Web Desk
हिंदू नववर्ष की शुरुआत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होती है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है। नवसंवत्सर पूरी तरह सूर्य एवं चंद्रमा की गति पर आधारित है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने इसी दिन से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीने और वर्ष की गणना करते हुए ‘पंचांग’ की रचना की। गणितीय और खगोल शास्त्रीय संगणना के अनुसार इसी दिन से ग्रहों, वारों, मासों और संवत्सरों का प्रारंभ माना जाता है। हिंदू समाज के लिए यह अत्यंत विशिष्ट है, क्योंकि इसी दिन से नया पंचांग शुरू होता है और इस तिथि से ही साल भर के पर्व-त्योहार, विवाह, नामकरण, गृहप्रवेश इत्यादि शुभ कार्यों के शुभ मुहूर्त तय किए जाते हैं। ब्रह्म पुराण के अनुसार, चैत्र प्रतिपदा से ही ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना शुरू की थी। चैत्र माह में नवरात्र, गणगौर, शीतला सप्तमी, रामनवमी, हनुमान जयंती, महावीर जयंती जैसे पर्व भी आते हैं। आइए जानते हैं, देश भर के अलग-अलग हिस्सों में नवसंवत्सर का त्योहार किस स्वरूप में मनाया जाता है
चैत्र नवरात्र और बैसाखी
उत्तर भारत में पूरी श्रद्धा के साथ चैत्र नवरात्र का त्योहार मनाया जाता है। मान्यता है कि चैत्र नवरात्र के पहले दिन मां दुर्गा अवतरित हुई थीं और उन्हीं के कहने पर ब्रह्मा जी ने सृष्टि निर्माण का कार्य प्रारंभ किया था। चैत्र नवरात्र के दौरान हिंदू कलश स्थापना कर नौ दिनों तक अखंड दीप जलाते हैं और मां दुर्गा की आराधना करते हैं। चैत्र माह की नवमी तिथि को भगवान विष्णु ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र के रूप में अवतार लिया था। इसलिए यह दिन रामनवमी के रूप में मनाया जाता है। इसके अलावा, पंजाब में फसल कटाई के रूप में बैसाखी मनाई जाती है, क्योंकि पंजाब में इस समय रबी फसल कटाई के लिए तैयार होती है। बैसाखी भारत के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग नामों से जानी जाती है, लेकिन इसे मनाने का तरीका लगभग समान है। इस पर्व पर किसान फसल के लिए भगवान का धन्यवाद करते हैं और भविष्य में बहुतायत के लिए भी प्रार्थना करते हैं। बैसाखी सिख पंथ में नए साल की शुरुआत का प्रतीक है। सिखों के लिए यह दिन विशेष है, क्योंकि इसी दिन सिख आदेश की शुरुआत हुई थी। नौवें गुरु तेग बहादुर ने औरंगजेब के इस्लाम कबूलने के आदेश को मानने से इनकार कर दिया था। उनके बलिदान के बाद दसवें गुरु गोविंद सिंह का राज्याभिषेक हुआ था, जिन्होंने बाद में खालसा पंथ की स्थापना की। इसलिए यह पर्व गुरु गोविंद सिंह द्वारा स्थापित खालसा पंथ को सम्मान देने का एक तरीका है।
नए युग की शुरुआत
दक्षिण भारत, विशेषकर आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में नवसंवत्सर को उगादि के रूप में मनाया जाता है। उगादि संस्कृत शब्द युग व आदि से बना है, जिसका अर्थ है-नए युग की शुरुआत। इस दिन लोग अपने घरों और पास-पड़ोस में सफाई करते हैं तथा घरों के प्रवेश द्वार पर आम के पत्ते लगाते हैं। नए कपड़े पहनने का भी रिवाज है। इस दिन परिवार के सभी सदस्य सुबह उठकर शरीर पर तिल का तेल लगाते हैं, फिर मंदिर जाते हैं और भगवान को सुगंधित चमेली के फूलों का हार चढ़ाकर पूजा-अर्चना करते