला मोर्चा है। यानी पहले ही मोर्चे पर दिल्ली कोरोना के खिलाफ लड़ाई हार रही है। कोरोना के खिलाफ लड़ाई में दिल्ली सरकार पहली बार विफल नहीं हुई है। इसके पहले पिछले साल जून में और फिर सितंबर में अरविंद केजरीवाल हथियार डाल चुके हैं और केंद्रीय गृह मंत्रालय को स्थिति संभालने के लिए आगे आना पड़ा था। कोरोना के मौजूदा संदर्भ में दिल्ली में ‘सरकार’ को साफ करने के लिए संविधान में किए गए संशोधन को देखना अहम होगा। इससे दिल्लीवासियों को कोरोना संकट से फौरी तौर पर राहत भले ही न मिले, लेकिन लंबे समय से चली आ रही उसकी दुश्वारियों से निजात का रास्ता जरूर साफ हो जाएगा। दिल्ली की गरीब जनता के लिए सबसे निचले स्तर पर स्वास्थ्य, शिक्षा और सफाई की जिम्मेदारी संभालने वाले दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) को पंगु बनाने की साजिश पर विराम लगेगा और आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री शहरी आवास योजना जैसी कई केंद्रीय योजनाओं का लाभ भी मिलने लगेगा, जिन्हें केजरीवाल सरकार दिल्ली की जनता तक पहुंचने नहीं दे रही थी।
केंद्र शासित प्रदेश होने के बावजूद 1993 में दिल्ली को राज्य का दर्जा देने और विधानसभा गठित करने के पीछे उद्देश्य यह था कि जनता की चुनी हुई सरकार उनकी रोजमर्रा की समस्याओं पर विशेष ध्यान देगी और उन्हें दूर करने का प्रयास भी करेगी। मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और बाद में 15 साल तक शीला दीक्षित की सरकार काफी हद इस कसौटी पर खरी भी उतरी। लेकिन 1993 में नीति निर्माताओं को इस बात यह अहसास नहीं था कि 2014 में दिल्ली में एक ऐसी भी सरकार आ जाएगी, जिसका काम दिल्ली के विकास और आम लोगों की समस्याओं को दूर करने के बजाय सिर्फ लोगों को गुमराह करना होगा। यहां तक कि दिल्ली जैसे छोटे राज्य के सीमित संसाधनों का उपयोग अपने नेता की अखिल भारतीय छवि तैयार करने में की जाएगी। दिल्ली समेत देशभर के अखबारों और न्यूज चैनलों पर चलने वाले विज्ञापनों पर दिल्ली सरकार सालाना 1,400 करोड़ रु. से अधिक खर्च कर देती है। इन विज्ञापनों का दो तरह से इस्तेमाल किया जाता है। एक तो ये सीधे तौर पर केजरीवाल का व्यक्तित्व चमकाने का काम करते हैं, वहीं दूसरी ओर विज्ञापन लेने वाला मीडिया दिल्ली सरकार की नाकामियों की खबरें छापने से परहेज करता है। यानी दिल्ली सरकार की वास्तविक स्थिति जनता को पता नहीं चलता है। वहीं इन विज्ञापनों का इस्तेमाल उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और गोवा जैसे राज्यों में आम आदमी पार्टी (आआपा) को बढ़ावा देने में किया जाता है। पिछले साल उत्तराखंड में कुछ अखबारों को पूरे-पूरे पृष्ठ के दिल्ली सरकार के विज्ञापन जारी किए गए, लेकिन वहां के एक बहुत बड़े अखबार को यह नहीं दिया गया। जब अखबार ने इसकी वजह जाननी चाही, तो चौंकाने वाली बात सामने आई। अखबार को बताया कि उत्तराखंड में आआपा नेताओं के दौरे और बयानों को आपके यहां बहुत कम जगह दी जाती है। अखबार ने सफाई दी कि उत्तराखंड में आआपा का कोई जनाधार नहीं है, इसीलिए उनकी खबरों को अनावश्यक तरजीह नहीं दी गई। बाद में यह तय हुआ कि पहले अखबार आआपा नेताओं और केजरीवाल के बयानों को प्रमुखता से प्रकाशित करेगा, तभी विज्ञापन दिए जाएंगे। दिल्ली के संसाधनों का ऐसा दुरुपयोग पहले कभी नहीं देखा गया था।
