हितेश शंकर
आंतरिक स्थितियां सही हुए बिना विकास नहीं हो सकता। विकास का एक समीकरण होता है जिसमें शांति भी है, स्थिरता भी है, सुरक्षा भी है और समन्वय भी। यह सब मिलते हैं, तब जाकर विकास होता है। यदि हम इसे छत्तीसगढ़ या नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की दृष्टि से देखें तो हमें देखना पड़ेगा कि ऐसी कौन सी विभाजक रेखाएं हैं जिनसे विकास का समीकरण दरकता है और नक्सलियों को ताकत मिलती है। चूक कहां, या कहिए कहां-
कहां हुई!
ताजा नक्सल त्रासदी के संदर्भ में देखें तो हमें विश्लेषण को तीन हिस्सों या आयामों में बांटना होगा।
■ इसमें पहला है राज्य या राजनीतिक तंत्र।
■ दूसरा है सुरक्षा बल जिसे हम समन्वय और रणनीति की दृष्टि से देख सकते हैं।
■ तीसरा है वामपंथी सहजीवी तंत्र जिसमें एक-दूसरे की ढाल बने रक्तपिपासु परजीवी हैं।
पहले आयाम यानी राज्य या राजनीतिक तंत्र की बात करें तो यह तंत्र दो स्तरों पर काम करता है। शांति-व्यवस्था बनाये रखना राज्य का दायित्व है जिसके लिए उसके पास पुलिस बल है। सीमाओं की सुरक्षा केंद्र का विषय है जिसके लिए उसके पास सेना है। परंतु जब किसी राज्य में सशस्त्र संघर्ष छिड़ जाता है तो राज्य का केंद्र के साथ समन्वय अपेक्षित हो जाता है और केंद्र वहां अर्धसैनिक बल भेजता है। नक्सलियों के संदर्भ में यही है। परंतु जिस राज्य में सशस्त्र संघर्ष छिड़ा हो, वहां तंत्र की सहानुभूति लोकतंत्र को ललकारने वालों के साथ हो, राज्य का रवैया ढुलमुल हो या तंत्र में इस लड़ाई के लिए नैतिक इच्छा शक्ति न हो तो मोर्चा कमजोर पड़ जाता है।
छत्तीसगढ़ की बात करें तो विधानसभा में सत्ता पक्ष की संख्या चाहे जो हो, क्या उसमें नक्सलियों से लड़ने का नैतिक बल है, यह देखना होगा। याद करें कि सितंबर 2013 में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर नक्सली हमले में तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, वरिष्ठ नेता महेंद्र कर्मा, उदय मुदलियार, विद्याचरण शुक्ल समेत 23 कांग्रेसी नेता मारे गये थे। परंतु छत्तीसगढ़ में आज की कांग्रेस सरकार में क्या वह नैतिक इच्छाशक्ति है कि वह जनता को आगे कर जहर बोते नक्सलियों को कुचल सके? नवंबर 2018 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान प्रेस कान्फ्रेंस में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर ने नक्सलियों के लिए कहा था कि क्रांति के लिए निकले लोगों को आप गोलियों से नहीं रोक सकते। सरकार बनाने के बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पहली प्रेस ब्रीफिंग में कहा था कि नक्सलवाद कानून-व्यवस्था की नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समस्या है। हम पीड़ितों से बात कर हल निकालेंगे। यानी बघेल नक्सलियों को राज्य पर हमला करने वाले नहीं बल्कि पीड़ित मानते हैं।
इसी तरह कांग्रेस के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह ने दिसंबर 2014 में झारखंड चुनाव के समय रांची में कहा था कि भाजपा को हराने के लिए नक्सली कांग्रेस का साथ दें। इन तीनों कांग्रेसी नेताओं ने जब-जब ये बयान दिये, वे कांग्रेस की ओर से बड़े पदों पर बैठाये गये नेता थे और इन बयानों के बाद भी वे अपने पदों पर बने रहे। इससे नक्सलियों के संदर्भ में कांग्रेस की अंतरधारा समझी जा सकती है। आज कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के आसपास भी खूनी वामपंथ की गंध महसूस की जा रही है। पार्टी के कई नेता भी इससे खुश नहीं हैं। बीजापुर-सुकमा सीमा पर ताजा नक्सल हमले के बाद भी नक्सल गुट पीएलजीए के दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के प्रवक्ता विकल्प के नाम से जो पत्र जारी हुआ है-उसमें जो भाषा, शब्द विन्यास और भाषा का मुहावरा (अंबानी-अडानी युग्म का उपयोग, उद्योग और विकास के विरुद्ध बातें, भड़काऊ एजेंडा) विश्लेषण के योग्य है। क्या यही भाषा अब कांग्रेस के बयानों में नहीं आ गयी है!
