सूर्य के अयन परिवर्तन व संक्रांतियों के प्राचीन भारतीय पर्वों का विश्व में आज भी व्यापक चलन है। ग्रीष्म व शीत अयनान्त अर्थात दक्षिणायन व उत्तरायण संक्रांतियों व विश्व संक्रांतियों का विश्व भर में यह चलन ईसा व इस्लाम पूर्वकाल की सूर्योपासना की सनातन वैदिक परंपराओं का द्योतक है। संक्रांतियों के वैदिक विमर्श एवं विश्व के प्रमुख संक्रांति उत्सव स्थलों का विवेचन यहां किया जा रहा है।
भारतीय वाङ्मय में संक्रांतियां
ऋग्वेद (1़12.48 व 1़164़11) में सूर्य के 12 राशियों में भ्रमण व 4 ऋतुओं के परिवर्तन का वर्णन है। कालनिर्णयकारिका, कृत्य रत्नाकर, हेमाद्रि (काल), समय मयूख में सूर्य के उत्तरायण व दक्षिणायन के कामों की सूची और अयन व्रत की विस्तृत विधियां हैं। संक्रांतियों पर गंगा स्नान, तैल रहित भोजन, अन्न दान आदि के निर्देश हैं। सूर्य के 12 राशियों मे भ्रमण से वर्ष में 12 संक्रांतियां होती हैं। मत्स्य पुराण व देवी भागवत आदि पुराणों में संक्रांति को अत्यंत पवित्र बता कर उस दिन देवों के हवन व पितरों के तर्पण का निर्देश है। भारतीय कालगणना में लाखों वर्षों में भी वार्षिक पर्वों का ऋतुचक्र से समन्वय रहे इस हेतु संक्रांति रहित मास को अधिक मास माना गया है। महाभारत काल के पूर्व सौर मास गणना में प्रत्येक संक्रांति से व्यतीत दिनों व घटी पलों को लिख कर कालगणना की जाती थी।
संक्रांतियों की श्रेणियां
सूर्य के अयन परिवर्तन की संक्रांतियां अयन संक्रांतियां कहलाती हैं। दक्षिणायन संक्रांति या ग्रीष्म अयनान्त 21 जून को आता है, जो अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस भी है। तब ही भगवान शंकर ने सप्तर्षियों को योग ज्ञान देने की सहमति दी थी। उत्तरायण संक्रांति को शीत अयानान्त कहा जाता है जिसका मकर संक्रांति के लेख में विवेचन किया जा चुका है।
विशुव संक्रांतियां 22 मार्च व 22 सितंबर को होती है जब दिन-रात्रि एक समान होते हैं। शेष 8 संक्रांतियों में निरयण मिथुन संक्रांति रज पर्व कहलाता है। इसे ओडिशा में त्रिदिवसीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। सायन मिथुन संक्रांति 22 मई को ही निकल जाती है। पृथ्वी के अक्ष परिवर्तन का चक्र 25,771 वर्ष मे पूरा होता है। उसके आधार पर होने वाले अयन चलन के मान (अयनांश) को घटा कर निरयन संक्रांति की गणना की जाती है। पाश्चात्य जगत के अयन चलन से अनभिज्ञ होने से शुद्ध खगोल भौतिकीय मान के अनुरूप निरयन ग्रह गणनाएं भारत मे ही चलन मे रहीं हैं।
दक्षिणायन संक्रांति की वैश्विक परंपरा
ग्रीष्म अयनान्त को दक्षिणायन संक्रांति या सायन कर्क संक्रांति भी कहते हैं, जो 21 जून को योग दिवस पर आती है। इस संक्रांति को विश्व के अनेक स्थानों पर 5-8 हजार वर्ष पहले से मनाने की परंपरा रही है। यूरोप एवं अमेरिका में विगत 1500 वर्षों के ईसाईकरण के बाद भी इस वैदिक पौराणिक उत्सव को मनाने की परंपरा आज भी जीवित है। स्थान सीमावश इनमें से कुछ स्थानों के उत्सवों की चर्चा यहां की जा रही है।
स्वीडन में इसे ‘मिड सोमर’ कहते हैं और वहां ग्रीष्म अयनान्त का अवकाश रहता है। इसे भव्य सजावटपूर्वक राजधानी स्टाकहॉम सहित पूरे स्वीडन में और नार्वे आदि स्कैण्डिनेवियन देशों में मनाया जाता है।
