नागपुर स्थित इंदिरा गांधी अस्पताल में भर्ती कोरोना पीड़ित 85 वर्षीय एक स्वयंसेवक नारायण भाऊराव दाभाडकर ने अपना बिस्तर इसलिए खाली कर दिया कि वह किसी युवा मरीज को मिल जाए और उसकी जान बच जाए। हालांकि अब वे भी इस दुनिया में नहीं रहे। उनके इस त्याग से प्रेरणा लेने की जरूरत है
आजकल अस्पतालों में एक बिस्तर पाने के लिए लोग न जाने कितने तिकड़म लगा रहे हैं, फिर भी उन्हें बिस्तर नहीं मिल रहा है। पर नागपुर (महाराष्ट्र) में रहने वाले 85 वर्षीय नारायण भाऊराव दाभाडकर ने अस्पताल में मिले हुए बिस्तर को छोड़ दिया। ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि किसी जरूरतमंद युवा मरीज को उनका बिस्तर मिल जाए जाए और उसकी जान बच जाए। श्री दाभाडकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे। उल्लेखनीय है कि कुछ दिन पहले वे और उनके घर वाले सभी कोरोना से पीड़ित हुए। डॉक्टर की देखरेख में घर पर ही उनका इलाज चल रहा था। 21 अप्रैल को श्री नारायण का आॅक्सीजन स्तर कम होने लगा तो परिजन परेशान हो गए। कहीं अस्पताल में जगह नहीं मिल रही थी। काफी प्रयास करने के बाद नागपुर के गांधी नगर स्थित इंदिरा गांधी अस्पताल में एक बिस्तर मिला। चूंकि उनके साथ परिवार का कोई सदस्य जा नहीं सकता था, इसलिए एम्बुलेंस से उन्हें अस्पताल पहुंचाया गया। वहां उनकी छोटी पुत्री और दामाद ने कागजी कार्रवाई पूरी करने के बाद उन्हें भर्ती करवा दिया और उनका इलाज शुरू हो गया। इलाज के दौरान श्री नारायण को अहसास हुआ कि सैकड़ों लोग अपने किसी परिजन को भर्ती करने के लिए अस्पताल वालों से बिस्तर की भीख मांग रहे हैं। इसी बीच उन्होंने एक महिला को चिकित्सक के सामने गिड़गिड़ाते हुए देखा। वह महिला गंभीर हो चुके अपने पति को अस्पताल में भर्ती करने की गुहार लगा रही थी। लेकिन बिस्तर खाली नहीं रहने से उसे मना कर दिया गया। इसके बाद वह रोने लगी। उस महिला का रोना श्री नारायण को अच्छा नहीं लगा और सोचा कि यदि मैं इस बिस्तर को खाली कर दूं, तो शायद उसके पति को यह मिल जाएगा। फिर उन्होंने अपनी छोटी बेटी, जो अस्पताल के बाहर थी, को फोन किया और कहा कि मुझे यहां नहीं रहना है। पूछने पर उन्होंने बताया कि मेरे खाली करने से यह बिस्तर गंभीर रूप से बीमार एक युवा को मिल जाएगा और उसकी जान बच जाएगी। इसके बाद उन्होंने घर जाने की जिद कर दी, लेकिन उनकी बेटी नहीं मानी। फिर उन्होंने अपनी बड़ी बेटी आसावरी अतुल काठीवान को फोन कर कहा, ‘‘मैंने अपनी जिंदगी जी ली है। अब मैं इस दुनिया से चला भी जाऊं तो कोई दिक्कत नहीं है। युवाओं का जिंदा रहना जरूरी है। इसलिए मैं अपना बिस्तर एक युवा मरीज के लिए छोड़कर घर वापस आना चाहता हूं। जो होगा, तुम लोगों के सामने होगा।’’ आसावरी कहती हैं, ‘‘पिताजी की इस बात से मैं भी परेशान हो गई। मैंने अपने पति और ससुर से इसकी चर्चा की, तो वे लोग दंग रह गए। लेकिन सबको उनके स्वभाव के बारे में पता था कि किसी की मदद के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। आखिर में उनकी सेवा भावना को देखते हुए सभी उनको घर आने देने के लिए तैयार हो गए।’’
इसके बाद अस्पताल के चिकित्सकों को यह बात बताई गई। चिकित्सकों ने साफ मना कर दिया कि ऐसा नहीं हो सकता। यदि मरीज को कुछ हो गया तो उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? डॉक्टरों ने नहीं माना तो श्री नारायण ने इलाज कराने से मना कर दिया। विवश होकर अस्पताल वाले भी एक शर्त के साथ उन्हें घर भेजने के लिए तैयार हो गए। शर्त थी कि यदि अस्पताल से ले जाने के बाद मरीज को कुछ होता है, तो उसके लिए अस्पताल जिम्मेदार नहीं होगा, यह लिखित में देना होगा।
जब सारी कागजी कार्रवाई पूरी हो गई तब श्री नारायण 22 अप्रैल की रात को 9.30 बजे घर लौटे। घर पर ही वे लगभग 17 घंटे कोरोना से संघर्ष करते रहे। अंतत: 23 अप्रैल को दोपहर दो बजे वे इस संघर्ष में हार गए।
बचपन से ही स्वयंसेवक रहे श्री नारायण जब तक शरीर में ताकत रही, तब तक समाज की मदद के लिए सदैव तैयार रहते थे। उनको दो पुत्रियां ही हैं। दोनों का घर बसाने के बाद वे अकेले ही नागपुर के सावित्री विहार में रहते थे। पत्नी का निधन पहले ही हो चुका है। सांख्यिकी विभाग से सेवानिवृत्त होने के बाद वे पूरी तरह शाखा और सेवा कार्य में लगे रहते थे। पांच वर्ष पहले बीमार हुए तो बेटी के घर (मनीष नगर, नागपुर) रहने लगे थे। संघ के संस्कारों ने उन्हें ऐसा बना दिया था कि अपने हित से ज्यादा वे दूसरे के हितों की रक्षा करते थे। अंतिम समय में भी उन्होंने ऐसा ही किया।
उन्हें सरकार से मासिक 20,000 रु. पेंशन मिलती थी। इस राशि को वे अपने लिए कभी खर्च नहीं करते थे। बेटियों को भी उनकी इस राशि की जरूरत नहीं थी। इसलिए वे इस पैसे को गरीब परिवारों के बच्चों की पढ़ाई और शादी में खर्च करते थे। यही नहीं, यदि कोई किसी बीमारी के कारण अस्पताल में भर्ती होता था और उसके घर वाले उसके साथ नहीं रह पाते थे श्री नारायण अस्पताल में उसके साथ रहा करते थे। घर से बनाकर उसके लिए खाना भी ले जाते थे। ऐसा उन्होंने बरसों तक अनेक मरीजों के साथ किया। आसावरी बताती हैं, ‘‘कुछ साल पहले उन्होंने बिना किसी को बताए एक गरीब परिवार की लड़की की शादी के लिए किसी से कर्ज ले लिया और अपनी पेंशन से उसे काफी दिनों तक लौटाते रहे। जब मुझे पता चला तो मैंने कहा कि कर्ज लेकर सेवा करना ठीक नहीं है। इस पर वे बोले मरने से पहले तक सारा कर्ज खत्म कर दूंगा और उन्होंने ऐसा ही किया। किसी का एक पैसा नहीं रखा।’’
अब उनके इस त्याग की कहानी पूरे भारत में सुनी और पढ़ी जा रही है। वे वास्तव में ‘नारायण’ थे।
अरुण कुमार सिंह
टिप्पणियाँ