कोरोना की दूसरी लहर में कई ऐसी तस्वीरें सामने आयीं जिसने पारिवारिक-सामाजिक ताने-बाने का विद्रूप चेहरा हमारे सामने ला दिया। निरंतर दिखती नकारात्मक तस्वीरें पहले से विद्यमान चिंता में घुल-मिल कर भय का माहौल पैदा कर देती हैं। नोसोफोबिया किसी विशिष्ट बीमारी का तर्कहीन भय है। इसका सीधा रिश्ता सूचनाओं के अत्यधिक आॅनलाइन खोज से है। इसलिए सतर्क रहें। याद रखें, केवल वायरस का ही नहीं सकारात्मकता का भी संचार होता है। वास्तव में कुछ रचनात्मक करना आपको इस कालखंड की परेशानी से उबरने में मदद कर सकता है।
मार्च 2020 के बाद के एक कठिन वर्ष के पश्चात कोविड-19 एक बार फिर कई चुनौतियों के साथ हमारे सामने खड़ा है। जहां पहले दौर में संक्रमण को सामुदायिक स्तर पर रोकना हमारी प्राथमिकता थी, महामारी की दूसरी लहर में कई ऐसी तस्वीरें सामने आयीं जिसने पारिवारिक-सामाजिक ताने-बाने का विद्रूप चेहरा हमारे सामने ला दिया। जिन चीजों पर हमें सबसे ज्यादा भरोसा था, वही डगमगाने सी लगीं।
सुरेंद्र (एक बदला हुआ नाम) अभी कोरोना पॉजिटिव हैं और अस्पताल में हैं। उनके परिवार में उनकी पत्नी और दो बच्चे हैं। सुरेंद्र्र की बिगड़ती तबीयत ने उनकी पत्नी के सामने यक्ष प्रश्न खड़ा कर दिया-पति पर पूरा ध्यान केंद्र्रित करे या बच्चों की खातिर अपना और बच्चों का ध्यान रखे। उसने दूसरा विकल्प चुना। एक अन्य घटनाक्रम में मेरे ही एक सहकर्मी ने अपने परिवार के एक सदस्य के लिए घर से बाहर कहीं और रहने का प्रबंध किया क्योंकि उस सदस्य को पिछले कुछ समय से बुखार है। ध्यान रहे कि उनका आरटी-पीसीआर टेस्ट भी नहीं हुआ था। बिना कोरोना की पुष्टि के अपने ही एक अजीज को घर से बेदखल करवाने वाला कारक क्या होगा? आखिर वो कौन सा भय है जो हमें अपनों को बेगाना बनाने पर विवश कर रहा है?
अकादमिक शोध
अगर आप मनोविज्ञान एवं अन्य संबद्ध क्षेत्रों के शोध जर्नल्स पर नजर डालेंगे तो गत एक वर्ष में आपको आम जनता पर कोविड-19 महामारी के मनोवैज्ञानिक प्रभाव का मूल्यांकन करते हुए कई शोधपत्र मिल जायेंगे। इनमें बेचैनी, भय, चिंता, उदासी, अवसाद, आत्महत्या का विचार, और न जाने कितनी चीजों का जिक्र मिल जायेगा। अकादमिक जर्नल्स की अपनी लेखन शैली होती है और ऊपर उद्धृत शब्द उतने बोझिल नहीं लगते जितने वो जीवंत अनुभव में महसूस होते हैं। इसमें भारत समेत लगभग हर छोटे-बड़े देश के वैज्ञानिकों का शोध आपको मिल जाएगा। पर हम आम आदमी के लिए इनका सीमित उपयोग है। हमें रोज-रोज नजर आती समस्या ज्यादा परेशान करती है, मसलन आरंभिक जाँच, दवा या इंजेक्शन की आवश्यकता, और अस्पताल जाने की आवश्यकता। और फिर इन्हीं से जुड़ी आशंकाएं मन को विचलित करती हैं, जैसे अस्पताल में बिस्तर की उपलब्धता, आॅक्सीजन की सुविधायुक्त बिस्तर की व्यवस्था आदि। आईसीयू में भर्ती होने की आवश्यकता तो बहुत बाद में आती है। इस बात को समझें कि बीमारी से ज्यादा बीमारी के भय से बचने की आवश्यकता है। डॉक्टरों का कहना है कि कई बार हल्के लक्षण होते हैं जिन्हें अस्पताल में भर्ती की जरूरत नहीं होती। पर पैनिक (घबराहट) में लोग ऐसे मरीजों को लेकर भी अस्पताल पहुंच जाते हैं। यह अस्पताल में भीड़ बढ़ाने के अलावा सही रूप में जरूरतमंद को सेवा से दूर रख सकती है। कोरोना मरीज की देखभाल के भिन्न चरण हैं, पहले चरण में ही अस्पताल ले जाने की प्रवृत्ति से बचना होगा। होम आइसोलेशन में तिमारदारी एक विकल्प है। अत: डॉक्टर के परामर्श के आधार पर ही कार्य करें, बीमारी के भय से नहीं।
