आजादी के समय भारत आर्थिक रूप से संपन्न नहीं था और वित्तीय सहायता के लिए पाश्चात्य ईसाई देशों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों निर्भर था। इसलिए कहा जा सकता है कि तब भारत के गरीब तबके को मिशनरियों के आगे झुकना पड़ा। इसके परिणामस्वरूप संविधान में अपने पंथ के प्रचार के अधिकार पर कुछ पाबंदियां लगा दी गर्इं। लेकिन केन्द्र में एक के बाद एक रहीं सरकारें ईसाई मिशनरी दबाव के सामने मजबूर होती गर्इं।
नए हथकंडों का प्रयोग
हिन्दुओं के कन्वर्जन के लिए पैसे का इस्तेमाल तो आजादी से पहले से ही होता था, परंतु आजादी के बाद और बहुत तरह के प्रयोग किए जाने लगे। मिशनरियों ने अपने अनुभवों से पाया कि भारतीय पंथों के अनुयायी अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं से भावनात्मक तौर पर इतनी गहराई से जुड़े हैं कि तमाम प्रयासों के बावजूद भारत में बड़ी तादाद में कन्वर्जन संभव नहीं हो पा रहा। इस कठिनाई से पार पाने के लिए नए हथकंडों का प्रयोग शुरू किया गया, मदर मैरी की गोद में ईसा मसीह की जगह गणेश या कृष्ण को चित्रांकित कर ईसाइयत की सभाएं शुरू की गर्इं ताकि जनजातीय समाज को लगे कि वे तो हिंदू धर्म के ही किसी संप्रदाय की सभा में जा रहे हैं। ईसाई मिशनरियों को भगवा वस्त्रों में हरिद्वार, ऋषिकेश से लेकर तिरुपति बालाजी तक ईसाइयत का प्रचार करते देखा जा सकता है। यही हाल पंजाब का है। वहां बड़े पैमाने पर सिखों को ईसाई बनाया जा रहा है। पंजाब में चर्च का दावा है कि प्रदेश में ईसाइयों की संख्या सात से दस प्रतिशत हो चुकी है।
कन्वर्जन और जनजातीय समाज
ईसाई मिशनरी विदेशी पैसे के बल पर पिछले सात दशक में उत्तर-पूर्व के जनजातीय समाज का बड़े पैमाने पर कन्वर्जन करा चुके हैं। यही सब खेला मध्य भारत के जनजातीय क्षेत्रों में भी चल रहा है, जहां नक्सली भी इन गतिविधियों का फायदा उठाते हैं। कन्वर्जन के लिए विदेशी पैसों का इस्तेमाल देश की सुरक्षा और स्थिरता के लिए बड़ी चुनौतियों को जन्म दे रहा है। विकसित पाश्चात्य ईसाई देशों की सरकारें मतांध कट्टरपंथी ईसाई मिशनरी तत्वों को कन्वर्जन करने के लिए एशिया और अफ्रीका जैसे देशों को निर्यात करती रहती हैं। इससे दो तरह के फायदे होते हैं। एक तो इन कट्टरपंथी तत्वों का ध्यान गैर-ईसाई देशों की तरफ लगा रहता है, जिस कारण वे अपनी सरकारों के लिए कम दिक्कतें पैदा करते हैं और दूसरे, जब भारत जैसे देशों में विदेशी चंदे से कन्वर्जन होता है, तो कन्वर्टिड लोगों के जरिये विभिन्न प्रकार की सूचनाएं इकट्ठा करने और साथ ही सरकारी नीतियों पर प्रभाव डालने में आसानी होती है।
मिशनरियों के भारत विरोधी प्रपंच
उदाहरण के लिए, भारत-रूस सहयोग से स्थापित कुडनकुलम परमाणु संयंत्र से नाखुश कुछ विदेशी ताकतों ने इस परियोजना को अटकाने के लिए वर्षों तक ईसाई मिशनरी संगठनों का इस्तेमाल कर धरने-प्रदर्शन करवाए। केन्द्र की तत्कालीन संप्रग सरकार में मंत्री वी. नारायणस्वामी ने यह आरोप लगाया था कि कुछ विदेशी ताकतों ने इस परियोजना को बंद कराने हेतु धरने-प्रदर्शन कराने के लिए तमिलनाडु के एक बिशप को 54 करोड़ रुपये दिए थे। इस मामले में विदेशी चंदा प्राप्त कर रहे चार एनजीओ पर कार्रवाई की गयी थी।