दूसरे आयाम-सुरक्षा बल : समन्वय और रणनीति के संदर्भ में बात करें तो प्राथमिक सूचनाएं ये बताती हैं कि सुरक्षा बल सम्भवत: नक्सलियों के जाल में फंस गये थे। यह आश्चर्यजनक और हृदयविदारक है। सुरक्षा टुकड़ियां बहुत पास-पास चल रही थीं, पहाड़ियों के बीच से जवान गुजर रहे थे, ऊपर से मशीनगन, ग्रेनेड लॉन्चर से हमला हुआ। इससे लगता है कि जवानों को जाल में फंसा कर मारा गया है। पाञ्चजन्य ने सुरक्षा पर संवाद की अपनी श्रृंखला में विशेषज्ञों के साथ मिलकर रणनीतियों को बेहतर करने पर लगातार काम किये जाने की बात बहुत गंभीरता से उठायी थी। यदि बीजापुर-सुकमा हमले में एक बार फिर छल उजागर हुआ है तो सवाल उठता है कि सतर्कता और पूर्व के सबक कहां हैं? सूचना मिलने पर सर्वेक्षण के लिए गया अग्रिम दस्ता कहां है? उसने क्या रिपोर्ट दी। सवाल यह भी उठता है कि क्या एसओपी (मानक परिचालन प्रक्रिया) का पालन हुआ था? यदि हम नक्सलियों के विरुद्ध कोई बड़ी कार्रवाई करते हैं तो वह कार्रवाई कैसे चले, इसकी एक बड़ी समीक्षा की आवश्यकता लगती है। यदि हमला हो जाता है तो हमारा प्लान ‘बी’ क्या है? यदि रास्ते में दोनों तरफ पहाड़ियों की चोटियां हैं तो उस पर निगरानी की क्या व्यवस्था है? यदि कोई बड़ा दस्ता कार्रवाई करने के लिए जा रहा था तो क्या पीछे कोई ‘बैकअप’ या वैकल्पिक योजना है!
तीसरा आयाम वामपंथी सहजीवी तंत्र का है। जिसमें ये रक्तपिपासु परजीवी एक-दूसरे की ढाल बनते हैं। इनमें एक बस्तर में हमला करता है, दूसरा दिल्ली में सड़कों पर डफली बजाता है, तीसरा विश्वविद्यालयों में छात्रों को उकसाता है, चौथा सड़कों पर जाम लगाता है, पांचवां कोर्ट का दरवाजा खटखटाता है, और यह सब अलग-अलग तरीके से लोकतंत्र और न्यायपालिका पर एक मकसद से प्रहार करते हैं। ये बिल्कुल भेड़ियों के गिरोह जैसा है जिसमें सभी अलग-अलग दिशाओं से देश को नोंच रहे हैं, देश को निशाना बना रहे हैं। एक की घेरेबंदी होती है तो वह ढीला पड़ता है परंतु दूसरे अलग तरह की गतिविधियां बढ़ा छाती पर चढ़ आते हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के जानकारों से यह छिपा नहीं है कि वामपंथ का तेंदूपत्ता और खनन माफिया के साथ गहरा गठजोड़ है। जो इस नक्सल समस्या को गरीब-मजदूर की लड़ाई कहते हैं, दरअसल वे वामपंथी, ‘दामपंथी’ हैं। यह पूरा तस्करी का नेटवर्क है, यह पूरा आर्थिक तंत्र है जिसे पूरी तरह खंगाला जाना चाहिए।
निस्संदेह यह हमला बड़ा है, परंतु देश ने इस मोर्चे पर लड़ाई में लगातार इन्हें समेटा है, सीमित करते हुए खत्म करने के कगार पर ला छोड़ा है। साउथ एशिया टेरेरिज्म में समेकित आंकड़ों के अनुसार भारत में माओवादी हिंसा में वर्ष 2010 में कुल 1179 लोग मारे गये जबकि 2020 में कुल 239 लोग मारे गये। पहले 20 प्रदेशों के 223 जिलों में माओवादी थे जिसमें 66 जिले सर्वाधिक प्रभावित थे। आज 9 प्रदेशों के 41 जिलों में माओवादी हैं। इस सिकुड़न से ही वामपंथी सहजीवी तंत्र में एक छटपटाहट है। इस सहजीवी तंत्र में एक टुकड़ा सत्ता में राजनीतिक तंत्र को चुनता है, दूसरा दंडकारण्य को चुनता है। यदि दोनों मिलकर लड़कर रहे हैं तो देश के लोकतंत्र को इनके विरुद्ध एक बड़ी लड़ाई छेड़ने की आवश्यकता है।
जो विषबेल शासन ‘तंत्र’ में हाशिये पर बुहार दी गई उसे ‘लोक’ के आंगन में फैलने का मौका देना लोकतंत्र के लिए घातक है। @hiteshshankar
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