अमेरिकी राज्य अलास्का में 9 स्थानों पर खेलों व संगीत महोत्सव आदि के 2-3 दिवसीय आयोजन होता हंै। अलास्का में एक विश्व के विशालतम पिरामिडों में से भी एक है और अलास्का विश्व के 17 अन्य पुरास्मारकों से समान दूरी पर स्थित है और यह दूरी पृथ्वी की परिधि की ठीक एक चौथाई है। यहां इस क्षेत्र में तीन दिन सूर्यास्त नहीं होने के कारण मध्यरात्री खेल भी अत्यन्त लोकप्रिय हैं।
कनाडा में यह उत्सव यूरोपीय आप्रवासियों के आने से पहले तक वहां मूल निवासियों द्वारा मनाया जाता रहा है। इस अवसर पर कनाडा के मूल निवासियों के पारंपरिक वाद्य, संगीत, खाद्य की धूम रहती है और ईसाइयत के तत्वों से रहित यह सूर्योपासना का पर्व हो जाता है। ओटावा को महारानी विक्टोरिया द्वारा कनाडा की राजधानी बनाने से पूर्व यह वहां के ‘एल्गोन्क्विन’ समुदाय के मूल निवासियों के अधीन वहां सूर्य उत्सव की भव्य परंपरा थी।
इंग्लैंड व आयरलैंड में ईसाइयत के प्रसार के पूर्व के पागान पंथों द्वारा अयनान्त उत्सव मनाया जाता रहा है। शेक्सपीयर की रचना ‘मिडसमर नाइट्स ड्रीम’ इससे प्रभावित है। परियों, यूनिकार्न आदि की पारंपरिक शोभा यात्राएं जो ईसाइयत के प्रसार के बाद बंद सी हो गयी थीं, अब पुनर्जीवित होती दिखाई देती हैं।
क्रोएशिया में दक्षिणायन का आयोजन यूरोप में सर्वाधिक भव्य होता है, जहां सूर्य की दो दिन तक आराधना व अर्घ्य आदि की परम्परा है। इस एस्ट्रोफेस्ट में प्रथम दिन सूर्य को आराधना पूर्वक सूर्यास्त के अवसर पर विदाई और दूसरे दिन प्रात:कालीन सूर्य का स्वागत किया जाता है और सूर्य के सम्मान मे भोज भी होता है। क्रोएशिया के इस्ट्रिया प्रायद्वीप में इनका सर्वाधिक महत्व है।
आॅस्ट्रिया के दक्षिणी में टायटॉल मे सूर्य के दक्षिणायन को भव्य होलिका-उत्सव के रूप में मनाया जाता है। पर्वत शिखरों पर होलिका दहन पूर्वक मनाया जाने का विहंगम दृश्य अत्यन्त रोमांचक होता है। इस पर्व पर ईसा पूर्व काल में सूर्य देव को सर्वोच्च श्रद्धा अर्पित करने की रही है।
लातविया में कुलडिगा, आइसलैंड, रूस के सेंटपीर्ट्सबर्ग एवं स्कॉटलैंड आदि कई स्थानों पर दक्षिणायन सक्रांति, सूर्य के प्रति सम्मान अभिव्यक्ति का पर्व है।
पेरू में सूर्य के प्रति आस्था
दक्षिणी अमेरिका स्थित पेरू के दक्षिणी गोलार्द्ध में होने से उत्तरी गोलार्द्ध के ग्रीष्म अयनान्त के समय पर जून में शीतकालीन संक्रान्ति होती है। तब वहां संक्रांति के अवसर पर सूर्य-उत्सव (इंटी रेमी) या क्वेशुआ सूर्य देवता के प्रति सम्मान व श्रद्धा अभिव्यक्त करने हेतु मनाया जाता रहा है। स्पेन के आक्रमण के पहले जब उन्होंने उसे मनाया था। तब वहां के ‘इन्का’ समुदाय ने तीन दिन उपवास कर चौथे दिन सूर्योदय के पूर्व मैदान में सूर्योदय की प्रतीक्षा कर सूर्यदेव की सामूहिक पूजा कर मकई के व्यंजनों का नैवेद्य अर्पित किया। तीन दिन के उपवास से भूखे इन्का समुदाय स्पेनिश आक्रांताओं के आगे टिक नहीं पाये। स्पेनिश विजय के बाद उन्होने ‘इंटी रेमी’ नामक इस सूर्योत्सव व उसके अवकाश पर भी रोक लगा दी थी, जिसे पिछली शताब्दी में वापस लिया गया।
उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका में यूरोपीय आक्रांताओं के अत्याचारों, नर संहारों के पूर्व के उनके पारंपरिक पर्वों पर बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक रहे प्रतिबंधों के बाद भी वैदिक परांपराओं जैसी अनेक पूजा परम्पराएं इन्का, माया, एज्टेक आदि समुदायों में आज भी चलन में हैं।
प्रो. भगवती प्रकाश (लेखक गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कुलपति हैं)
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