इसी प्रकार का दूसरा उदाहरण वेदांता द्वारा तूतीकोरिन में लगाए गए स्टरलाइट कॉपर प्लांट का है। इस प्लांट को बंद कराने में भी चर्च का हाथ माना जाता है। तांबे का आठ लाख टन सालाना उत्पादन करने में सक्षम यह प्लांट अगर बंद न होता, तो भारत तांबे के मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर हो गया होता। यह कुछ देशों को पसंद नहीं आ रहा था और इसलिए उन्होंने मिशनरी संगठनों का इस्तेमाल कर पादरियों से यह दुष्प्रचार कराया कि यह प्लांट शहर की हर चीज को जहरीला बना देगा। इस दुष्प्रचार के बाद हिंसा भड़की और पुलिस गोलीबारी में 13 लोग मारे गए। नतीजतन इस प्लांट बंद कर दिया गया। यह अभी भी बंद है और 18 साल बाद भारत को एक बार फिर तांबे का आयात करना पड़ रहा है।
गांधी जी की ईसाई मिशनरियों से नाराजगी
महात्मा गांधी ब्रिटिश शासन के दौरान ईसाई मिशनरियों के क्रियाकलापों से खिन्न थे। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है कि राजकोट में उनके स्कूल के बाहर एक ईसाई मिशनरी हिंदू देवी-देवताओं के लिए बेहद अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता था। गांधी जी जीवन भर ईसाई मिशनरियों के सेवा कार्यों के नाम पर किए जाने वाले कन्वर्जन के विरोधी रहे। जब अंग्रेज भारत से जाने लगे तो ईसाई मिशनरी लॉबी ने प्रश्न उठाया कि स्वतंत्र भारत में क्या उन्हें कन्वर्जन करते रहने दिया जाएगा? इस पर गांधी जी ने जवाब दिया-नहीं। उनके अनुसार लोभ-लालच के बल पर कन्वर्जन करना पूरी तरह अनैतिक है। इस पर मिशनरी लॉबी ने बहुत हंगामा किया था।
दलित ईसाइयों की स्थिति
देखने की बात है यह कि अगर ईसाई समुदाय में शांति होती तो आज दलित-जनजातीय ईसाइयों की स्थिति इतनी दयनीय न होती। विशाल संसाधनों से लैस चर्च अपने अनुयायियों की स्थिति से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सरकार की दया पर छोड़ना चाहता है। दरअसल चर्च का इरादा एक तीर से दो शिकार करने का है।
ईसाइयों की कुल आबादी के आधे से ज्यादा अपने अनुयायियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखवाकर चर्च इनके विकास की जिम्मेदारी सरकार पर डालते हुए देश की कुल आबादी के पांचवें हिस्से, हिन्दू दलितों को ईसाइयत का घूंट पिलाने का ताना-बाना बुनने में लगा है। ईसा मसीह के सिद्धांत कहीं पीछे छूट गए हैं और चर्च आज साम्राज्यवादी मानसिकता का प्रतीक बन गया है।
पश्चिमी देशों के मुकाबले एशिया में ईसाइयत को उतनी सफलता नहीं मिली है। जहां एशिया में ईसाइयत में कन्वर्ट होने वालों की संख्या कम है वहीं यूरोप, अमेरिका एवं अफ्रीकी देशों में ईसाइयत का बोलबाला है। वहां राजसत्ता के विस्तार के साथ ही ईसाइयत का भी विस्तार हुआ है। ईसा के शिष्य ‘सेंट थॉमस’ ईसा की मृत्यु के दो दशक बाद ही भारत में प्रचार के लिए यहां आ गये थे। लेकिन डेढ़ हजार साल में भी ईसाइयत यहां अपनी जड़ें जमाने में कामयाब नहीं हो पायी। पुर्तगालियों एवं अंग्रेजों के आवागमन के साथ ही भारत