पाकिस्तान कई दिनों से हिंसा की आग में जल रहा है। कट्टरपंथी ईश निंदा को मुद्दा बनाकर सरकार को अपने इशारे पर नचा रहे हैं। वे चाहते हैं कि सरकार फ्रांस के साथ सभी प्रकार के राजनयिक और आर्थिक संबंध खत्म कर ले। वे जैसा चाह रहे हैं, इमरान सरकार वैसा ही कर रही है
पाकिस्तान में अराजकता चरम पर है। कट्टरपंथियों का एक समूह देशव्यापी हिंसा कर पाकिस्तान की संसद और सरकार को अपने इशारे पर नचा रहा है। कट्टरपंथियों के आगे पूरी तरह घुटने टेक चुकी इमरान खान सरकार ने न केवल दंगों के आरोपी तहरीक-ए-लब्बैक सरगना साद हुसैन रिजवी को रिहा कर दिया है, बल्कि संसद के विशेष सत्र में फ्रांसीसी राजदूत को निष्कासित करने की मांग पर संसद में प्रस्ताव लाकर इस पर मतदान भी कराने को तैयार है। पहले इस पर 21 अप्रैल को विशेष सत्र बुलाया गया, लेकिन बाद में इसे दो दिन के लिए टाल दिया गया। अब 23 अप्रैल को संसद के विशेष सत्र में इस प्रस्ताव पर चर्चा होगी। देश में जारी हिंसा के बीच 20 अप्रैल को इमरान खान ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा, ’’टीएलपी और सरकार का एक ही मकसद है, लेकिन दोनों का तरीका बिल्कुल अलग है। हमारे देश का गठन इस्लाम के लिए हुआ था। पैगंबर हमारे दिल में हैं और दुनिया में कहीं भी, कोई भी उनका अपमान करेगा तो उससे हमें और दुनियाभर के मुसलमानों को दर्द होगा।‘’
साद हुसैन कट्टरपंथी संगठन तहरीक-ए-लब्बैक (टीएलपी) के संस्थापक खादिम हुसैन रिजवी का बेटा है। नवंबर 2020 में पिता की मौत के बाद साद हुसैन ने संगठन की कमान संभाली और मृतप्राय संगठन को पुनर्स्थापित करने की कोशिश में जुट गया। इसी क्रम में उसने फ्रांस की पत्रिका शार्ली एब्दो में मुहम्मद का कार्टून छापने को देशव्यापी मुद्दा बनाया और सरकार के समक्ष फ्रांस से राजनयिक और आर्थिक संबंध पूरी तरह खत्म करने के साथ फ्रांसीसी राजदूत को देश से बाहर निकालने की मांग रखी। साथ ही, चेतावनी दी कि अगर राजदूत को निष्कासित नहीं किया गया तो पाकिस्तान में सरकार के विरुद्ध बड़ा आंदोलन किया जाएगा। पाकिस्तान में जारी हिंसा के बीच खतरे को देखते हुए फ्रांस ने अपने सभी नागरिकों और कंपनियों से तत्काल देश छोड़ने को कहा है। सचिव रैंक के कई अधिकारी पाकिस्तान छोड़ चुके हैं।
टीएलपी के साथ समझौता
नवंबर 2020 में ही पाकिस्तान सरकार और टीएलपी के बीच एक समझौता हुआ था। इसमें यह तय हुआ था कि इस मुद्दे को अगले तीन माह में संसद के जरिए सुलझाया जाएगा। टीएलपी ने फ्रांस के राजदूत को देश से निकालने और फ्रांस के साथ सारे रिश्ते खत्म करने के लिए 20 अप्रैल तक की मोहलत दी थी। इसी बीच 12 अप्रैल को साद हुसैन को गिरफ्तार कर लाहौर के कोट लखपत जेल में भेज दिया गया। साद रिजवी की गिरफ्तारी के बाद पाकिस्तान के कई शहरों में सरकार के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए, जिसमें कई पुलिसकर्मी मारे गए और कई पुलिसकर्मियों को टीएलपी समर्थकों ने बंधक बना लिया। बंधक पुलिस अधिकारियों की तस्वीरें पाकिस्तान में सोशल मीडिया पर छाये हुए हैं। हिंसा रोकने में नाकाम रही इमरान सरकार को कुछ घंटे के लिए सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। बाद में सरकार से बातचीत के बाद कट्टरपंथियों ने 11 बंधक पुलिसकर्मियों को छोड़ दिया।