भय का मनोविज्ञान
गत वर्ष ‘क्वारंटाइन, लॉकडाउन और भय का मनोविज्ञान’ शीर्षक वाले अपने एक लेख में मैंने इसकी विस्तृत चर्चा की थी। आइये! भय के इस मनोविज्ञान पर एक संक्षिप्त नजर डालते हैं। अनपेक्षित खबरें चिंता पैदा करती हैं और तुलनात्मक रूप से मानस पटल पर लम्बे समय तक रहने वाली चिंता-भय उत्पन्न करती है। अब तक विभिन्न स्रोतों से हमें कोविड-19 के बारे में असीमित जानकारियां मिली हैं। शिक्षण और शोध क्षेत्र से लम्बे समय से जुड़े रहने के वावजूद मेरे लिए इन स्रोतों की सत्यता जाँचना संभव नहीं है। फिर जीवन के अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह सूचना की प्रमाणिकता की जांच-परख करें और फिर उस पर भरोसा करें? और फिर जांच-परख की गुंजाइश ही कहां रह जाती है जब अखबारों और न्यूज चैनलों में मौत का आंकड़ा बल्लियों उछल रहा हो। हमें यह बताया जाता है कि कहां, कौन, किस परिस्थिति में मर रहा है। सुबह से रात तक हम निर्बाध यही देख रहे हैं। भले ही सांख्यिकीय तौर पर यह कुल जनसंख्या का छोटा हिस्सा हो, पर निरंतर दिखती नकारात्मक तस्वीरें पहले से विद्यमान चिंता में घुल-मिल कर भय का माहौल पैदा कर देती हैं। भय और चिंता से घिरा व्यक्ति काफी हद तक अनपेक्षित भावनात्मक प्रतिक्रिया देता है। पर यह सब लिखने-पढ़ने की बात भर ही रह जाती है। सुरेंद्र के लिए उसकी पत्नी का व्यवहार चिंता और भय का सम्मिश्रण मात्र नहीं है, उसने अपनत्व की परिभाषा को बदलते देखा है। उसने किसी व्यक्ति विशेष पर भरोसा नहीं खोया है, अपितु उसके लिए रिश्ते ही बेमानी हो गये। यह पल केवल जान बचाने भर का ही नहीं है, बल्कि हमें दरकार है परिवार-समाज जैसी संस्थाओं में विश्वास कायम रखने की।
विशिष्ट बीमारी का तर्कहीन भय
फोबिया का नाम तो हम सबने सुना है, पर मनोवैज्ञानिकों ने नोसोफोबिया से ग्रसित लोगों के लक्षणों के बारे में भी अध्ययन किया है। यह किसी विशिष्ट बीमारी का तर्कहीन भय है। क्लीनिकल साहित्य के अनुसार सूचना के अत्यधिक आॅनलाइन खोज से इस बीमारी का सीधा रिश्ता है। इसका मतलब यह हुआ कि आप किस माध्यम से सूचना इकट्ठा कर रहे हैं, यह मायने नहीं रखता। व्हाट्सऐप, अन्य सोशल मीडिया या मेनस्ट्रीम मीडिया, सूचना का कोई भी माध्यम आपके लिए एक ट्रिगर साबित हो सकता है। व्हाट्सऐप और अन्य सोशल मीडिया पर अपनी प्रखर टिप्पणी करने की होड़ हो या टीआरपी की खातिर चौबीसों घंटे मौत और बदइंतजामी को दिखलाते रहने की कोशिश, ये दोनों ही एक खास मनोवृति से संचालित होते हैं। ऐसी मनोवृति नोसोफोबिया का ट्रिगर बन सकती है। इसलिए इनके प्रति सचेत रहने की आवश्यकता है। अब सवाल यह उठता है कि ऐसे में क्या कुछ हो सकता है जो एक दवा-मुक्त सकारात्मक मनोदशा को बढ़ाये?