विज्ञापनों पर लग सकती है रोक
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र सरकार कानून में संशोधन से केजरीवाल का विज्ञापन वाला हथियार भले ही पूरी तरह समाप्त नहीं हो, लेकिन कमजोर जरूर हो सकता है। अभी तक इन विज्ञापनों पर रोक लगाने का अधिकार किसी के पास नहीं था। अब नीतिगत मामले में उपराज्यपाल की अनुमति की शर्त के कारण राज्य सरकार को सैकड़ों करोड़ रुपए सालाना की प्रचार नीति को भी उपराज्यपाल के सामने सही ठहराना होगा। यदि उपराज्यपाल संतुष्ट नहीं हुए तो विज्ञापन विभाग के बजट में कटौती का आदेश दे सकते हैं।
सुधरेगी एमसीडी की हालत
शायद दिल्ली दुनिया की पहली ऐसी राजधानी है, जहां कोरोना काल में भी डॉक्टरों को अपने वेतन के लिए हड़ताल पर जाना पड़ा हो। दिल्ली में स्वास्थ्य के मौजूदा संकट को इससे जोड़कर देखना जरूरी है। दरअसल, दिल्ली में गरीब तबकों के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा की मूल जिम्मेदारी एमसीडी संभालती आई है। छोटी-छोटी डिस्पेंसरियों से लेकर बाड़ा हिंदू राव अस्पताल तक दिल्ली नगर निगम आम लोगों को मुफ्त और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने का काम करता है। लेकिन दिल्ली सरकार ने नगर निगमों का पैसा रोककर उन्हें पंगु बना दिया। स्वास्थ्य व सफाईकर्मी जैसे ‘फ्रंटलाइन वारियर्स’ का मनोबल तोड़कर कोरोना के खिलाफ जंग जीतने का सपना देखना बेमानी है। यह हालात तब है जब एमसीडी को दिल्ली सरकार से पैसा हासिल करने का संवैधानिक अधिकार है, जिससे उसे वंचित नहीं किया जा सकता है। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही पंचायतों और नगर निकायों को धन की व्यवस्था कर दी गई और वित्तीय आयोग ने इसे ठोस आधार भी दे दिया है। इसके बावजूद दिल्ली सरकार नगर निगमों को इस संवैधानिक अधिकार से वंचित करती रही और विज्ञापन लेने वाले मीडिया घराने इस मुद्दे पर दिल्ली सरकार को घेरने से परहेज करते रहे। उल्टे इसके लिए नगर निगमों को ही जिम्मेदार ठहराने की भी कोशिश की।
एमसीडी का पैसा रोकने के पीछे केजरीवाल सरकार का राजनीतिक उद्देश्य भाजपा शासित नगर निगमों को नकारा साबित कर 2022 में होने वाले नगर निगम के चुनाव में आआपा को विजय दिलाना है। राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरी करने के लिए आम जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने का यह अपने आप में अनोखा उदाहरण है। दिल्ली सरकार ने न सिर्फ नगर निगमों का पैसा रोककर उसे पंगु बनाने की कोशिश की, बल्कि सुशासन के नए मॉडल के रूप में मोहल्ला क्लीनिक को सामने रखा। लेकिन आज कोई सवाल पूछने वाला नहीं है कि तमाम सीमाओं के बावजूद नगर निगम कोरोना के खिलाफ लड़ाई में अग्रिम कतार में खड़ा है, वहीं मोहल्ला क्लीनिक का कहीं अता-पता नहीं है। मोहल्ला क्लीनिक का गुणगान करने वाले बुद्धिजीवी और मीडिया कोरोना काल में उसकी विलुप्तता पर चुप्पी साधे बैठे हैं।
