असम में कांग्रेस को एक बार फिर से हार का सामना करना पड़ा। उसने बदरुद्दीन अजमल के साथ मिलकर सीएए और एनआरसी को मुस्लिम-विरोधी बताते हुए चुनाव को सांप्रदायिक रूप देने की भरपूर कोशिश की, लेकिन मतदाताओं ने भाजपा के विकास मंत्र पर भरोसा जताते हुए उसे लगातार दूसरी बार सत्ता सौंपी
जैसा कि पहले से अनुमान लगाया जा रहा था, जैसी चर्चा सर्वेक्षणों से लेकर राजनीतिक गलियारों तक में आम थी, असम में वैसा ही हुआ। भारतीय जनता पार्टी दोबारा सत्ता में आई। इस समाचार के लिखे जाने तक भाजपानीत गठबंधन (मित्रजोट) को राज्य में कुल 126 में से 79 सीटों पर बढ़त थी।
वैसे असम में सरकारों का दुहराने का इतिहास तो पुराना रहा है, किंतु यह पहली बार होगा जब कोई गैर-कांग्रेसी दल की ताजपोशी लगातार दूसरी बार होगी। असम गण परिषद के प्रफुल्ल कुमार महंत दो कार्यकाल में मुख्यमंत्री अवश्य रहे, लेकिन उनके दोनों कार्यकालों के बीच एक कार्यकाल कांग्रेस का रहा था। सर्वानंद सोनोवाल से पहले लगातार 15 वर्ष तक तरुण गोगोई के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। इस बार भाजपा को पुन: सत्ता दिलाकर उन्होंने इतिहास रच दिया है। पूरे देशभर के राजनीतिक विश्लेषकों के लिए यह अध्ययन का एक अच्छा बिंदु बनकर उभरा है। इस जीत के कई मायने हैं। सबसे बड़ा यह कि इस चुनाव ने जाति-संप्रदाय के ध्रुवीकरण के राजनीतिक माहौल में भी विकास के एजेंडे को मजबूती से स्थापित हो पाने की संभावनाओं को बल दिया है।
असम जैसे बहु-सांस्कृतिक, बहु-सांप्रदायिक, बहुभाषी राज्य में किसी एक पार्टी को पूरे राज्य में एक जैसा समर्थन मिलने के लिए एक ऐसा सूत्र आवश्यक था जो सभी समुदायों को समान रूप से प्रभावति करे। भाजपा नेतृत्व ने वह सूत्र खोजा विकास के रूप में। इसमें कोई शक नहीं कि विकास की दौड़ में पूरा का पूरा पूर्वोत्तर पीछे छूटा हुआ था। अभी भी शेष भारत के साथ इसकी बराबरी नहीं है। असम का भी हाल कमोबेश पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों जैसा ही था। भाजपा ने 2014 में केंद्र और 2016 में राज्य की कमान मिलने के बाद सर्वोच्च प्राथमिकता विकास, खासकर, ढांचागत सुविधाओं को दी। इसने सभी समुदायों के बीच भाजपा के प्रति विश्वास जगाया। साथ ही, महिलाओं, जनजातियों, चाय श्रमिकों और अत्यंत निर्धन समुदायों के लिए विविध योजनाओं ने इन समुदायों को पार्टी से जोड़ने और विश्वास बनाए रखने का काम किया। ‘कनकलता’, ‘अरुणोदय’, ‘कल्पतरु’, ‘धन पुरस्कार मेला’ जैसी योजनाओं ने भाजपा को सत्ता में वापस लाने में बड़ी भूमिका निभाई। योजनाओं का भ्रष्टाचारमुक्त कार्यान्वयन वर्तमान नेतृत्व के प्रति आमजन का विश्वास गहराने की एक खास वजह रही। इन सबके साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा, केंद्र की नीतियां और केंद्र राज संतुलन जैसे मुद्दे भी अहम भूमिका में रहे।
पूरे चुनाव में भाजपानीत गठबंधन ने विकास के एजेंडे को आगे रखा और इस मोर्चे पर विपक्षी कभी भी उससे नजर मिलाने में कामयाब हो नहीं सके। राजनीतिक पंडित यह मान रहे हैं कि इस बढ़त ने भाजपा को शुरुआत से ही सुरक्षित स्थिति में पहुंचा दिया। कांग्रेस को पता था कि वह इस मोर्चे पर मुकाबला कर नहीं सकेगी। इसलिए उसने विकासमूलक मुद्दों को पीछे रखा और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को मजहबी चश्मे में उतारकर गोलबंदी की नाकाम कोशिश की। इस कारण भी अंतिम चरण आते-आते कांग्रेस नीत महाजोट के मजहबी खेमे की छटपटाहट बढ़ती गई जिसकी परिणति में एआईयूडीएफ नेता बदरुद्दीन अजमल के बेटे अब्दुर रहीम अजमल लुंगी-टोपी की सरकार बनाने का दावा करते नजर आए।