हिंसा की पृष्ठभूमि
1970 में अपनी स्थापना से ही फ्रांस की पत्रिका शार्ली एब्दो इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध अपनी मुखर अभिव्यक्ति के लिए विख्यात रही है। इस कारण यह इस्लामी कट्टरपंथियों के निशाने पर भी रही है। जनवरी 2015 को पत्रिका के पेरिस स्थित मुख्यालय पर दो इस्लामी आतंकियों ने हमला किया, जिसमें लगभग 12 लोग मारे गए। इसका कारण यह था कि 2012 में पत्रिका ने कुछ ऐसी सामग्री छापी थी, जिसे इस्लाम मान्यता नहीं देता और साथ सही उन्हें अपमानजनक मानता है। अक्तूबर 2020 में सैमुअल पैटी नामक एक फ्रांसीसी शिक्षक अपनी कक्षा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाठ पढ़ा रहे थे, जिसमें शार्ली एब्दो का संदर्भ आया। इसके बाद एक कट्टरपंथी ने सैमुएल पैटी की नृशंस तरीके से हत्या कर दी। इस घटना के बाद आतंक के पैरोकार राष्ट्र फ्रांस के विरुद्ध एकजुट हो गए। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों, जो आमतौर पर सधी हुई प्रतिक्रिया देते हैं, को भी यह कहने के लिए विवश होना पड़ा सैमुअल पैटी के साथ हुई घटना ने “इस्लामी आतंकी हमले ” का उदाहरण प्रस्तुत किया है। इसके विरुद्ध कड़ा कदम उठाने की जरूरत है। बस यही बात पाकिस्तान जैसे कट्टपंथ के निर्यातक देशों को अपमानजनक लगी और इमरान खान फ्रांस के विरुद्ध पनपे इस्लामी प्रतिरोध के स्वयंभू अगुआ बन बैठे। एक ओर पाकिस्तान सैमुअल पैटी की हत्या को इस न्यायोचित ठहराने के कुत्सित प्रयास में लगा रहा, वहीं इस्लामी आतंकवाद पर दुनिया की चिंताओं को इस्लामोफोबिया की आड़ में दबाने की कोशिश भी की।
पाकिस्तान में कट्टरपंथ और आतंकवाद का एक विस्तृत तंत्र है, जिसे सेना संरक्षण प्रदान करती है।
पाकिस्तान सरकार इस्लामी गणतंत्र के नाम पर ऐसे विधि-विधानों को प्रश्रय देती, जिन्हें देश के रुढ़िवादी और कट्टरपंथी मौलाना इस्लाम की सुरक्षा के नाम पर जरूरी मानते हैं। इसलिए जब इस्लामी आतंकवाद पर फ्रांस के राष्ट्रपति ने बयान दिया, पाकिस्तान में मौजूद आतंकी संगठनों के आकाओं और कट्टरपंथियों ने इसके खिलाफ हिंसक विरोध शुरू कर दिया। इसका अगुवा बना तहरीक-ए-लब्बैक या रसूल अल्लाह। खादिम रिजवी ने फ्रांस के साथ राजनयिक एवं आर्थिक संबंध पूरी तरह खत्म करने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के मकसद से नवंबर 2020 में इस्लामाबाद से रावलपिंडी तक विशाल रैली आयोजित की, जिसमें कट्टरपंथियों और पुलिस के बीच सशस्त्र संघर्ष की स्थिति निर्मित हुई। उस समय भी इमरान खान सरकार ने अकर्मण्यता और अक्षमता का उदहारण प्रस्तुत किया। खादिम रिजवी के आगे झुकते हुए तत्कालीन आंतरिक मंत्री एजाज शाह ने एक लिखित समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसके तहत तीन महीने के भीतर सरकार को फ्रांसीसी राजनयिक के निष्कासन और पेरिस में पाकिस्तानी राजदूत की तैनाती न करने के संबंध में स्पष्ट फैसला लेना था। हालांकि सरकार ने लिखित समझौते की पुष्टि नहीं की, लेकिन उसने इस समझौते की बात से कभी इनकार भी नहीं किया। इसी बीच कोविड-19 के कारण इस समझौते के कुछ ही समय बाद ही खादिम रिजवी की मौत हो गई और उसके बेटे साद हुसैन ने कट्टरपंथी संगठन की कमान संभाल ली। फिर समझौते पर अमल करने के लिए सरकार पर दबाव डालने हेतु हिंसक आंदोलन का रास्ता चुना।