कोरोना के खिलाफ लड़ाई में स्वास्थ्य सेवाएं तो अहम हैं कि साफ-सफाई और आधारभूत सुविधाओं का भी कम महत्व नहीं है। पैसे रोके जाने से ये सारे काम बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। समय-समय पर निगमकर्मियों की हड़ताल के कारण पूर्वी और उत्तरी दिल्ली में गंदगी और कूड़े के ढेर भी देखे जाते रहे हैं। पर समस्या यही रही कि मीडिया इसके लिए दिल्ली सरकार के बजाय एमसीडी को ही जिम्मेदार ठहराने की कोशिश करती रही।
नई व्यवस्था में वित्त आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह से लागू करने की जिम्मेदारी उपराज्यपाल को दे दी गई है। इसके तहत उपराज्यपाल केजरीवाल सरकार को एमसीडी का पैसा जारी करने का निर्देश दे सकते हैं, जिसे मानने की मजबूरी भी होगी। यही नहीं, कुछ जानकारों का यहां तक कहना है कि उपराज्यपाल यदि चाहें तो पिछले सात साल से एमसीडी की बकाया रकम का भुगतान करने को भी कह सकते हैं। यदि ऐसा हुआ तो 2022 के चुनाव के पहले नगर निगमों के पास पर्याप्त पैसा आ सकता है, जो एमसीडी पर कब्जे की केजरीवाल के मंसूबों पर पानी भी फेर सकता है। जाहिर है इसे रोकने के लिए आआपा एड़ी-चोटी का जोर लगाएगी।
दिल्ली का गरीब हो सकता है आयुष्मान
जहां देशभर के करोड़ों गरीब परिवारों को आयुष्मान भारत योजना के तहत सालाना 5,00,000 रु. तक का मुफ्त और ‘कैशलेस’ इलाज की सुविधा मिल रही है, वहीं राजधानी दिल्ली की गरीब जनता इससे पूरी तरह से वंचित है। इस योजना को दिल्ली में नहीं आने देने के लिए केजरीवाल सरकार कोई स्वीकार्य तर्क देने में भी पूरी तरह विफल रही है। यही हाल प्रधानमंत्री शहरी आवास योजना जैसी केंद्र सरकार की अन्य योजनाओं का भी रहा है। यहां तक कि पहले से चल रही केंद्रीय योजनाओं को भी केजरीवाल सरकार ने राजनीतिक रंग देने की कोशिश की। दिल्ली में पीडीएस के तहत गरीबों को मुफ्त में राशन देने की योजना इसका उदाहरण है। पूरी तरह से केंद्र सरकार के पैसे से चलने वाली इस योजना को केजरीवाल सरकार ने घर-घर पहुंचाने के नाम पर अपने नाम पर करने की साजिश की। जब केंद्र सरकार की ओर से आपत्ति की गई, तो उस पर जनविरोधी और गरीब विरोधी होने के आरोप लगाने लगे। जबकि हकीकत यह है कि देश के बड़े-बड़े राज्य अपने ‘पीडीएस प्रणाली’ को बायोमैट्रिक प्रणाली से जोड़ चुका है। ‘एक देश-एक राशन कार्ड’ के तहत केंद्र सरकार ने किसी भी राज्य के गरीब के लिए पूरे देश में राशन का प्रावधान कर दिया है। कई राज्य इसे पूरी तरह लागू कर चुके हैं, लेकिन केजरीवाल सरकार पीडीएस प्रणाली को बायोमैट्रिक करने के लिए तैयार नहीं है। ध्यान देने की बात है कि पीडीएस प्रणाली को ‘डिजिटल’ करने और उसे बायोमैट्रिक से जोड़ने से देश में अभी तक लगभग चार करोड़ फर्जी राशन कार्ड पकड़े जा चुके हैं और इससे सरकार को सालाना हजारों करोड़ रुपए की बचत हुई है। घर-घर राशन पहुंचाने, लेकिन बायोमैट्रिक लागू नहीं करने से केजरीवाल सरकार के मन में मौजूद खोट को साफ समझा जा सकता है।
