पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : हिन्दू धर्म क्यों?
लेखक : प्रो. दिनेशचन्द्र शास्त्री
प्रकाशक : स्वामी विवेकानंद विचार मंच, 30, योगी विहार ज्वालापुर, हरिद्वार-249407
पृष्ठ : 32
मूल्य : नि:शुल्क
हाल ही में प्रकाशित लघु पुस्तिका ‘हिन्दू धर्म क्यों?’ एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय का प्रतिपादन करती है। पुस्तिका में हिन्दू धर्म के संबंध में फैलाई जा रही मिथ्या धारणाओं को तर्क और संदर्भ के साथ निरस्त कर इसे सही और वास्तविक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इसकी प्रस्तावना विख्यात अर्थशास्त्री डॉ. बजरंग लाल गुप्त ने लिखी है। वे लिखते हैं, ‘‘हिन्दू धर्म के संबंध में भ्रांत धारणा का एक प्रमुख कारण ‘धर्म’ शब्द के सही अर्थ को न समझना है। धर्म शब्द का अनुवाद रिलीजन, मजहब अथवा पंथ-सम्प्रदाय के रूप में कर दिया जाता है। वास्तव में ये सभी अनुवाद गलत एवं भ्रामक हैं। धर्म शब्द का कोई अनुवाद नहीं हो सकता। लेखक ने धर्म शब्द के मंतव्य को समझाने के लिए महाभारत के ‘धारणाद् धर्ममित्याहु’ बोध वाक्य का उल्लेख किया है। धर्म शब्द वस्तुत: ‘धृ’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है धारण, रक्षण, एवं पोषण। .. जिनसे व्यक्ति का, परिवार का, समाज का, राष्टÑ का, विश्व का एवं सृष्टि का धारण, रक्षण, एवं पोषण हो सकता है, उसे धर्म कहा जाएगा।’’
धर्म के प्रतिपादन को समझाने के लिए लेखक ने, वेद, उपनिषद, महाभारत तथा गीता में बताई धर्म की परिभाषाएं प्रस्तुत की हैं। मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं-
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रयनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।
अर्थात् धैर्य रखना, क्षमा करना, इच्छाओं का दमन करना, चोरी न करना, इन्द्रियों पर काबू रखना, बुुद्धि से काम लेना, पवित्रता रखना, सीखने की प्रवृत्ति होना, सत्य बोलना और क्रोध न करना धर्म के दस लक्षण हैं। स्पष्ट है कि ये सभी सदाचार के तत्व हैं। पूजा-पद्धति धर्म नहीं है। हिन्दू धर्म में कोई मूर्ति पूजा करे या ना करे, सगुण-साकार को माने या निराकार को, एक इष्ट की पूजा करे या सभी देवी-देवताओं को पूजे, फिर भी वह हिन्दू ही है। इस संदर्भ में धर्मशास्त्र में कुछ विशेष लक्षण बताए गए हैं कि वह परमात्मा को सर्वव्यापक माने, प्रकृति से समन्वय रख कर चले, पुनर्जन्म में विश्वास करे, कर्म के अनुसार फल मिलने पर भरोसा रखे तो वह हिन्दू है। यदि हिन्दू धर्म का विश्व में प्रसार हो तो शांति निश्चित होगी। विश्व की समस्त अशांति का कारण धार्मिक असहनशीलता है। यह विचार ही अशांतिकारक है कि सब एक ही प्रकार के वस्त्र पहनें, एक ही पद्धति से पूजा करें। एक ही प्रकार का भोजन करें। स्पष्ट है कि मानवीय स्वतंत्रता का गला घोंट कर शांति स्थापित नहीं की जा सकती।
कर्म विज्ञान को लेखक ने भली प्रकार स्पष्ट किया है कि कर्म से ही भाग्य बनता है। पुण्य कर्म ही हमारे भावी जीवन को अच्छा बनाते हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की भी व्याख्या की गई है। साथ ही लेखक ने हिन्दू धर्म और अन्य मतों के बीच के अन्तर को बताने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं, ‘‘कल्पना करो एक हिन्दू है। वह कितना ही अच्छा कार्य करे, परन्तु यदि ईसा पर विश्वास नहीं रखता है तो ईसाई मतानुसार मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। इसी प्रकार यदि वह मुहम्मद पर विश्वास न रखे तो इस्लाम की शिक्षा के अनुसार स्वर्ग में नहीं जा सकता।… ऐसा हिन्दू धर्म में नहीं होता है।’’
अन्त में लेखक ने हिन्दुओं को दिशा-निर्देश दिया है। लेखक ने बड़े-बड़े राष्टÑ मंदिर की स्थापना करने का सुझाव दिया है। गोमाता, सरस्वती माता तथा भारत माता की पूजा-अर्चना की व्यवस्था की जरूरत बताई है और वहां नित्य मिलने की प्रेरणा दी है। उसने अपने प्राचीन धर्म ग्रंथों के अध्ययन की प्रेरणा भी दी है, ताकि भारत पुन: विश्वगुरु बन सके। पुस्तिका अपने लघु कलेवर में एक महान लक्ष्य की सिद्धि के लिए प्रेरक है। यह पुस्तिका उन पाठकों को अवश्य पढ़नी चाहिए, जो हिन्दू धर्म और अन्य मत-पंथों के बीच के अन्तर को समझना चाहते हैं। -आचार्य मायाराम पतंग
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