हर्ष वर्धन त्रिपाठी
देश के किसानों की बेहतरी के लिए बरसों से सुझाए जा रहे सुधारों को नरेंद्र मोदी सरकार ने तीन कृषि कानूनों की शक्ल में लागू कर दिया, लेकिन इनके विरुद्ध पंजाब में वामपंथी किसान संगठनों के छिटपुट विरोध से शुरू आंदोलन राजनीतिक शक्ल में भयावह होता चला गया और दिल्ली की सीमाओं को घेरकर बैठे किसान संगठनों ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने से कम पर आंदोलन खत्म करने से साफ इनकार कर दिया। प्रश्न उठता है कि, आखिर इन तीनों कृषि कानूनों में इतना बुरा क्या है कि किसान संगठन दिल्ली की सीमाओं को घेरकर बैठे हैं और लोगों के जनजीवन को अस्त-व्यस्त करते हुए आम जनता के गुस्से का भी ख़्याल नहीं रख रहे।
दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुस्साहसिक निर्णय लिया है। भले ही इसे 1991 के औद्योगिक सुधारों जैसा किसानों के हालात बदलने वाला कदम कहा जा रहा है, लेकिन यह उससे ज्यादा बड़ा है क्योंकि 1991 का औद्योगिक सुधार का फैसला तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी नरसिंहराव ने मजूबरी में लिया था। तब देश की अर्थव्यवस्था को उबारने का और कोई रास्ता नहीं था। लेकिन प्रधानमंत्री ने पहले किसानों की आमदनी को दोगुना करने का लक्ष्य तय किया। उसके बाद चरणबद्ध तरीके से राष्ट्रीय कृषि आयोग के अध्यक्ष प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन की सिफारिशों को एक-एक करके लागू किया। कृषि कानूनों को लागू करने के पीछे कोई मजबूरी नहीं थी, हां समयबद्ध तरीके से किसानों की आमदनी को दोगुना करने का एक लक्ष्य प्राप्त करने की योजना जरूरी है। इसमें अच्छे बीज, सिंचाई की सुविधा, गांवों तक मजबूत बुनियादी ढांचा, किसानों के हाथ में जरूरत के समय किसान क्रेडिट कार्ड के जरिये रकम और पूरे देश की मंडियों को जोड़ने वाले राष्ट्रीय कृषि बाजार की योजना को लागू करने के बाद देश के किसानों को स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के जरिये अपनी उपज की कीमत तय करने का अधिकार देने के लिए कृषि कानूनों को पारित किया।
क्या हैं तीनों कृषि कानून
पहले तीनों कृषि कानूनों को समझें। पहला कानून जिसका नाम ‘कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020’ है, यह कानून किसानों को एपीएमसी मंडियों के अलावा दूसरे विकल्प भी देगा। पहले एपीएमसी मंडी से बाहर कृषि उपज की खरीद-बिक्री नहीं की जा सकती थी। इस कानून के लागू होने से मंडी समितियों और उससे जुड़े बिचौलियों के एकाधिकार को चुनौती मिली है। इससे किसानों को दो तरह से लाभ होगा। पहला- उन्हें निजी मंडियों का विकल्प मिलेगा। दूसरा- निजी मंडियों के आने से पहले से चल रही एपीएमसी मंडियां भी अधिक प्रतिस्पर्धी होंगी और किसानों को अधिक सुविधा के साथ उनकी उपज की बेहतर कीमत मिल सकेगी। किसान संगठन आरोप लगा रहे हैं कि निजी मंडियों को लाइसेंस फीस और दूसरी शर्तों से छूट देकर सरकार धीरे-धीरे एपीएमसी मंडियों को खत्म कर देगी और धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की व्यवस्था भी खत्म हो जाएगी।
दूसरा कानून ‘कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्वासन और कृषि सेवा करार कानून, 2020’ है। कमाल की बात यह है कि देश के बड़े हिस्से में पहले से ही अलिखित तौर पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की जा रही है। पंजाब में अधिकांश किसान कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कर रहे हैं, लेकिन केंद्र सरकार के कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग ऐक्ट की यह कहकर आलोचना की जी रही है कि इसमें विवाद की स्थिति में कंपनियों के पास अधिक अधिकार और ताकत होगी। तीसरा कानून ‘आवश्यक वस्तु संशोधन कानून, 2020’ है। इसके तहत निजी क्षेत्र को असीमित भंडारण की छूट दी जा रही है। किसान संगठन और राजनीतिक दल यह कहकर इसका विरोध कर रहे हैं कि इससे आने वाले समय में महंगाई बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी क्योंकि निजी निवेश करने वाले कारोबारी असीमित भंडारण करके उपज की कीमत तय करने लगेंगे और, देश में जमाखोरी और कालाबाजारी बढ़ जाएगी।