नई व्यवस्था में उपराज्यपाल केंद्र सरकार की योजनाओं को दिल्ली में पूरी तरह से लागू करने का निर्देश दे सकते हैं। इससे गरीबों को घर, मुफ्त इलाज और भ्रष्टाचार रहित सस्ता राशन मिलने का रास्ता साफ होगा।
नहीं चलेगी तुष्टीकरण की नीति
वैसे तो दिल्ली में सत्ता में आने के बाद से ही केजरीवाल खुलेआम मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर चल पड़े थे और हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने से भी संकोच नहीं करते थे। दिल्ली में मौलवी-मौलानाओं को हर महीने की आर्थिक मदद इसका ज्वलंत उदाहरण है। यहां तक कि मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ और ‘एयर स्ट्राइक’ पर सबसे पहले ऊंगली उठाने वालों में केजरीवाल थे। लेकिन 2019 के चुनाव में भाजपा की भारी जीत ने केजरीवाल को अपना पैंतरा बदलने पर मजबूर कर दिया और चुनाव आते-आते वे हनुमान चालीसा पढ़ते नजर आए। यह अलग बात है कि सीएए के खिलाफ आंदोलन को हवा देना बंद नहीं किया। पहले के खुलेआम मुस्लिम तुष्टीकरण के बजाय अब परोक्ष तुष्टीकरण ने ले लिया। दिल्ली के दंगों में आप पार्षद ताहिर हुसैन की साजिश साबित होने और बड़ी संख्या में दंगाइयों की गिरफ्तारी के बाद केजरीवाल सरकार ने पीछे दरवाजे से उनकी मदद करने की कोशिश की। दिल्ली सरकार की शक्तियों का हवाला देकर उन्होंने दिल्ली पुलिस के आरोपपत्र के बावजूद अपना वकील नियुक्त करने की कोशिश की। यह अलग बात है कि दिल्ली पुलिस ने अदालत में पैरवी कर आरोपियों को बचाने की केजरीवाल सरकार की साजिश को सफल नहीं होने दिया।
नई व्यवस्था में उपराज्यपाल के पास केजरीवाल सरकार की ऐसी किसी भी नापाक साजिश को रोकने का संवैधानिक दायित्व होगा।
महत्वाकांक्षा पर लगेगी लगाम
दिल्ली की सत्ता में आने के दिन से ही केजरीवाल छोटी सोच के साथ बड़ी महत्वाकांक्षाओं के काम करते नजर आए हैं। सत्ता में आते ही उन्होंने दिल्ली पुलिस की भ्रष्टाचार निरोधक इकाई को कब्जे में लेने की कोशिश और मुकेश अंबानी समेत बड़े-बड़े लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर जांच का नाटक शुरू किया। वैसे उनकी ये सारी कोशिश विफल रही, लेकिन इससे न तो उनकी सोच बदली और न ही महत्वाकांक्षा।
पहले कार्यकाल में भारतीय उद्योगपतियों को डराने की कोशिश करने वाले केजरीवाल ने इस बार अंतरराष्ट्रीय बहराष्ट्रीय कंपनियों को निशाने पर लिया। अपनी सरकार की सीमाओं को देखते हुए उन्होंने इस बार विधानसभा की समितियों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। दिल्ली विधानसभा की एक ऐसी ही समिति ने फेसबुक के सीईओ तक को समन भेजकर हाजिर होने का फरमान जारी कर दिया। विधानसभा और उसकी समितियों के न्यायिक अधिकारों को देखते हुए फेसबुक को इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जाना पड़ा। ऐसा नहीं है कि दिल्ली विधानसभा की समिति के पास किसी को सजा देने का असीमित अधिकार हो, लेकिन फेसबुक समेत अन्य विभागों के अधिकारियों को बुलाकर बेवजह परेशान करने का उद्देश्य सिर्फ अपनी ताकत दिखाना है।