हैं। स्वादिष्ट पकवान, मिठाइयां बनाने तथा उसे कुटुंबियों में बांटने का चलन भी है। तेलंगाना में यह पर्व तीन दिन तक मनाया जाता है। इस दिन एक विशेष पेय भी बनाया जाता है, जिसे पच्चड़ी कहा जाता है। यह नई इमली, आम, नारियल, नीम के फूल, गुड़ आदि को मिलाकर बनाया जाता है। कर्नाटक में पच्चड़ी के अलावा गुड़ और नीम के मिश्रण से बना बेवु-बेल्ला, जबकि आंध्र प्रदेश व तेलंगाना में बोवत्तु या पोलेलु या पूरन पोली बनाया जाता है। यह इस बात का द्योतक है कि जीवन में हमें मीठे और कड़वे, दोनों तरह के अनुभवों से गुजरना पड़ता है। इसे खाते समय संस्कृत का एक श्लोक भी बोला जाता है- शतायुर्वज्रदेहाय सर्वसंपत्कराय च, सर्वारिष्टविनाशाय निम्बकं दलभक्षणम्। अर्थात् वर्षों तक जीवित रहने, मजबूत व स्वस्थ शरीर, धन प्राप्ति तथा हर प्रकार की नकारात्मकता का नाश करने के लिए हमें नीम के पत्तों का सेवन करना चाहिए।
विजय का प्रतीक
महाराष्ट्र, गोवा और कोंकण क्षेत्र में नववर्ष गुड़ी पड़वा या वर्ष प्रतिपदा या उगादि के रूप में मनाया जाता है। इस दिन सूर्योदय के साथ ब्रह्मा और विष्णु की पूजा की जाती है और घरों में गुड़ी फहराई जाती है। गुड़ी का अर्थ है विजय पताका और पड़वा, प्रतिपदा को कहा जाता है। मान्यता है कि इस दिन भगवान राम ने दक्षिण के लोगों को बाली के अत्याचार और शासन से मुक्त किया था, जिसकी खुशी में हर घर में गुड़ी फहराई गई। एक मान्यता यह भी है कि शालिवाहन ने मिट्टी के सैनिकों की सेना तैयार कर उसमें प्राण फूंके और फिर उससे शत्रुओं को पराजित किया था। इसलिए विजय प्रतीक के रूप में गुड़ी पड़वा मनाया जाता है। माना जाता है कि इस दिन सारी बुराइयों का नाश हो जाता है। घर में सुख, समृद्धि और खुशियां आएं, इसलिए हिंदू घरों में गुड़ी पूजन कर इसे घर की छत या आंगन में लगाया जाता है और दरवाजे को बंदनवार से सजाया जाता है। इस दिन घरों में पूरनपोली (एक तरह का मीठा व्यंजन), श्रीखंड और मीठे चावल बनाने की परंपरा है। साथ ही, बेहतर स्वास्थ्य की कामना के लिए गुड़ के साथ नीम की कोंपलें खाने का रिवाज भी है। कहते हैं कि इससे स्वास्थ्य ही नहीं, संबंधों की कड़वाहट भी मिठास में बदल जाती है। इस पर्व पर महाराष्ट्र में जुलूस भी निकाले जाते हैं। मराठा साम्राज्य के अधिपति छत्रपति शिवाजी महाराज ने इसी दिन हिन्दू पदशाही का भगवा विजय ध्वज फहराकर हिन्दवी साम्राज्य की नींव रखी थी।
बांग्ला नववर्ष
बैसाख माह का पहला दिन बांग्ला नववर्ष के रूप में मनाया जाता है, जिसे ‘पोहला बोईशाख’ यानी पहला बैसाख कहा जाता है। यह अप्रैल महीने के मध्य में पड़ता है। बंगाल में बैसाख का पूरा महीना शुभ माना जाता है। बैसाख के पहले दिन लोग घरों की साफ-सफाई करते हैं और परिवार की खुशहाली, सुख-समृद्धि के लिए पूजा-पाठ करते हैं। इस दिन बंगाल के लोग तरह-तरह के पकवान बनाते हैं और नए कपड़े पहनने के साथ एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं और नववर्ष की शुभकामनाएं देते हैं। पश्चिम बंगाल के अलावा त्रिपुरा और असम के कुछ हिस्सों में भी ‘पोहला बोईशाख’ मनाया जाता है, जबकि बांग्लादेश में इस दिन राष्ट्रीय अवकाश होता है।
सजीबू माह का पहला दिन
