अरुण कुमार सिंह
इन दिनों हरियाणा-दिल्ली की सीमा ‘सिंघु बॉर्डर’ किसान आंदोलन के लिए पूरी दुनिया में चर्चित है। यहां कुछ किसान केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग के साथ लगभग चार महीने से आंदोलन कर रहे हैं। पर सिंघु बॉर्डर के आसपास के अनेक गांवों के किसान अपने को आंदोलन से दूर रखकर खेती-किसानी में नित नए प्रयोग कर रहे हैं। यही नहीं, इन गांवों के किसान परंपरागत कृषि से हटकर अलग किस्म की खेती करके अच्छा पैसा कमा रहे हैं। कुछ किसान फूलों की खेती करते हैं, तो कुछ मशरूम की। कुछ बेमौसमी सब्जियों का उत्पादन करते हैं तो कुछ स्ट्रॉबेरी (झरबेर) की खेती से मालामाल हो रहे हैं, वहीं कुछ नई तकनीक अपनाकर सब्जी की खेती करके दूसरे किसानों के लिए प्रेरक सिद्ध हो रहे हैं। कुछ मछली पालन करके अच्छी कमाई कर रहे हैं। यहां ऐसे ही कुछ किसानों की गाथा प्रस्तुत है
‘पॉली ग्रीन हाउस’ में खेती का एक दृश्य
तकनीक से मिली तरक्की
योगेश चौहान दहीसरा (सोनीपत)
हरियाणा के सोनीपत जिले में एक गांव है दहीसरा। इस गांव के किसान परंपरागत धान, गेहंू के अलावा लीक से हटकर खेती करने के लिए जाने जाते हैं। एक ऐसे ही किसान हैं योगेश चौहान। कुछ समय पहले तक ये खेती के अलावा कृषि में काम आने वाली मशीन चलाते थे। कुछ कारणवश उन्होंने मशीन का काम छोड़ दिया और सिर्फ खेती ही करने लगे, लेकिन आमदनी इतनी कम की कि परिवार की जरूरतों को पूरा करना भी भारी हो रहा था। इसके बाद उन्होंने नई तकनीक से खेती करने का विचार किया। सबसे पहले उन्होंने एक एकड़ जमीन पर 18,00,000 रु. की लागत से ‘पॉली ग्रीन हाउस’ बनवाया। इसमें पौधों को पूरी तरह से ढक कर रखा जाता है, ताकि अधिक गर्मी और कीड़ों से उन्हें बचाया जा सके। इसके बाद उन्होेंने वहां खीरे की खेती शुरू की। पहले उन्होंने उत्तम किस्म के बीज से खीरे की बेल तैयार की। इसके बाद उन्होंने ‘पॉली ग्रीन हाउस’ के अंदर लगभग 30,000 बेल लगवाई। एक बेल में एक बार में 50 से अधिक खीरे तैयार हो रहे हैं। वे रोजाना लगभग तीन कुंतल खीरा बेच रहे हैं। योगेश कहते हैं, ‘‘किसान को तकनीक के साथ चलना ही होगा, नहीं तो जमीन रहते हुए भी अभाव की जिंदगी जीना होगा।’’ उन्होंने यह भी कहा, ‘‘ग्रीन हाउस तैयार करने में सरकार मदद करती है। इसलिए किसान को ग्रीन हाउस वाली खेती पर जोर देना चाहिए। इससे पानी की बचत तो होती है, साथ ही पौधे की उम्र भी लंबी होती है। जब पौधा ज्यादा समय तक रहेगा तो फल भी ज्यादा वक्त तक मिलेगा। यानी एक जोत में ही किसान लंबे समय तक उत्पादन कर सकता है। इससे किसान की लागत कम होती है और किसान की लागत कम होने का मतलब है उसकी आमदनी बढ़ेगी।’’ उल्लेखनीय है कि ‘पॉली ग्रीन हाउस’ में पौधों की ड्रिप सिंचाई (पाइप के जरिए बूंद-बूंद में पानी और अन्य आवश्यक पोषक तत्व पौधों की जड़ में डालना) होती है। इसके लिए पूरे खेत में पाइप लाइन बिछाई जाती है और उसी के जरिए पौधों को पानी दिया जाता है। इससे पौधों को बिल्कुल संतुलित पानी मिलता है। इसका लाभ यह होता है कि पानी बर्बाद नहीं होता है। सामान्य रूप से एक एकड़ जमीन में पानी डालने के लिए पांच एचपी की मशीन को कम से कम पांच घंटे चलानी पड़ती है, वहीं ड्रिप सिंचाई में सिर्फ आधे घंटे में एक एकड़ जमीन पर लगे पौधों को पानी मिल जाता है।