सरकार की नाकामी
प्रधानमंत्री इमरान खान हालांकि देश की जहां देश में व्यापक अव्यवस्था से निपटने में नितांत अक्षम साबित हुए हैं। इसके बावजूद निर्लज्जतापूर्ण तरीके से पश्चिमी देशों की सरकारों को नसीहत दे रहे हैं। पिछले शनिवार को उन्होंने पश्चिम की सरकारों से मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने वालों को दंडित करने का आग्रह किया, वह भी ठीक उसी तरह से जिस तरह उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में यहूदियों के हत्याकांड के समर्थन को दंडात्मक विधि बना कर निषिद्ध किया। पाकिस्तान में चल रहे हिंसक विरोध के बाद से इमरान खान ट्विटर पर लगातार दुनिया भर के देशों को धमकाते नजर आ रहे हैं। इमरान ने लगातार ट्वीट कर कहा कि मुसलमान अपने पैगंबर के सम्मान में किसी भी तरह की निंदा बर्दाश्त नहीं कर सकते। वहीं, घरेलू मोर्चे पर पाकिस्तान सरकार की लाचारी का आलम यह है कि तहरीक-ए-लब्बैक-पाकिस्तान को आतंकी संगठन घोषित करने और देश भर में उसकी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने के अगले ही दिन इमरान खान के नेतृत्व वाली पीटीआई सरकार देश से फ्रांसीसी राजदूत के निष्कासन के लिए नेशनल असेंबली में एक प्रस्ताव पारित करवाने को तैयार भी हो गई। स्पष्ट है कि पाकिस्तान सरकार कट्टरपंथियों के आगे पूरी तरह से नतमस्तक है। पाकिस्तान के आंतरिक मंत्री शेख राशिद ने घोषणा की कि सरकार टीएलपी के साथ एक ‘समझौते’ पर पहुंच गई है। यह भी कहा कि इस समझौते के द्वारा टीएलपी के कार्यकर्ताओं पर दर्ज मामले वापस ले लिए जाएंगे और गिरफ्तार किए गए लोगों को छोड़ दिया जाएगा। बदले में टीएलपी इस आंदोलन को ‘स्थगित’ करने पर सहमत हो गई है। गौरतलब है कि इसी टीएलपी पर 14 अप्रैल को राशिद ने आतंकवाद विरोधी अधिनियम-1997 के नियम 11बी तहरीक के तहत टीएलपी पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की थी, जिसके बाद तहरीक-ए-तालिबान-ए-पाकिस्तान सहित विभिन्न प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन टीएलपी के खुले समर्थन में आ गए थे और पाकिस्तान सरकार के समक्ष चिंताजनक स्थिति पैदा हो गई थी।
लेकिन प्रश्न वही है कि आखिर क्यों पाकिस्तान की सरकारें कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेकने के लिए विवश हो जाती हैं। चाहे वह कमजोर लोकतांत्रिक सरकारें हो या सेना की कठपुतली सरकारें। पाकिस्तान में इस्लाम के नाम पर राजनीतिक दल जहां चुनावों में जनता से वोट मांगते हैं, वहीं ‘इस्लाम के लिए’ सेना लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारों का तख्ता पलटकर तानाशाही लागू करती है। सेना का दखल केवल राजनीतिक मामलों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक आर्थिक विषयों से लेकर संवैधानिक और प्रशासनिक से लेकर वैज्ञानिक मामलों तक में भी इस्लाम हीं केंद्र में रहता है। ऐसा भी नहीं है कि पाकिस्तान में इस अवसरवाद का जन्म हाल ही में हुआ है। पाकिस्तान का जन्म ही इस अवसरवाद के गर्भ से हुआ है। “इस्लामी गणराज्य” के रूप में पाकिस्तान इस्लामी मूल्यों और