मणिपुर में नववर्ष को सजीबू नोंग्मा पनबा या मीती चेरोबा सा सजीबू चेरोबा कहा जाता है। यह मणिपुर के लोगों का का प्रमुख पर्व है। सजीबू नोंग्मा पनबा मणिपुरी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ ‘सजीबू माह का पहला दिन’ होता है। वहीं, सजीबू मतलब पहले माह का नाम और नोंग्मा का मतलब होता है महीने का पहला दिन। चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन सभी मणिपुरी लोग सुबह उठकर पूजा करते हैं। इस दिन महिलाएं नए चावल, सब्जियों, फूल व फलों से खाना पकाती हैं और फिर लाइनिंगथोउ सनामही और लेइमरेल इमा सिडबी को भोग चढ़ाते हैं। इस दिन मणिपुर के लोग संयुक्त भोज का आयोजन करते हैं और स्थानीय देवताओं के लिए घर के प्रवेश द्वार पर पारंपरिक व्यंजन परोसते हैं। भोजन के बाद दोपहर को लोग चिंगमेरोंग में चेराओ चिंग पहाड़ी या आसपास की पहाड़ियों पर चढ़कर प्रार्थना करते हैं।
समृद्धि का प्रतीक
जम्मू-कश्मीर में ‘नवरेह’ चंद्र वर्ष के तौर पर मनाया जाता है। नवरेह संस्कृत शब्द नववर्ष से बना है। यह चैत्र नवरात्र और चैत्र माह के शुक्ल पक्ष का पहला दिन होता है। कश्मीरी हिंदू इस पर्व को बहुत उत्साह से मनाते हैं। इस पर्व से एक दिन पहले कश्मीरी हिंदू पवित्र विचर नाग के झरने की यात्रा करते हैं, इसमें स्नान के पश्चात सभी लोग नए वस्त्र पहनते हैं तथा महोत्सव के अवसर का नया पवित्र धागा धारण करते हैं। इसके बाद ‘व्ये’ (प्रसाद) ग्रहण करते हैं। इसमें कई प्रकार की जड़ी-बूटियां और पिसे हुए चावल से बनी पिट्ठी डाली जाती हैं। नवरेह की सुबह लोग सर्वप्रथम चावल से भरे पात्र को देखते हैं। यह धन, उर्वरता तथा समृद्धशाली भविष्य का प्रतीक माना जाता है। पंडित परिवार के कुलगुरु, नया कश्मीरी पंचांग, जिसे ‘नेची-पत्री’ कहते हैं, अपने यजमानों को प्रदान करते हैं। इसके अलावा एक अलंकृत पत्रावली, जिसे ‘क्रीच प्रच’ कहते हैं और जिसमें देवी शारिका की मूर्ति बनी होती है, भी प्रदान की जाती है।
तमिल-मलयाली नववर्ष
तमिलनाडु और केरल में 14 अप्रैल को पुथंडु तमिल नववर्ष कहा जाता है। तमिल हिंदुओं द्वारा इसे पारंपरिक कैलेंडर के पहले दिन के रूप में मनाया जाता है। केरल में इसे विषु कहा जाता है। केरल में विषु उत्सव के दिन ही धान की बुआई का काम शुरू होता है। यह त्योहार तमिलनाडु और पुडुचेरी के तमिल हिंदुओं द्वारा तो मनाया ही जाता है, श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर, मॉरिशस सहित अन्य देशों में जहां तमिल भाषी रहते हैं, वहां भी मनाया जाता है। तमिल नववर्ष वसंत विषुव के बाद आता है। इस दिन लोग घरों की साफ-सफाई करने के बाद इसे सजाते हैं। इस दिन घर के प्रवेश द्वार पर आकर्षक रंगोली बनाई जाती है। इस दिन तमिलनाडु और श्रीलंका दोनों स्थानों पर अवकाश होता है। वहीं, मलयालम माह मेदम की पहली तिथि को केरल में मनाए जाने वाले इस पर्व का मुख्य आकर्षण होता है ‘विषुकनी’। इस रस्म में घर के सभी लोग शामिल होते हैं।
चेटीचंड-बोहाग बिहू
सिंधी समुदाय नववर्ष को चेटीचंड के रूप में मनाते हैं। इसे वे भगवान झूलेलाल के जन्मोत्सव के रूप में मनाते हैं। भगवान झूलेलाल को जल का देवता माना जाता है। यह पर्व सिंधी समुदाय के आपसी भाईचारे का प्रतीक है। इसी तरह, नवसंवत्सर को असम में ‘बोहाग बिहू’ के नाम से मनाया जाता है। यह असम का सबसे प्रमुख त्योहार है, जो नई फसल के तैयार होने पर मनाया जाता है। —पाञ्चजन्य ब्यूरो
टिप्पणियाँ