रोमा के इतिहास को प्राय: विलुप्त तथा विस्मृत के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है, क्योंकि कुछ गैर-रोमा विद्वानों ने इस गलत विचार को प्रचलित किया कि रोमा का कोई इतिहास नहीं है, लेकिन अब यह धारणा समाप्त हो गई है। इटली के इतिहासकार फ्रा गेरोनिमो ने 1422 में अनुमान लगाया था कि रोमा (जिप्सी) भारत से आए होंगे। 1427 में पेरिस के एक निवासी की डायरी रोमाओं की उपस्थिति के बारे में बताती है। रोमा पहली बार पेरिस के पास सेंट डेनिस पहुंचे। डायरी में वर्णन है कि लगभग सभी लोगों के दोनों कान छिदे हुए थे और प्रत्येक कान में चांदी का एक कर्णफूल था। कानों में बाली पहनने की प्रथा को यूरोपीय परंपरा से जोड़ते हैं तो पता चलता है कि यह बहुत विशिष्ट आबादी तक सीमित थी और पुरुषों द्वारा कभी नहीं पहनी जाती थी, जबकि भारत में पुरुष बालियां पहना करते थे, जो वास्तव में कुलीनता का प्रतीक थी। 1550 में सेबेस्टियन मुंस्टर ने स्पष्ट किया कि रोमा के पूर्वजों का जन्म स्थान सिंधु और गंगा का मैदानी भूभाग रहा होगा। इटली के चित्रकार सेसारे वेसेलियो ने 1590 में प्रकाशित अपनी लोकप्रिय पुस्तक ‘डी ग्लि हेब्ती एंटिची ई मोडेरनी डी डाइवर्सी पार्टो डि मोंडो’ में रोमा को भारत से जोड़ा है। उन्होंने लिखा है कि रोमा कभी भी एक स्थान पर तीन दिन से अधिक नहीं ठहरते। उनके प्रभु, जो कालीकट के राजा हैं, की सेवा कुछ ब्राह्मण और पुरोहित करते हैं। कालीकट, जिसे आजकल कोझिकोड के नाम से भी जाना जाता है, वही स्थान है जहां 1498 में वास्को डिगामा का आगमन हुआ था।
फारस के कवि और लेखक अबुल-कासिम फिरदौसी की 1010 ई. में लिखी पुस्तक ‘शाहनामा’ (बुक आॅफ किंग्स) को फारस का राष्ट्रीय महाकाव्य माना जाता है। इस पुस्तक ने रोमा समुदाय के प्रागैतिहास और प्रवास का पता लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ‘शाहनामा’ में इस्लाम पूर्व फारस की कई किंवदंतियों और परंपराओं का विस्तार से वर्णन किया गया है तथा सासनियन राजा शाह बहराम गुर (420-438 ईस्वी) के संगीतकारों और गायकों के लिए सिंध के महाराज राव शंकाल से किए गए अनुरोध का भी उल्लेख है। भारतीय शासक शंकाल ने बहराम गुर के अनुरोध पर लगभग 12,000 संगीतकार, जिनमें स्त्री और पुरुष शामिल थे, फारस भेजे थे। इस पुस्तक में इसका भी उल्लेख है। विद्वानों के बीच यह धारणा मजबूत है कि रोमा भारतीय अप्रवासी थे, जो पांचवीं शताब्दी में फारस पहुंचे थे।
रोम के लेखक इओन बुदाई-डेलीनू (1760-1820) की सर्वोत्तम रचना ‘शिगनियाडा’ का उल्लेख करना यहां आवश्यक है, जो यह पुष्टि करती है कि रोमा भारतीय मूल के हैं और आधुनिक इंडो-आर्यन भाषाएं रोमानी भाषा की वंशज हैं। हेनरिक मोरित्ज गॉटलीब ग्रेलमन ने 1783 में लिखी अपनी पुस्तक ‘डाई जाइगयुनर’ में भारत में रोमा की उत्पत्ति को स्वीकार करने वाली परिकल्पना का प्रस्ताव रखा और तर्क दिया कि रोमा की भाषा, उनके नाम, शरीर की बनावट, रीति-रिवाज और पांथिक प्रथाएं संभवत: भारत के समरूप हैं। उन्होंने विचार प्रकट किया कि रोमा और भारत के निवासी एक-दूसरे से चेहरे, रंग और आकार में मिलते-जुलते हैं। विशेष रूप से रोमा पुरुष तथा महिलाओं की हस्तरेखा पढ़ कर व्यक्ति के भविष्य के बारे में जैसे विवाह या धन की प्राप्ति, दरिद्रता तथा जीवन में सुख-दु:ख की भविष्यवाणी करते थे। यह भारत की भविष्यवाणी पद्धति और भाग्य बताने की विधा के समान है।