में ईसाइयत का विस्तार होता दिखा था। चर्च ने पूरे भारत में शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों एवं सामाजिक सेवा केन्द्रों के नाम पर ईसाइयत को धीरे-धीरे यहां रोपना शुरू किया था। उसी का नतीजा है कि आज देश के 30 प्रतिशत शिक्षण संस्थानों एवं 22 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर चर्च का अधिकार है। भारत सरकार के बाद चर्च के पास सबसे ज्यादा भूमि है और वह भी देश के संभ्रांत इलाकों में।
आज भारत में कैथोलिक चर्च के 6 कार्डिनल हैं, पर कोई दलित नहीं, 30 आर्चबिशप में कोई दलित नहीं, 175 बिशप में केवल 9 दलित हैं। 822 मेजर सुपीरयर में 12 दलित हैं और 25,000 कैथोलिक पादरियों में 1,130 दलित ईसाई हैं। भारत के कैथोलिक चर्च ने इतिहास में पहली बार यह स्वीकार किया है कि ‘जिस छुआछूत और जातिभेद के दंश से बचने को दलितों ने सनातन धर्म को त्यागा था, वे आज भी उसके शिकार हैं’। वह भी उस मत में जहां कथित तौर पर उन्हें वैश्विक ईसाइयत में ‘समानता के दर्जे और सम्मान के वादे’ के साथ शामिल कराया गया था।
कैथोलिक चर्च ने 2016 में अपनी ‘पॉलिसी आॅफ दलित एम्पावरन्मेंट इन द कैथोलिक चर्च इन इंडिया’ रिपोर्ट में माना कि ‘चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है, इसे जल्द से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है’। हालांकि उसकी यह स्वीकारोक्ति नई बोतल में पुरानी शराब जैसी ही है। फिर भी दलित ईसाइयों को उम्मीद है कि भारत के कैथोलिक चर्च की स्वीकारोक्ति के बाद वेटिकन और संयुक्त राष्ट्र में उनकी आवाज सुनी जाएगी।
कुछ साल पहले दलित ईसाइयों के एक प्रतिनिधिमंडल ने संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून के नाम एक ज्ञापन देकर आरोप लगाया था कि कैथोलिक चर्च और वेटिकन दलित ईसाइयों का उत्पीड़न कर रहे हैं। जातिवाद के नाम पर चर्च संस्थानों में दलित ईसाइयों के साथ लगातार भेदभाव किया जा रहा है। कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस आॅफ इंडिया और वेटिकन के सामने बार-बार दुहाई देने के बाद भी चर्च उनके अधिकार देने को तैयार नहीं है। बान की मून को दिए ज्ञापन में मांग की गई थी कि वे चर्च को अपने ढांचे में जातिवाद के नाम पर उनका उत्पीड़न करने से रोकें और अगर चर्च ऐसा नहीं करता तो संयुक्त राष्ट्र में वेटिकन को मिले स्थाई पर्यवेक्षक के दर्जे को समाप्त कर दिया जाए।
आजादी के बाद से भारतीय ईसाई एक पंथनिरपेक्ष राज्य के नागरिक रहे हैं। यहां के चर्च को जो खास सहूलियतें हासिल हैं, वे बहुत से ईसाइयों को यूरोप एवं अमेरिका में भी हासिल नहीं हंै। इनमें विशेष अधिकार से शिक्षण संस्थान चलाने, सरकार से अनुदान पाने की सहूलियतें शामिल हैं। इन सुविधाओं के बावजूद भारतीय चर्च अपनी छोटी-छोटी समस्याओं को लेकर पश्चिमी देशों का मुंह ताकता रहता है।
ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पूर्वी राज्य या यूं कहें कि पूरे भारत में ईसाइयों के रिश्ते दूसरे पंथों से सहज नहीं रहे हैं। अधिकतर राज्यों में कन्वर्जन को लेकर दोनों वर्गों के बीच तनाव पनप रहा है और चर्च का एक वर्ग इन झंझावातों को समाप्त करने के स्थान पर इन्हें विदेशों में हवा देकर अपने हित साध रहा है।