परम्पराओं के संरक्षण और परिवर्धन के लिए कटिबद्ध है, ठीक उसी तरह जैसे भारत अपने संविधान द्वारा सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय व समानता जैसे आदर्शों की बात करता है। नया बना पाकिस्तान जातीय, प्रांतीय, सांस्कृतिक, धार्मिक, वर्गीय और भाषाई आधार पर विभाजित था और शासकों ने इन भिन्नताओं को नकार कर इस्लाम की पहचान के आधार पर एकरूपता थोपने की कोशिश की और फिर नागरिक और सैन्य नेताओं ने इस्लाम का उपयोग शासन के लिए वैधता हासिल करने और राज्य नीति के उपकरण के रूप में ,उपयोग किया। इस उपयोग की पद्धति ने ही राजनीति और समाज में इस्लामी दलों की भूमिका को मजबूत किया।
प्रारंभ से ही पाकिस्तान में व्यापक सामाजिक आर्थिक व शैक्षिक सुधारों का अभाव रहा और बहुसंख्यक वर्ग के विचार और विश्वास धार्मिक शिक्षा के इर्द-गिर्द ही मंडराते हैं। इसने धार्मिक कट्टरपंथ के लिए खाद-पानी मुहैया कराया और जब इस्लाम के आधार पर बनने वाले कट्टरपंथी दल मजबूत होने लगे, तो उनमें आपस में इस बात की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई कि कौन इस दौड़ में कितना आगे जा सकता है। लिहाजा इस्लाम के नाम पर की जाने वाली मांगें कितनी ही नाजायज क्यों न हों, पाकिस्तान में उन्हें खारिज कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है, विशेषकर इमरान खान के लिए जो मजहबी कट्टरपंथ का सहारा लेकर ही राजनीतिक पायदान चढ़ सके हैं।
फ्रांस से रिश्ते बिगाड़ने पर नुकसान
फ्रांस के साथ संबंध बिगाड़ने का खामियाजा पाकिस्तान को कई मोर्चों पर भुगतना पड़़ेगा। राजनीतिक व सामरिक ही नहीं, बल्कि आर्थिक क्षेत्र पर भी इसका गंभीर असर पड़ेगा। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार पाकिस्तान पर पेरिस क्लब का लगभग 11.547 करोड़ डॉलर का कर्ज है। इसमें अकेले फ्रांस का कर्ज 1.748 अरब डॉलर है। उल्लेखनीय है कि फ्रांस सत्रह देशों की सदस्यता वाले पेरिस क्लब का सचिवालय है और इस मंच पर उसका बहुत अधिक प्रभाव है। पेरिस क्लब देशों में फ्रांस जापान के बाद दूसरा सबसे बड़ा द्विपक्षीय दाता है। फ्रांस ने पिछले 12 वर्षों में पाकिस्तान में लगभग 1 अरब डॉलर का कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश किया है जो पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के महत्व के क्षेत्रों में है।
वर्तमान में यूरोपीय संघ पाकिस्तान का सबसे बड़ा निर्यात साझीदार है, क्योंकि 1 जनवरी, 2014 से जीएसपी प्लस के रूप में जाने जाने वाले यूरोपीय संघ के “स्पेशल इन्सेन्टिव अरेंजमेंट्स फॉर गुड गवर्नेंस” के तहत 91 प्रतिशत टैरिफ लाइनों पर यूरोपीय संघ (ईयू) के सभी 27 सदस्य राष्ट्रों में पाकिस्तानी उत्पादों को शुल्क मुक्त पहुंच की सुविधा मिली हुई है। परन्तु इस घटना के बाद विशेषज्ञों का मानना है कि यूरोपीय संघ ऐसे मामलों में सदैव एकता का प्रदर्शन करता आया है और यह पाकिस्तान के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकता है। पाकिस्तान की गृह और विदेश नीति का निर्धारण जब-जब उन्माद की भावना से किया गया है, तब-तब पाकिस्तान के लिए भविष्य की राह दुष्कर ही साबित हुई है।
एस. वर्मा
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