नए संशोधनों के बाद इन समितियों के गठन से लेकर विधानसभा में पारित सभी प्रस्तावों को उपराज्यपाल की निगरानी के दायरे में ला दिया है। इससे दिल्ली विधानसभा के अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर कुछ भी पारित करने की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी।
राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहेगी शिक्षा
केजरीवाल सरकार न सिर्फ राजनीतिक हित साधने के लिए दिल्ली की जनता को स्वास्थ्य और आधारभूत सुविधाओं से वंचित करने का काम करती रही, बल्कि बच्चों की शिक्षा का भी राजनीतिकरण कर दिया। नगर निगमों के पैसे रोके जाने से उसके स्कूल बुरी तरह प्रभावित हुए, जबकि उसमें शिक्षा पाने वाले अधिकांश बच्चे गरीब परिवारों से आते हैं। नगर निगम के स्कूलों की कीमत पर केजरीवाल सरकार ने दिल्ली सरकार के स्कूलों को नए शिक्षा मॉडल के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की और मीडिया के माध्यम से उसका व्यापक प्रचार-प्रसार भी किया, लेकिन उन सुधारों और उनके परिणाम के बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं है। शिक्षा में सुधार के प्रचार के सकारात्मक परिणाम को देखते हुए केजरीवाल सरकार ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए दिल्ली के लिए अपना नया बोर्ड बनाने का ऐलान कर दिया। अभी तक दिल्ली सरकार के स्कूल सीबीएसई के तहत आते हैं और उनमें एनसीईआरटी की पाठ्य-पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं। नया बोर्ड बनाने के पीछे केजरीवाल सरकार का उद्देश्य अपनी राजनीतिक सोच के तहत पाठ्य-पुस्तकें तैयार करना, उनका महिमामंडन करने वाले शिक्षाविदों को पुस्तक लिखने से लेकर नए बोर्ड में जगह प्रदान करना शामिल है। यही नहीं, केजरीवाल सरकार के लिए दिल्ली के निजी स्कूलों को भी नए बोर्ड से जुड़ने के लिए दबाव बनाने का रास्ता खुल जाता। समस्या यह थी कि मौजूदा व्यवस्था में शिक्षा को राजनीति का हथियार बनाने की कोशिश को रोकने का कोई वैधानिक प्रावधान नहीं है। नए संशोधन के बाद उपराज्यपाल के पास दिल्ली सरकार की शिक्षा नीति की उपयोगिता की परख करने और उनके अनुरूप निर्देश देने का अधिकार होगा। इससे शिक्षा के राजनीतिकरण के केजरीवाल सरकार के मंसूबों पर लगाम लगेगी।
दिल्ली में केजरीवाल सरकार के काम करने के तौर-तरीकों पर नजर रखने वाले एक बड़े अखबार के संपादक ने कहा कि जिस तरह से आआपा के नेता झूठ, फरेब और साजिश को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं उसका देश में कोई सानी नहीं है। उन्होंने दिल्ली में आआपा और केजरीवाल सरकार की तुलना श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘रागदरबारी’ से की। उनके अनुसार ‘रागदरबारी’ के पात्र जिस तरह से छोटे-छोटे लाभ के लिए सभी तरह के धतकर्म करते थे, आआपा के नेता भी वैसा ही कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि आआपा और केजरीवाल सरकार में ‘रागदरबारी’ के सभी पात्र देखने को मिल जाएंगे।
भावना चौधरी
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