कुणाल की कृषि-यात्रा
कुणाल गहलोत, तिगीपुर (दिल्ली)
दिल्ली के तिगीपुर के युवा किसान कुणाल गहलोत खेती में नई तकनीक अपनाने वाले अपने गांव के पहले व्यक्ति हैं। वे परंपरागत खेती के साथ-साथ नई तकनीक के सहारे बेमौसमी सब्जियां (ब्रोकली, टमाटर, खीरा, मूली, धनिया, ककड़ी आदि) उगाते हैं। उन्होंने दो एकड़ जमीन पर ‘पॉली ग्रीन हाउस’ बनवाया है। एक बार ‘पॉली ग्रीन हाउस’ तैयार हो जाने पर लगभग 25 साल तक उसमें खेती की जा सकती है। कुणाल कहते हैं, ‘‘पहले सिर्फ गेहूं और धान की खेती करते थे। इससे ज्यादा आमदनी नहीं होती थी। कुछ अलग हटकर खेती करने का विचार आया तो पूसा संस्थान से संपर्क किया। वहां कुछ दिनों तक प्रशिक्षण लेने के बाद लगा कि खेती से तो अच्छा और कोई काम ही नहीं है। इसके बाद मैंने ग्रीन हाउस बनवाया और सब्जी की खेती शुरू कर दी। आज उसी से पूरा परिवार खुशहाल है और कुछ लोगों को नियमित रूप से काम भी मिल रहा है।’’ इस समय कुणाल 15 एकड़ जमीन पर कई तरह की खेती करते हैं। इसके अलावा कुणाल कई फसलों के बीज भी तैयार करते हैं। बीज तैयार करने का भी उन्होंने पूसा संस्थान से प्रशिक्षण लिया हुआ है। ये एक ही जोत में अनेक प्रकार की फसल भी उगाने में माहिर हैं। कुणाल खुद ही कहते हैं, ‘‘प्रतिवर्ष लगभग 30,00,000 रु. की कमाई हो जाती है। आधी कमाई सब्जियों से और शेष बीज बनाने से होती है।’’ कुणाल की इस कामयाबी से दूसरे किसान भी प्रेरित होकर अलग किस्म की खेती करने लगे हैं।
फूलों से महका जीवन
संदीप कुमार, तिगीपुर (दिल्ली)
तिगीपुर के ही एक अन्य किसान हैं संदीप कुमार। ये भी नई किस्म की खेती के लिए जाने जाते हैं। इस समय इन्होंने एक एकड़ जमीन पर गेंदा फूल की कई प्रजातियों के पौधे लगाए हैं। इतने फूल होते हैं कि इन्हें हफ्ते में दो बार उनकी तुड़ाई करनी पड़ रही है। ये हर सप्ताह लगभग तीन कुंतल फूल बेचते हैं। संदीप कहते हैं, ‘‘यह बहुत अच्छी खेती है। कम लागत में भी इतनी कमाई हो जाती है कि एक परिवार आसानी से अपना गुजर-बसर कर सकता है।’’ उल्लेखनीय है कि एक एकड़ जमीन पर फूल की खेती करने के लिए लगभग 12,000 रु. का खर्च आता है। गर्मियों में हफ्ते में दो बार पानी देना होता है और हल्की खाद भी देनी पड़ती है। सर्दियों में तो पानी बहुत ही कम देना पड़ता है। इस मामूली खर्च के अलावा और कोई खर्च नहीं है। एक बार पौधे लगाने के बाद दो महीने तक उनसे फूल मिलते हैं। सामान्य दिनों में बाजार में 40 रु. प्रतिकिलो फूल बिकते हैं, जबकि शादी या किसी त्योहार के समय इसकी कीमत 100 रु. से अधिक हो जाती है। इसलिए फूल की खेती कभी घाटे का सौदा नहीं रहती है।
संदीप मशरूम की भी खेती करते हैं। हालांकि इन दिनों गर्मी बढ़ने के कारण इसकी खेती बंद है। वे हर साल बरसात के बाद मशरूम की खेती शुरू कर देते हैं।
झरबेर से झरता पैसा
सतीश कुमार, सुंगरपुर (दिल्ली)
