राजीव रंजन प्रसाद
जब भी कोई नक्सली हमला होता है, तो कुछ लोग एक जुमला उछाल देते हैं- ‘इंटेलिजेंस फेल्योर’। यह ऐसा जुमला है, जिसकी आड़ में यह तथ्य छुप जाता है कि जंगल के भीतर की परिस्थितियों को अब भी सुरक्षा बलों द्वारा ठीक से समझा नहीं गया है। माओवाद की विभीषिका बिहार, बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र आदि राज्यों में कम हुई है। तेलंगाना राज्य बन जाने के बाद वहां भी घटनाएं नियंत्रण में हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में परिस्थिति जस की तस बनी हुई है। बस्तर देश का ऐसा संभाग है, जहां लगभग हर रोज ही माओवादी कभी मुखबिर बता कर, तो कभी सुरक्षाबलों का साथी बता कर ग्रामीणों की हत्या करते हैं। स्थानीय अधिकारियों को बहुधा नक्सलियों द्वारा कभी अगवा कर दिया जाता है तो कभी मार डाले जाते हैं, लेकिन सेकुलर मीडिया के लिए वह भी खबर नहीं होता। यह देश जागता तब है जब ऐसी घटना सामने आती है जिसमें हताहतों की संख्या बड़ी हो। यही कटु सत्य गत 3 अप्रैल को बीजापुर के तर्रेम में हुई घटना से सामने आया है।
तर्रेम, उसूर, पामेड़ तथा सुकमा के मिनपा, नरसापुर क्षेत्रों में नक्सल विरोधी अभियान चल रहा था। चूंकि सुरक्षाबलों को यह जानकारी थी कि इनामी नक्सली कमांडर हिडमा इन्हीं स्थानों में कहीं छिपा हुआ है। पर चूक कहां और कैसे हुई कि जवान नक्सली घेरे में आ गए! यह जांच का विषय है लेकिन इस जांच से क्या हासिल होगा? कार्रवाई के लिए निकली टीम की श्रेष्ठ से श्रेष्ठ योजना भी धराशायी हो सकती हैं, चूंकि जंगल ही ऐसे हैं। इसलिए आपको अपने सर्वश्रेष्ठ संसाधनों के साथ आगे बढ़ना होगा। स्थानीय पत्रकारों के माध्यम से मिल रही जानकारी के अनुसार हिडमा की बटालियन के अतिरिक्त तेलंगाना डिवीजन कमेटी के नक्सली घात लगा कर हमलावर हुए थे। इस घटना में कुछ नक्सली भी मारे गए, लेकिन दुर्भाग्य से केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के 22 जवान शहीद हो गए। सीआरपीएफ के जवान देश के कोने-कोने से आते हैं, यही कारण है कि माओवादी जब उनके विरुद्ध कोई बड़ी वारदात करने में सफलता अर्जित करते हैं तब घटना की गूंज न केवल देशभर में, अपितु वैश्विक मंचों पर भी सुनाई पड़ती है। इस घटना के बाद एक जवान राकेश्वर सिंह मन्हास को नक्सलियों ने अगवा कर लिया था, लेकिन अब खबर है कि उसे रिहा कर दिया गया है।
यद्यपि इस बार की घटना के बाद शहरी नक्सली खेमे में अपेक्षा से अधिक सन्नाटा देखने को मिल रहा है, कारण अज्ञात है। अफजल-याकूब की फांसी रुकवाने वाले, भीमाकोरेगांव मामले में हुई गिरफ्तारी के विरोध में मुखर स्वर भी ट्विटर पर मौन दिखाई पड़े। ‘दि वायर’ जैसे वामपंथी वेब-पोर्टल में, जहां तय होता है कि ऐसी घटनाएं उसकी टीआरपी का मसाला हैं, वहां भी सामान्य सी रिपोर्टिंग के बाद चुप्पी ओढ़ ली गई। इस बार बंदूक वाले नक्सलियों के समर्थन में कलम वाले नक्सली वैसे सक्रिय क्यों नहीं हुए? ‘विश्वविद्यालय’ में वैसी पार्टी-वार्टी भी देखी- सुनी नहीं गई, जैसी सुकमा में 76 जवानों की शहादत के बाद हुई थी। हालांकि असम की एक लेखिका शिखा सरमा ने उसी बेशर्मी से एक फेसबुक पोस्ट लिखा, ‘‘कर्तव्य का पालन करते हुए जान गंवाने वाले वेतनभोगी पेशेवरों को शहीद नहीं कहा जा सकता। इस तर्क के आधार पर विद्युत विभाग में काम करने वाले कर्मचारी की बिजली के संपर्क में आने से यदि मौत हो जाती है तो उसे भी शहीद का दर्जा देना चाहिए। मीडिया को लोगों की भावनाओं से नहीं खेलना चाहिए।’’ इसका लोगों ने विरोध किया और उसके बाद उस लेखिका को गिरफ्तार कर लिया गया है।