कन्वर्जन विरोधी विधेयक
हाल में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 13 बड़े ईसाई मिशनरी संगठनों को विदेशी अनुदान विनियमन अधिनियम के तहत मिली चंदा लेने की अनुमति रद्द कर दी। इनमें से अधिकतर संगठन झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर-पूर्व के राज्यों में सक्रिय थे और कन्वर्जन के लिए विदेशी चंदे का दुरुपयोग कर रहे थे। हमेशा की तरह ‘इंटरनेशनल क्रिश्चियन कंसर्न’ जैसे संगठनों ने इस फैसले पर हाय-तौबा मचानी शुरू कर दी। बहुत संभव है कि पांथिक स्वतंत्रता के नाम पर ईसाई मिशनरियों के काम को सुगम बनाने वाले विदेशी संगठन भारत में कथित रूप से ‘घटती पांथिक स्वतंत्रता’ पर कोई ‘रिपोर्ट’ जारी कर दें।
भारत सरकार पर दबाव बनाने के लिए वे ऐसा करते रहे हैं। यह सही है कि भारतीय संविधान पांथिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है, जिसमें अपने पंथ के प्रचार का अधिकार भी शामिल है, लेकिन हर अधिकार की तरह इस अधिकार की भी कुछ सीमाएं हैं। यह जानना भी जरूरी है कि यह अधिकार किन परिस्थितियों में दिया गया था।
भारत की स्वतंत्रता के बाद संसद में कई कन्वर्जन विरोधी विधेयक पेश किए गए लेकिन कोई भी प्रभाव में नहीं आया। सबसे पहले 1954 में इंडियन कन्वर्जन (रेग्यूलेशन ऐंड रजिस्ट्रेशन) विधेयक पेश किया गया था, जिसमें मिशनरियों के लाइसेंस और कन्वर्जन को सरकारी अधिकारियों के पास पंजीकृत कराने की बात कही गई थी। यह लोकसभा में पास नहीं हो सका। इसके बाद 1960 में पिछड़ा समुदाय (पांथिक संरक्षण) विधेयक लाया गया, जिसका मकसद था कि हिंदुओं को ‘गैर-भारतीय पंथों’ में परिवर्तित होने से रोका जाए। विधेयक की परिभाषा के अनुसार, इसमें इस्लाम, ईसाई, यहूदी और पारसी मत शामिल थे। इसके बाद 1979 में फ्रीडम आॅफ रिलीजन विधेयक आया, जिसमें कन्वर्जन पर आधिकारिक प्रतिबंध लगाने की बात कही गई थी। राजनीतिक समर्थन न मिलने की वजह से ये विधेयक संसद में पास नहीं हो सके। 2015 में कानून मंत्रालय ने राय दी थी कि जबरन और धोखाधड़ी से होने वाले कन्वर्जन के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर कानून नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि कानून और व्यवस्था राज्य का विषय है।
अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं, तो मैं कन्वर्जन का यह सारा धंधा ही बंद करा दूं। मिशनरियों के प्रवेश से उन हिन्दू परिवारों में, जहां मिशनरी पैठे हैं, वेशभूषा, रीति-रिवाज और खान-पान तक में परिवर्तन हो गया है। आज भी हिन्दू धर्म की निंदा जारी है। अभी कुछ ही दिन हुए, एक ईसाई मिशनरी एक दुर्भिक्ष पीड़ित अंचल में खूब धन लेकर पहुंचा। वहां अकाल-पीड़ितों को पैसा बांटा व उन्हें ईसाई बनाया, फिर उनका मंदिर हथिया लिया और उसे तुड़वा डाला। यह अत्याचार नहीं तो क्या है! मिशनरी ने वहां उन्हीं लोगों से वह मंदिर तुड़वा डाला, जहां कुछ समय पहले तक वे ही लोग मानते थे कि वहां ईश्वर वास है।