सुंगरपुर (दिल्ली) के सतीश कुमार जोखिम वाली खेती के लिए प्रसिद्ध हैं। वे उस स्ट्रॉबेरी (झरबेर) की खेती करते हैं, जिसका पौधा बहुत ही महंगा मिलता है और जो मौसम के तनिक भी उतार-चढ़ाव को बर्दाश्त नहीं कर पाता है। इस समय उन्होंने पांच एकड़ जमीन पर झरबेर के पौधे लगाए हैं। झरबेर की खेती सितंबर में शुरू हो जाती है। अक्तूबर तक इसकी बेल तैयार हो जाती है और नवंबर की शुरुआत से फल मिलने लगते हैं। सतीश ने बताया, ‘‘एक एकड़ जमीन पर 30,000 पौधे लगाए जा सकते हैं और सब कुछ अनुकूल रहा तो इन सबसे 15 टन झरबेर का उत्पादन हो सकता है।’’ वे यह भी कहते हैं, ‘‘झरबेर की खेती एक तरह से जुआ है। यदि फसल अच्छी हो गई तो बल्ल-बल्ले नहीं, तो फिर भगवान ही मालिक…।’’ उल्लेखनीय है कि झरबेर विदेशी फल है। इसका कोई बीज नहीं होता है। इसे उतक (टिसू) से तैयार किया जाता है। मूल रूप से यह अमेरिका से भारत आया है। फिलहाल इसके पौधे शिमला में तैयार होते हैं। वहीं से किसान देश के अन्य हिस्सों में ले जाकर इसकी खेती करते हैं। झरबेर की खेती के लिए पहली बार प्रति एकड़ लगभग 7,00,000 रु. का खर्च आता है। बाजार में झरबेर की जबर्दस्त मांग रहती है। हालत यह है कि इसकी खपत जितनी है, उतनी पैदावार नहीं है। बाजार में सामान्यत: 800-900 रु. प्रति किलो की दर से झरबेर मिलता है।
सतीश तरबूज की भी खेती करते हैं। इस समय उन्होंने 18 एकड़ जमीन पर तरबूज के पौधे लगाए हैं।
मछली पाली, आमदनी बढ़ी
कमल सिंह चौहान, दहीसरा (सोनीपत)
दहीसरा गांव (सोनीपत) के रहने वाले किसान कमल सिंह चौहान भी उन किसानों में शामिल हैं, जो लीक से हटकर कुछ करने में विश्वास रखते हैं। वे इन दिनों परंपरागत खेती के साथ मछली पालन कर रहे हैं। इनके पास 12 एकड़ जमीन है। इनमें से डेढ़ एकड़ जमीन को उन्होंने आठ फुट तक गहरा खुदवा कर उसमें मछली पाल रहे हैं। कमल कहते हैं, ‘‘लॉकडाउन से पहले तक मैं दिल्ली के केशोपुर मंडी में आढ़ती का काम करता था। लॉकडाउन के कारण वह काम बंद हो गया। कुछ दिन पहले किसी ने बताया कि हरियाणा का मत्स्य विभाग सोनीपत मेें किसानों को मछली पालन का प्रशिक्षण दे रहा है। मैंने भी वहां मछली पालन का प्रशिक्षण लिया और अब पूरा मन उसी काम मेें लगा है।’’ प्रशिक्षण लेने के बाद उन्होंने 5,00,000 रु. खर्च करके अपने खेत में तालाब बनवाया और इसके बाद मछली पालन शुरू कर दिया। इस कार्य में उन्हें हरियाणा सरकार की ओर से 3,42,000 रु. की मदद भी मिली है। इस तरह उन्हें अपनी जेब से केवल 1,58,000 रु. खर्च करने पड़े हैं। तालाब में इठलाती मछलियों को देखकर कमल बहुत खुश होते हैं और कहते हैं, ‘‘इस बार करीब लगभग 2,50,000 रु. का काम हो सकता है।’’
मछली पालन का काम बहुत आसान भी नहीं होता है। मछलियां मरें नहीं, इसके लिए पानी में सदैव आॅक्सीजन होनी चाहिए। सुबह के समय पानी में आॅक्सीजन कम होती है। इसकी भरपाई के लिए पानी में रोजाना एक मशीन चलानी पड़ती है। इससे पानी में लहरें उठती हैं और आॅक्सीजन की मात्रा बढ़ जाती है। इसके साथ ही मछली को किस उम्र में कितना खाना देना चाहिए, इसकी भी जानकारी होनी चाहिए। फिर तालाब में मेढक और सांप आदि न जा पाएं, उसके लिए तालाब को चारों ओर से जाली से बंद करना होता है।
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