बस्तर में नक्सलवाद की पृष्ठभूमि
बस्तर के आंध्र से लगे इलाकों में 1968 के दौर में कुछ पर्चे बांटे गए थे। इससे अधिक कोई गतिविधि नहीं थी। 1974 में भोपालपट्टनम में हुई डकैती की तीन वारदातों को बस्तर में नक्सलवाद की आरंभिक घटना कहा जा सकता है। भोपालपट्टनम में नेशनल पार्क सशस्त्र दल बनाया गया था। इसकी कोई सक्रियता नहीं थी। आंध्र प्रदेश में नक्सली नेता कोंड़ापल्ली सीतारमैया सशस्त्र संघर्ष में लगा हुआ था। सीतारमैया लंबे समय से मुलुगु के जंगल में पैर जमाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन सफल नहीं हो पाया। इसके बाद उसने बस्तर के जंगलों में अपने लड़ाकों के लिए सुरक्षित जगह बनाने पर विचार किया। उसने 1980 के दौरान पांच से सात सदस्यों के सात अलग-अलग दल अपनी योजना के अनुसार भेजे थे। चार दल तो दक्षिणी तेलंगाना के आदिलाबाद, खम्माम, करीमनगर और वारंगल की ओर गए, एक दल महाराष्ट्र के गढ़चिरोली की ओर तथा दो अन्य दल बस्तर की ओर भेजे गए। बस्तर में पहले पहल जनजातियों की सहानुभूति हासिल करने के लिए बांस से लेकर तेंदू पत्ता जैसे जंगल के उत्पादों की सही मजदूरी दिए जाने की मांग उठाई गई। ठेकेदारों को गांव वालों के सामने ही
मारा-पीटा गया।
सलवा जुडूम के विरुद्ध अभियान
यह 2004 से 2006 के बीच की ही बात है जब कई माओवादी धड़े संगठित हुए। इसी दौरान आंध्र प्रदेश में भीषण दमनात्मक कार्रवाइयों के फलस्वरूप 1,800 से भी अधिक माओवादी मारे गए। अत: यही समय बस्तर में प्रवेश करने तथा स्वयं को संरक्षित करने की दृष्टि से माओवादियों के लिए सबसे मुफीद था। इसी समय अबूझमाड़ माओवादी गतिविधियों का केंद्र बना। यही वह समय है जब सलवा जुडूम भी आरंभ हुआ। यही वह समय था जब केंद्र में सोनिया-मनमोहन सरकार सत्ता में आई। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने इसी दौरान माओवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा निरूपित किया था। यही वह दौर था जब छत्तीसगढ़ की परिधि के बाहर बस्तर में जारी माओवादी गतिविधियों को लेकर अत्यधिक रूमानियत भरे आलेख प्रकाशित होते रहे; अधिकांश वाम-विचारधारा से प्रेरित। सलवा जुडूम का राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अत्यधिक संगठित विरोध अनेक गैर-सरकारी संगठनों तथा वाद-विशेष के कथित बुद्धिजीवियों ने किया। मामला अदालत में भी पहुंचा। दबावों ने अंतत: इस अभियान की कमर तोड़ दी। सलवा जुडूम अध्याय का पटाक्षेप 2006 के अंत तक हो गया। महेंद्र कर्मा ने एक साक्षात्कार में कहा था, ‘‘सलवा जुडूम की लड़ाई हम जमीन पर नहीं हारे, बल्कि दिल्ली के ‘पावरप्वाइंट प्रेजेंटेशन’ से हार गए।’’ सलवा जुडूम की समाप्ति के साथ ही नक्सलियों ने उन जनजातियों को मारना शुरू कर दिया, जो नक्सलवाद के विरोध में थीं। उन लोगों के लिए कभी किसी मानवाधिकारी ने आवाज नहीं उठाई। सबसे शर्मनाक घटना 25 मई, 2013 को घटी थी जब जगदलपुर से 47 किलोमीटर दूर दरभा के झीरमघाट में माओवादियों ने विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान सुकमा से जगदलपुर लौट रही कांग्रेस पार्टी के एक पूरे समूह पर हमला किया, जिसमें उसके प्रदेश नेतृत्व की एक पूरी पीढ़ी समाप्त हो गई थी। इसके बाद भी नक्सली अनेक घटनाओं को अंजाम देते रहे। प्रश्न यह भी है कि जो लोग सलवा जुडूम वाली बंदूकों के खिलाफ थे, वे माओवादियों के समर्थन में क्यों मुखर रहते हैं? अगर एक ओर की बंदूक गलत है तो निश्चित ही दूसरी ओर की भी गलत ही होगी?