मूल चिंता एमएसपी खत्म होने की
किसान संगठन इन तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर अड़ गये हैं, लेकिन इनके नेताओं को ध्यान से सुनने पर समझ आता है कि, किसानों की सबसे बड़ी चिंता धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) खत्म होने की आशंका है। और, यह आशंका इसके बावजूद है कि अभी तक देश के सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही सरकारी खरीद का लाभ मिल पाता है। शांता कुमार समिति ने यह आँकड़ा बताया था, लेकिन इसके जवाब में किसान संगठन आशंका जताते हैं कि अभी तक इन तीनों कानून के न होने से सरकारी खरीद होने की बाध्यता थी। केंद्र सरकार इसके जवाब में स्पष्ट तौर पर कहती है कि केंद्र ने पहले से ज्यादा खरीद की है और सरकार सार्वजनिक वितरण के लिए किसानों से सीधे अनाज खरीदेगी और एमएसपी पर खरीदेगी।
किसान संगठनों से वार्ता के दौरान कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने जिन माँगों पर लिखित में आश्वासन देने की माँग मानी थी, उसमें सबसे ऊपर यही आश्वासन था कि, एमएसपी पर सरकारी खरीद जारी रहेगी, लेकिन सरकार का स्पष्ट कहना है कि वह निजी खरीद को एमएसपी से कानूनी तौर पर बाध्य नहीं कर सकती। और, बाजार का सिद्धांत भी यही कहता है कि बाजार में न्यूनतम कीमतें तय करने से बाजार में चोरी-छिपे खरीद होने का खतरा बढ़ जाएगा और कृषि कानूनों के जरिये स्वस्थ प्रतिस्पर्धा से किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य दिलाने वाले लक्ष्य को प्राप्त करना लगभग असंभव हो जाएगा। किसान संगठनों के राजनीतिक मंच से इतर किसानों से बात करने पर यह बात अच्छे से समझ आती है कि किसानों को बाजार में उपज की कीमत कई बार बहुत कम मिल रही होती है और इसकी वजह होती है बाजार में उस उपज की अधिकता, लेकिन इसके बावजूद किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे अपनी उपज स्थानीय बाजार में बेचकर अगली फसल की तैयारी और घर के खर्च चलाने के लिए रकम का इंतजाम कर लेता है, लेकिन एक बार न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे बेचना गैरकानूनी हो गया तो कानून के फंदे में फँसने के डर से बड़ी कंपनियाँ किसानों से सीधे खरीद से बचेंगी और स्थानीय बाजार में भी कानूनी डर की वजह से जाहिर तौर पर सौदे नहीं होंगे।
विरोध में दोहरी बात
तीनों कृषि कानूनों पर किसान संगठन कैसे दोहरी बात करते हैं, इसका एक शानदार उदाहरण यह है कि वे न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे मंडी से बाहर होने वाली खरीद पर भी कानूनी बाध्यता चाहते हैं, लेकिन कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग ऐक्ट के जरिये कानूनी बाध्यता के विरोध में आवाज बुलंद करने लगते हैं। पंजाब के किसान कह रहे हैं कि हमारे यहां तो पहले से ही कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग हो रही है तो फिर किसी एक्ट की क्या जरूरत है जबकि, सच्चाई यह है कि पंजाब में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट 2013 से लागू है और उस कानून के मुताबिक, किसान ने एक बार कंपनी के साथ सौदा कर लिया तो वह समझौते से बाहर नहीं निकल सकता और उस पर 5 लाख रुपये तक का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। जबकि, केंद्र सरकार का कानून स्पष्ट तौर पर किसी भी किसान को यह सहूलियत देता है कि वह जब चाहे, कॉन्ट्रैक्ट से बाहर निकल जाए। कॉन्ट्रैक्ट होने के बाद किसान की जमीन के दुरुपयोग और कंपनी के उस पर कर्ज लेने की आशंकाओं के मामले में भी सरकार पूरी तरह से स्पष्टीकरण दे चुकी है कि, केंद्र सरकार के कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट में स्पष्ट है कि किसान की जमीन