( संपूर्ण गांधी वाङ्मय, खंड-61 पृष्ठ-48-49)
यही समय है जब ईसाई समुदाय को स्वयं का सामाजिक आकलन करना चाहिए, ताकि पता चले कि यह समुदाय अपनी मुक्ति से वंचित क्यों हैं। ईसाइयों को अब इस बात पर आत्ममंथन करने की जरूरत है कि उनके रिश्ते दूसरे मत-पंथों के अनुयायियों से सहज कैसे बने रह सकते हैं, और भारत में चर्च अपने अनुयायियों के जीवन स्तर को कैसे सुधार सकता है।
—आर.एल. फ्रांसिस, अध्यक्ष, पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट
पिछले कुछ वर्षों में कई राज्यों ने जबरन, धोखाधड़ी से या प्रलोभन देकर कन्वर्जन को प्रतिबंधित करने के लिए ‘फ्रीडम आॅफ रिलीजन’ कानून लागू किया है। एक शोध संगठन ‘पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च’ ने हाल में कई राज्यों में मौजूदा कन्वर्जन विरोधी कानूनों की तुलना करते हुए एक रिपोर्ट जारी की है। ‘पांथिक स्वतंत्रता’ से जुड़े कानून वर्तमान में 8 राज्यों में लागू हैं-ओडिशा (1967), मध्य प्रदेश (1968), अरुणाचल प्रदेश (1978), छत्तीसगढ़ (2000 और 2006), गुजरात (2003), हिमाचल प्रदेश (2006 और 2019), झारखंड (2017) और उत्तराखंड (2018)। हिमाचल प्रदेश (2019) और उत्तराखंड के कानून ऐसे विवाह को अमान्य घोषित करते हैं जिसमें अवैध कन्वर्जन किया गया हो या फिर कन्वर्जन सिर्फ विवाह के उद्देश्य से किया गया हो। इसके अलावा, तमिलनाडु ने 2002 में और राजस्थान ने 2006 और 2008 में इसी तरह का कानून पारित किया था। हालांकि, 2006 में ईसाई अल्पसंख्यकों के विरोध के बाद तमिलनाडु के कानून को निरस्त कर दिया गया था, जबकि राजस्थान के विधेयकों को राज्यपाल और राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं मिली। नवंबर 2019 में जबरन या कपटपूर्ण कन्वर्जन की बढ़ती घटनाओं का हवाला देते हुए उत्तर प्रदेश विधि आयोग ने कन्वर्जन को नियंत्रित करने के लिए एक नया कानून बनाने की सिफारिश की थी। इसी के आधार पर राज्य सरकार ने हाल ही में एक अध्यादेश पारित किया।
देश को इस गंभीर खतरे से बचाने के लिए विदेशी चंदे पर पूरी तरह रोक के साथ ही मिशनरी संगठनों की गतिविधियों पर सख्त पाबंदी आवश्यक है। रा.स्व.संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत के शब्दों में, ‘‘हिंदू परंपरा ऐसे कन्वर्जन की इजाजत नहीं देती, जिसमें किसी व्यक्ति के मानवाधिकार का उल्लंघन होता हो।’’ पांथिक सभाएं करने से पहले मिशनरी संगठनों के लिए स्थानीय पुलिस-प्रशासन को जानकारी देना आवश्यक होना चाहिए।
अपनी पांथिक सभाओं में चर्च संगठनों द्वारा दूसरे मत-पंथों के देवी-देवताओं और प्रतीकों का प्रयोग करने को छल की श्रेणी में रखा जाना चाहिए, धार्मिक नगरों और साथ ही सामरिक रूप से महत्वपूर्ण ठिकानों के आसपास उन पर कड़ी निगाह रखी जानी चाहिए, क्योंकि चर्च का कन्वर्जन दुष्चक्र सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करने के साथ ही देश की सुरक्षा के लिए चुनौती बन रहा है।
सुखदेव वशिष्ठ, (लेखक विद्या भारती के प्रचार प्रमुख हैं)
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