35 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाले असम में चुनाव की घोषणा के पहले से ही सीएए और राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) को केंद्र में रखकर भाजपा के विरुद्ध देशव्यापी माहौल बनाने के प्रयास चल रहे थे, लेकिन असम के बाहर के बहुत कम लोगों को यह पता है कि सीएए और एनआरसी दो परस्पर विरोधाभासी संवेदनाओं पर आधारित विषय हैं। भाजपा ने यह दोहरा जोखिम लेकर दोनों पर ही मजबूती के साथ कदम बढ़ाया था। जैसा माहौल बनाया जा रहा था उसके आधार पर तो भाजपा को तो इन दोनों ही मुद्दों के प्रभावक्षेत्र से खारिज हो जाना चाहिए था, लेकिन हुआ बिल्कुल उल्टा। कह सकते हैं एनआरसी के प्रति भाजपा की दृढ़ता ने उसे फायदा ही दिया है। इस कारण सीएए के प्रति गुस्सा होने के बाद भी ऊपरी असम ने दिल खोलकर भाजपा का साथ दिया है। इसी दृढ़ता ने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में उसकी संभावनाओं पर पूर्ण विराम भी लगा दिया। 50 प्रतिशत के आसपास या इससे अधिक मुस्लिम आबादी वाले जिलों में भाजपा का विकास का मंत्र भी काम नहीं कर सका। इन क्षेत्रों में हार-जीत का अंतर भी विशाल देखने को मिल रहा है।
यहां यह देखना भी दिलचस्प है कि इस चुनाव में भाजपा नीत गठबंधन में सहयोगी दल बदले, कई सीटों पर सहयोगियों के बीच आपसी फेरबदल हुआ, दर्जनों सीटों पर बगावत का सामना करते हुए उम्मीदवार बदले गए, लेकिन, इन सबके बीच जो नहीं बदला, वह है सत्ता की कमान। इस बार का नतीजा भी 2016 के चुनावों की तरह रहा है। बमुश्किल डेढ़ दर्जन सीटों पर फेरबदल हुआ है, इसमें भी लगभग बराबरी की हिस्सेदारी है। अर्थात् सत्ता पक्ष को जितनी सीटों का नुकसान हुआ, उतना ही नुकसान विपक्ष को भी झेलना पड़ा है। भाजपा गठबंधन को जो सीटें गंवानी पड़ी हैं, उनमें कई सीटें ऐसी हैं, जहां वर्तमान विधायक का टिकट काटने के बाद गठबंधन को विद्रोह का सामना करना पड़ा। यदि इन सीटों पर भाजपा गठबंधन कामयाब होता तो सदन में और बड़े अंतर के साथ सरकार बन सकती थी।
जीत के नायक : सर्वा-विस्वा
इस जीत में मुख्यमंत्री सर्वानन्द सोनोवाल और पूर्वोत्तर जनतांत्रिक गठबंधन (नेडा) के अध्यक्ष हिमंत विस्वा शर्मा की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही। सोनोवाल के नेतृत्व में भ्रष्टाचार नियंत्रण और सुशासन ने ‘सबका विश्वास’ जीतने में कामयाबी हासिल की। वहीं, हिमंत के आक्रामक अभियान और चुनावी रणनीति ने विरोधियों के छक्के छुड़ा दिए। सोनोवाल सरकार के कामों का प्रतिसाद भाजपा को चाहिए था, तो यह ठीक से पहुंचाने की जिम्मेदारी हिमंत के कंधों पर रही। इसमें वे आवश्यकतानुसार कांग्रेस के सांप्रदायिक चेहरे को भी बेनकाब करते रहे। उम्मीदवारों के चयन और चुनावी कूटनीति में हिमंत ही आगे रहे। भाजपा की इस जोड़ी ने विपक्षी गठबंधन में शामिल आठ दलों की दाल नहीं गलने दी।
स्वाति शाकम्भरी
टिप्पणियाँ