का कोई समझौता नहीं हो सकता, सिर्फ तय उपज के लिए समझौता हो सकता है और समझौते में किसी भी तरह से कंपनी के कर्ज या दूसरी देनदारी को किसान की जमीन के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। कुल मिलाकर किसानों के ऊपर किसी तरह के कॉन्ट्रैक्ट में तय उपज को छोड़कर कोई जवाबदेही नहीं होगी। अभी तक कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की कोई कानूनी बाध्यता न होने से कंपनियों के साथ करार करने से छोटे किसान हिचक रहे हैं, लेकिन अब कानूनी बाध्यता के साथ छोटे किसानों को संरक्षण मिलने से वे अब अपनी उपज के लिए कंपनियों के साथ कॉन्ट्रैक्ट करके उपज की ज्यादा कीमत प्राप्त कर सकेंगे।
सीधा असर नहीं, लेकिन विरोध
तीसरे कानून ‘आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020 से सीधे तौर पर किसानों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला, लेकिन किसान संगठन कह रहे हैं कि इससे भविष्य में महंगाई बढ़ेगी। जबकि, इसका दूसरा पहलू यह है कि देश में अनाज, फल-सब्जियां रखने के लिए गोदामों की कमी की वजह से बरबादी होती है और इसका सबसे बुरा असर किसानों पर पड़ने के साथ मध्यमवर्ग को महंगाई भी झेलनी पड़ती है। अगर, कोई निजी निवेशक वेयरहाउस में निवेश करेगा और किसान की उपज उसमें रखी जाएगी तो उसकी बरबादी को रोकने के साथ कीमतों पर नियंत्रण भी रहेगा क्योंकि देश भर में गोदाम बनने से अनाज, फल-सब्जियों की उपलब्धता रहेगी और बाजार के सिद्धांत के मुताबिक, एक तय सीमा से ज्यादा कीमत बढ़ने पर दूसरा कारोबारी बाजार में आपूर्ति करके लाभ कमाने की कोशिश करेगा।
एमएसपी पर सरकारी खरीद को आँकड़ों के जरिये समझें। 5 अप्रैल, 2021 तक खरीफ मार्केटिंग सत्र 2020-21 में धान की सरकारी खरीद 6,95,23,000 टन हुई है। पिछले वर्ष इसी समय तक धान की खरीद 6,22,32,000 टन रही थी। इससे स्पष्ट है कि पिछले वर्ष से इस वर्ष सरकारी खरीद ज्यादा हुई है। इस खरीद में सबसे ज्यादा करीब 30 प्रतिशत पंजाब की हिस्सेदारी है। इसे ऐसे समझें कि देश में 100 टन की सरकारी खरीद हुई तो 30टन पंजाब के किसानों ने सरकारी खरीद में एमएसपी पर बेचा। सरकारी खरीद से करीब 1,03,00,000 किसानों के खाते में करीब एक 1,31,248 करोड़ रुपये गये हैं। अब यह भी जान लीजिए कि सरकारी खरीद क्यों होती है। दरअसल, सरकारी खरीद गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को सस्ती दर पर अनाज देने के लिए होती है। 1966 में इसकी शुरुआत हुई थी, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद से किसानों का कितना भला हो सका है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस व्यवस्था के लगातार जारी रहने को 5 दशक से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना भी प्राप्त नहीं हो पा रहा है। स्वर्गीय अरुण जेटली ने वित्त मंत्री रहते कहा था कि मोदी सरकार किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना देने को प्रतिबद्ध है।
बिचौलियों को बचाने की लड़ाई
दूसरा आंकड़ा फिर से बताना जरूरी है कि देश के 100 में से सिर्फ़ 6 किसानों को सरकारी खरीद का लाभ मिल पाता है। यही वजह है कि दिल्ली की सीमाओं को घेरकर बैठे पंजाब के किसानों के साथ देश के दूसरे हिस्सों के किसान आने को तैयार नहीं हैं क्योंकि, उन्हें स्पष्ट समझ आ रहा है कि ये तीनों कृषि कानून मूल रूप से किसानों के हितों पर बिचौलियों के हितों के हावी होने को खत्म करने के लिए है। और, इसका प्रमाण इसी से मिल जाता है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने साफ कहा है कि आढ़तियों के हितों को बचाने के लिए वह किसी भी हद तक जाएँगे।