अगस्त फ्रेडरिक पोटट (1844-45) ने रोमा भाषा के व्याकरण और शब्द संग्रह के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर सिद्ध किया कि रोमा घनिष्ठ रूप से सिंध तथा पंजाब से संबंध रखते हैं। फ्रांज एक्स. मिकलोविच (1871-1882) ने भी रोमानी और भारतीय उपमहाद्वीप की भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर यह पता लगाया कि रोमा की मातृभूमि पंजाब है। डच इतिहासकार एम. जे. डे. गोएजे ने 1902 में एक सिद्धांत प्रस्तुत किया कि यूरोप के रोमा, भारतीय जाटों के वंशज हैं। उन्हें अरबी भाषा में जोटी (बहुवचन जोट) कहा जाता था। उनका सिद्धांत मुख्य रूप से फारसी या अरब मूल के इतिहासकार और विद्वान अल तबारी के लेखन पर आधारित है। आठवें खलीफा अब्बासिद मुतसिम, जो खलीफा हारुन अल-रशीद का बेटा था, ने उजैफ बिन अनबसाह की कमान में एक शक्तिशाली सेना की टुकड़ी भेजी, जिसने जोट को पराजित किया तथा जोतिस्तान ‘जोटलैंड’ को समाप्त कर दिया। इस आक्रमण में 500 जोट मारे गए और 27,000 जोटों को बंदी बनाया गया और उनके आत्मसमर्पण के बाद बगदाद वापस लाया गया। इसके बाद उन्हें बगदाद से अयन जर्बा बाईजान्टिन साम्राज्य की सीमा पर निर्वासित किया गया था। हालांकि, इस परिकल्पना को कई इतिहासकारों ने खारिज कर दिया था। वहीं आर प्रिस्चेल ने दृढ़तापूर्वक बताया है कि इस इतिहास का संबंध रोमा से नहीं, बल्कि जाट समुदाय से है।
सर रिचर्ड फ्रांसिस बर्टन (1821-1890), जो ईस्ट इंडिया कंपनी के कप्तान थे, ने सुल्तान महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण के दौरान भारत से रोमा के विस्थापन की संभावित कड़ी को जोड़ने का कार्य किया है। रोमा लोगों के पूर्वजों के संबंध में कई तर्क दिए गए हैं। लेलैंड (1882), कोकोनोव्स्की (1968) और हाल ही में इयान हैंकॉक (2004 और 2006) ने भाषाई और ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर बताया है कि रोमा भारत की क्षत्रिय जाति के वंशज हैं। पोलिश नृविज्ञानी लेच म्रोज (1992) अपने सहज ज्ञान से एक समान निष्कर्ष पर पहुंचे कि संभवत: रोमा के पूर्वज महमूद गजनवी के भारत पर हमले के परिणामस्वरूप ईरान पहुंचे।
महमूद गजनवी के आक्रमण के दौरान उत्तर भारत से रोमा के पलायन का दूसरा महत्वपूर्ण संदर्भ चार्ल्स गॉडफ्रे लेलैंड (1882) की पुस्तक ‘द जिपसीज’ में उल्लिखित है। इसमें बताया गया है कि उत्तर-पश्चिमी भारत के जाटों में जिनमें साहस और खलीफाओं पर जीत हासिल करने की शक्ति थी, 11वीं शताब्दी में गजनवी ने हमले के कारण योद्धा के रूप में पश्चिमी देशों की ओर जाने के लिए मजबूर कर दिया था।
हाल ही में पेरिस स्थित ‘इंस्टीट्यूट फॉर ओरिएंटल लैंग्वेज एंड सिविलाइजेशन’ में प्रोफेसर मार्सेल कोरथीयाडे ने एक निष्कर्ष निकाला है कि रोमा का मूल शहर कन्नौज है। उन्होेंने बताया है कि 1018 ई. में कन्नौज और मथुरा पर महमूद गजनवी हमले के परिणामस्वरूप लोगों का पलायन भारत से जाबुलिस्तान (अफगानिस्तान) की राजधानी गजनी हुआ। अतीत में कई लेखकों ने रोमा के पलायन और 11वीं शताब्दी के दो ऐतिहासिक बिंदुओं के बीच संबंध स्थापित किए थे- महमूद गजनवी का भारत पर हमला और सेल्जुक का एशिया माइनर (1020-1064) में प्रवास। जॉर्ज सोलिस के लेख (1961) में बीजान्टिन राज्य में रोमा की उपस्थिति को दर्शाया गया है, जो 1056 ई. में आर्मेनिया पर सेलजुक के आक्रमण के परिणामस्वरूप हुआ था। रोमा बाइजैंटियम में अधिक समय तक ठहरे थे। इसलिए रोमा भाषा में अर्मेनियाई शब्दों की एक बड़ी संख्या उपलब्ध है।
यह एक स्थापित तथ्य है कि गजनवी की सेना में भारतीय सिपाही भी शामिल थे, जिन्होंने 1040 ई. में सेल्जुक सेना के खिलाफ डंडानकान में युद्ध लड़ाया। युद्ध के दौरान सेल्जुक सेना ने अधिक संख्या में लोगों को बंदी बनाया, जिसमें भारतीय योद्धाओं के अलावा शस्त्र बनाने वाले लोहार, टेंट बनाने वाले, रसोइया आदि शामिल थे। इस प्रकार उन्हें सैनिकों और योद्धाओं के रूप में बाइजैंटीनी साम्राज्य में लाया गया। एड्रियन मार्श का कहना है कि अर्मेनियाई राज्यों के विखंडन के कारण प्रोटो रोमा समूह बिखर गए और पश्चिम और कॉन्स्टेंटिनोपल की ओर चले गए, जबकि अन्य समूह तुर्की के बाद काराबाग, जॉर्जिया और कौकेसस की ओर चले गए।
जमीर अनवर (लेखक ‘सेंटर फॉर रोमा स्टडीज एंड कल्चरल रिलेशंस, अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद’ में रिसर्च एसोसिएट हैं)
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