सकारात्मकता का संचार
आइये! पहले इस बात को स्वीकार करें कि यह एक मुश्किल वक़्त है। इंसान के लिए अपने सबसे अच्छे समय में भी सकारात्मक बने रहना कठिन हो सकता है, फिर यह तो विषम परिस्थिति है। पर याद रखिये! यह कठिन अवश्य है पर असंभव नहीं। दूसरी बात यह कि मानसिक दृष्टिकोण से हममें से हर कोई एक बराबर स्तर पर होगा, ऐसा सोचें भी नहीं। इसका मतलब यह हुआ कि अगर आप भावनात्मक रूप से सकारात्मक हैं तो उस सकारात्मकता को फैलायें। मनोवैज्ञानिक शोध पर भरोसा रखें। केवल वायरस का ही नहीं, सकारात्मकता का भी संचार होता है।
आइये! अब इस बात की चर्चा करें कि अपने अंदर सकारात्मकता को कैसे बढ़ायें। सबसे पहले अपने आपसे पूछें कि इस महामारीजनित नकारात्मकता से पहले किस चीज से आपको ज्यादा खुशी हुई थी। उन चीजों को दोहरायें, बार-बार करें। यह कोई बड़ी बात हो, यह आवश्यक नहीं। यह आपकी सामान्य दिनचर्या से जुड़ी कोई भी चीज हो सकती है, जैसे परिवार के सदस्यों के साथ समय बिताना, कोई मन पसंद गाना, कोई पुस्तक या सिनेमा, या आपकी आध्यात्मिक अभिरुचि। उसे याद कीजिये और यह आप को आनंदित करेगा। शुरू-शुरू में उस समय को याद करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, लेकिन इसमें ज्यादा देर नहीं लगेगी। वह करीबी रिश्ते जो आपका जीवन में विश्वास जागते हों, वह दिनचर्या जो मन को प्रफुल्लित कर देती हो, वह बात जो आपको मित्रों और परिवार का भरोसेमंद साबित करता हो, हर उस चीज के बारे में सोचें।
हमारे मन में कई बातें कहीं दबी हुई हैं। यह दबा भाव अगर चिंता या भय से मिल जाये तो दिमाग कई तरह की खिचड़ी पकाने लगता है। इन दमित भावों में जो भी जेहन में कौंधे, उसे एक रचनात्मक रूप में ढालने की कोशिश करें। यह आपकी ऊर्जा का सही उपयोग होगा। इसकी परिणति भी अच्छी होगी और दिमाग खिचड़ी भी नहीं पका पाएगा। इसका एक अन्य लाभ भी है। कुछ नया सृजन होने की प्रक्रिया में मानसिक स्तर पर रचनात्मक विनाश की एक प्रक्रिया चलती है जो कई बार आपको विचलित भी करती है। इसीलिए वास्तव में कुछ रचनात्मक करना आपको इस कालखंड की परेशानी से उबरने में मदद कर सकता है। यह बात आपको उलटी लग सकती है, पर अभ्यास करें, आपको निश्चित तौर पर फायदा मिलेगा।
कृतज्ञता करेगी नकारात्मकता का नाश
तीसरी बात, अपने दिमाग पर जोर दें और याद करें कि अपनी जिन्दगी में आपको किन लोगों के प्रति आभारी होना चाहिए। हम वर्तमान में चाहें जिस भी हालत में हों, कुछ लोग तो जरूर होंगे जिनके प्रति हमारे मन में ऐसा भाव होगा। कृतज्ञता का भाव नकारात्मकता का नाश करेगी। चौबीसों घंटे के नकारात्मक समाचार,जो आपको अकेला और असहाय महसूस कराने लगते हैं,उनका असर कम होने लगेगा। आखिरी पर अहम बात,अगर चिंता आपका साथ नहीं छोड़ रही है तो उसका समय निर्धारित करने की कोशिश करें। आरम्भ में यह मुश्किल लगेगा, पर भरोसा रखिये, क्लीनिक में अपनाया गया यह एक सिद्ध तरीका है। यह पूरी तरह से अभ्यास आधारित है। चूंकि अब तक आपने चिंता को अपना अभिन्न अंग बना लिया है तो इतनी आसानी से इसका साथ तो छूटेगा नहीं। तो उसका समय निर्धारित कर दें। आहिस्ता-आहिस्ता आपकी चिंता कम होने लगेगी क्योंकि आगे आपको किसी रचनात्मक काम के लिए भी तो वक़्त निकालना है। और फिर उसमें भी रचनात्मक विनाश की एक प्रक्रिया चलेगी। सो हिम्मत न हारिये, प्रभु न बिसारिये।
(लेखक आई.आई.टी. कानपुर में मानविकी और समाज विज्ञान विभाग में चेयर प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष हैं)
तनाव कम करती है हंसी
जब हम व्यायाम करते हैं, तो हमारा शरीर एंडोर्फिन नामक रसायन छोड़ता है। दर्द यातना के जवाब में हमारा शरीर एंडोर्फिन जारी करता है। अन्य गतिविधियों के दौरान, जैसे खानाया या व्यायाम के दौरान, भी यह जारी होता है। एंडोर्फिन दर्द को कम करता है और आनंद को बढ़ाता है। यह शरीर में एक सकारात्मक भावना को ट्रिगर भी करता है, जिसके परिणामस्वरूप कल्याण की भावना पैदा होती है।
हंसी तनाव को कम करती है और संक्रमण से लड़ने वाले एंटीबॉडी को बढ़ाती है। इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता में सुधार होता है। हंसी एंडोर्फिन के लिए ट्रिगर का काम भी करती है। यह दवामुक्त रोग प्रतिरोधक है। सो हंसना न छोड़ें, यह आपके चेहरे की सुंदरता ही नहीं बढ़ाता, प्राकृतिक रूप से बेहतर महसूस करने वाला रसायन भी उत्पन्न करता है।
प्रो. ब्रजभूषण
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