मार्च 2019 में पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर ने पेप्सिको फ्रैंचाइजी प्लांट का उद्घाटन करते हुए कहा था कि, इससे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को रोजगार मिलेगा और किसानों को उनकी उपज की सही कीमत मिल सकेगी, लेकिन कमाल की बात यह है कि अब वे खुलेआम कह रहे हैं कि आढ़तियों के हितों की रक्षा करने के लिए वे किसी भी हद तक जाएँगे। केंद्र सरकार ने सरकारी खरीद के लिए अब खसरा खतौनी (किसानों की जमीन का कागज) जरूरी कर दिया है, साथ ही यह भी कि दूसरे राज्यों की ही तरह पंजाब के किसानों के खाते में सीधे ही सरकारी खरीद के बाद उससे मिलने वाली रकम जाएगी। पंजाब के बिचौलियों ने इसके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। पहले पंजाब और फिर दिल्ली की सीमाओं को घेरकर बैठे किसानों आंदोलन में उनकी हिस्सेदारी के बारे में अकसर यह बात कही जाती रही है कि सामान्य किसानों की भागीदारी इस आंदोलन में बहुत कम है और यह आंदोलनों ज्यादातर बड़े किसानों और आढ़तियों के बूते चलाया जा रहा है। सरकारी खरीद की रकम किसानों के खाते में सीधे देने के केंद्र सरकार के फैसले के खिलाफ जिस तरह से आढ़तियों के साथ पंजाब की कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार खड़ी दिख रही है, उससे स्पष्ट है कि किसानों के नाम पर चल रहे आंदोलन की रास किसके हाथ में है। सरकारी खरीद के तंत्र का दुरुपयोग पंजाब में कैसे हो रहा है, कि इसका प्रमाण तब सामने आया जब धान की कुल पैदावार से 20 लाख टन ज्यादा सरकारी खरीद पंजाब में हो गयी। इसका सीधा मतलब हुआ कि बिचौलियों ने सिर्फ मंडी के तंत्र का ही दुरुपयोग नहीं किया बल्कि, उसके जरिये दूसरे राज्यों से सस्ते में धान खरीदकर पंजाब में सरकारी खरीद में एमएसपी लेकर लाभ कमा लिया। दरअसल कानूनी तौर पर निजी खरीद में भी एमएसपी लागू करने की मांग को लेकर दिल्ली की सीमाओं को घेरकर बैठे किसान संगठन और बिचौलिये उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों को एमएसपी देने को तैयार नहीं हैं। यहां एक और आंकड़ा बताना जरूरी है कि सरकारी खरीद की जरूरत का करीब तीन गुना सरकारी भंडार में है और सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सस्ता राशन देने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने को बाध्य है।
किसान उत्पादक संगठन की तैयारी
कुल मिलाकर तीनों कृषि कानूनों पर किसान संगठन और सरकार के बीच की यह लड़ाई बिचौलियों को खत्म करने और उन्हें बचाने की लड़ाई हो गयी है। केंद्र सरकार ने किसान संगठनों के अड़ियल रवैये से निबटने के लिए अब किसानों को ही नेता बनाने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया है। एक अप्रैल से शुरू हुए इस वित्तीय वर्ष में मोदी सरकार 2,500 किसान उत्पादक संगठनों को तैयार करने के लक्ष्य पर काम कर रही है। केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने नये कृषि उत्पादक संगठनों को प्रोत्साहित करने के लिए संबंधित विभागों की बैठक में देश के 6,600 विकासखंडों में कम से कम एक किसान उत्पादक संगठन तैयार करने का लक्ष्य रखा है। इसके जरिये सरकार आधुनिक कृषि कानूनों से लाभ पाने वाले किसानों की एक ऐसी फौज तैयार करना चाहती है जो व्यावहारिक तौर पर उदाहरण के साथ कृषि कानूनों से मिलने वाले लाभ के बारे में लोगों को बता सके, साथ ही किसानों के नाम पर चल रहे संगठनों के कृषि कानूनों के विरोध की हवा भी निकाल सकें। प्रधानमंत्री ने हाल में बीते संसद सत्र मं 8 फरवरी, 2021 को राज्यसभा में कहा कि कृषि कर्जमाफी किसानों के भले का नहीं, चुनावी कार्यक्रम होता था और इससे छोटे किसानों को कभी लाभ नहीं होता था। कृषि कर्जमाफी हो या न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद किसानों को दोनों का न्यूनतम लाभ मिल रहा है और किसानों के नाम पर राजनीति करने वालों को अधिकतम। इसीलिए प्रधानमंत्री का तीनों कृषि कानूनों को लागू करने और किसानों की आमदनी को दोगुना करने का लक्ष्य प्राप्त करने का यह दुस्साहसिक फैसला प्रशंसनीय है। धीरे-धीरे देश के सामान्य किसानों को यह बात अच्छे से समझ में आ रही है।
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