सरकार बदली, नीति बदली
दुर्भाग्य तो यह भी है एक सरकार आती है तो नक्सल नीति कुछ और, दूसरी आती है तो कुछ और….इसी रवैये ने लाल आतंकवाद का दुस्साहस बढ़ाया है। अब तक यही देखा गया है कि कार्रवाई के नाम पर सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस अधिकारियों को आड़े हाथों लिया जाता रहा।
बस्तर में राजनीति की दिशा बदली तो नक्सल नीति भी बदल गई। वर्तमान कांग्रेस सरकार को यह ठीक लगा कि आक्रामक रणनीति के स्थान पर बोलचाल की भाषा भी लाल हत्यारे समझ सकते हैं। नक्सल रणनीति को समझने वाला कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि शांतिकाल प्राप्त होते ही नक्सली क्षेत्र में अपनी ताकत बढ़ाते हैं और आक्रामक परिस्थितियों में वे इसी दौरान की गई अपनी तैयारियों का लाभ लेते हैं। छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार की नक्सल नीति ने व्यवस्था के विरुद्ध उठी बंदूकों को न केवल राहत प्रदान की, अपितु नक्सल समर्थक होने का आरोप झेल रहे, साथ ही हत्या जैसे संगीन अपराध में नामजद अनेक ‘शहरी नक्सल सहानुभूति तंत्र’ के प्रतिनिधियों को भी छूट दे दी। यह सर्वविदित है कि बंदूक वाले नक्सली से 1,000 गुना घातक कलम वाले नक्सली हैं। कौन नहीं जानता कि ऐसी परिस्थितियों में बौद्धिक आतंकवाद पर नियंत्रण से सतत जारी वाम-हिंसा पर भी लगाम लगाई जा सकती है। लेकिन नक्सल क्षेत्रों की सरकारें गाहे-बगाहे अपनी इच्छाशक्ति का आत्म-समर्पण कथित मानवाधिकार की दुकानों और अंतरराष्ट्रीय दबावों के आगे करती रहती हैं। नक्सली अपनी उपस्थिति का अहसास कराते रहेंगे, यह उनके अस्तित्व और दबदबा बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
कथित मानवाधिकारी छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक हत्या से पहले बड़ी कार्रवाई की जमीन तैयार करते हैं और हत्या के बाद लाल-तंत्र को सही ठहराने के लिए क्या कुछ नहीं करते। केवल हिडमा क्यों? नक्सलवाद के लिए बौद्धिक जमीन तैयार करने वाले भी हत्यारे क्यों नहीं? एक आईएएस की तैयारी कराने वाला प्रसिद्ध चैनल है ‘स्डडी आई क्यू’। वहां इस माओवादी घटना का विश्लेषण किया गया और कहा गया, ‘‘नक्सली भी तो भारतीय हैं।’’ अब अंदाज लगाइए वहां से जो आईएएस बनेगा, वह इस तरह की घटनाओं पर क्या रुख लेगा?
नक्सली हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने छत्तीसगढ़ का दौरा किया। उन्होंने सुरक्षाबलों को आवश्यक निर्देश दिए और कुछ घोषणाएं भी कीं। उसके बाद एक नक्सली पर्चा बाहर आया है, जिसमें इन नृशंस हत्या को सही ठहराने के अतिरिक्त अभद्र भाषा में अमित शाह के लिए कुछ बातें लिखी गई हैं। पर्चे में लिखा है, ‘‘अमित शाह देश के गृह मंत्री होने के बावजूद बीजापुर की तेर्रेम घटना पर बदला लेने की असंवैधानिक बात कहते हैं। इसका हम खंडन करते हैं। यह उनकी बौखलाहट है और यह उनकी फासीवादी प्रवृत्ति को ही जाहिर कर रहा है।’’ नक्सलियों ने तीन शब्द प्रयोग किए हैं— पहला देश, दूसरा संविधान और तीसरा फासीवाद। क्रूर और नृशंस हत्यारे ‘फासीवाद’ शब्द को ऐसे उछालते हैं, मानो वे अहिंसा की प्रतिमूर्ति हैं। बस्तर अंचल में जवानों की हत्या का जो सिलसिला है वह तो जारी है ही, लेकिन रोज-रोज मुखबिरी के नाम पर की जाने वाली ग्रामीणों की हत्या को फासीवाद नहीं कहते तो क्या इसे मार्क्सवाद-लेनिनवाद जैसे अलंकार मिले हुए हैं?
अब नक्सल पर्चे के दूसरे शब्द ‘देश’ पर आते हैं। किसका है यह देश? नृशंस लाल-हत्यारों और उनके शहरी समर्थकों का? यह देश पारिभाषित होता है अपने संविधान से और उसी के अनुसार चलेगा….लेकिन लाल आतंकवादियों ने सरकार को ‘संविधान के अनुसार चलने’ के लिए कहा है। यह उनका दुस्साहस ही है। इसलिए राज्य और केंद्र सरकार को एक साथ आकर इन वैचारिक रक्तबीजों का मुकाबला करना ही होगा, यही देश के संविधान और सरकार से आम आदमी की अपेक्षा है।
(लेखक छत्तीसगढ़ मामलों के जानकार हैं)
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