आशीष कुमार ‘अंशु’
चार अप्रैल को छत्तीसगढ़ में माओवाद विरोधी अभियान में अर्धसैनिक बल के 22 जवानों के बलिदान के बाद जिस तरह की टिप्पणी माओवाद से छुपी सहानुभूति रखने वाले समूह और अर्बन नक्सलियों की तरफ से सुनने को मिल रही है। ऐसे समय में दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न संगठनों और मंचों से नक्सली हमले और सैनिकों के बलिदान के संबंध में किसी भी तरह की टिप्पणी में गरिमा और तटस्थता बनाए रखने के लिए ग्रुप ऑफ इंटेलेक्चुअल्स एंड एकेडमिशन्स (जीआईए), नई दिल्ली के सदस्यों की ओर से जारी की गई अपील काबिले गौर ही नहीं, काबिले तारिफ भी है।
केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के एक जवान, राकेश्वर सिंह मन्हास नक्सलियों की कैद में हैं और उनकी छोटी बेटी ने एक वीडियो के माध्यम से अपने पिता की रिहाई की अपील की है। हमें कुछ भी लिखते हुए नहीं भूलना चाहिए कि नक्सली आंदोलन के नाम पर हजारों लोगों को अनाथ बना चुके हैं। उनकी हिंसा से ना आदिवासी बचे हैं और ना आदिवासियों के स्कूल।
नक्सलबाड़ी से इस आंदोलन को प्रारम्भ करने वालों में से एक कानू सान्याल के जीवन के अंतिम दिन बहुत कष्ट एवं अकेलेपन के साथ बिते। वे इस पूरे आंदोलन के इस हश्र से बेहद निराश थे और कभी नहीं चाहते थे कि उनके नक्सली हाथों में हथियार लेकर लड़ाई लड़ें। मासूम आदिवासियों का खून बहाएं। नक्सलबाड़ी में आंदोलन की नींव उन्होंने रखी थी और यह पूरा आंदोलन उनके हाथ से निकल गया था। यही दुख था कि वे अंतिम दिनों में अवसाद में चले गए थे और एक दिन उन्होंने आत्महत्या कर ली।
बीजापुर में नक्सली हमला होता है और 6 अप्रैल को दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. पी.सी. जोशी को जीएन साईबाबा को राम लाल आनंद कॉलेज (दिवि) में सहायक प्रोफेसर पद पर बहाल करने के लिए पत्र लिख देता है। यह कैसा संयोग है? साईबाबा की सेवाएं विश्वविद्यालय ने 2017 में गढ़चिरौली सत्र न्यायालय द्वारा भारत में माओवादियों से संबंध रखने का दोषी पाए जाने के बाद समाप्त कर दी थीं। जब नक्सली हमले में हमारे जवानों की चिता की आग ठंडी भी नहीं हुई एक अर्बन नक्सली को पुन: विश्वविद्यालय में लाने की मांग करना, उन करोड़ों भारतीयों की संवेदना का मजाक उड़ाने जैसा है, जो भारतीय जवानों पर गर्व करते हैं।
ग्रुप ऑफ इंटेलेक्चुअल्स एंड एकेडमिशन्स (जीआईए) ने अपनी अपील में लिखा है, ”इसमें दो राय नहीं है कि माओवादी विचारधारा में विश्वास करना व्यक्तिगत चयन का मसला है, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि हिंसा में लिप्त होना दंडनीय अपराध भी है। जी.एन. साईबाबा सिर्फ माओवादी नहीं हैं बल्कि उसकी गतिविधियों की वजह से देश ने गंभीर परिणाम भुगते हैं। अदालत ने उसे गैरकानूनी (गतिविधियां) रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) की विभिन्न धाराओं के तहत आपराधिक षड्यंत्र तथा आतंकी संगठन का सदस्य होने का दोषी ठहराया है। शिक्षक जैसे महान पेशे से जुड़े होने के बावजूद वह इन गतिविधियों में लिप्त रहा। शिक्षकों से अपेक्षा की जाती है कि वे युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन करें और उन्हें राष्ट्रीय कल्याण के रास्तों की ओर ले जाएं। जो हालात हैं, उनमें उसे कानून की नियत प्रक्रिया के माध्यम से दोषी घोषित किया गया है। अपील करना उनका कानूनी अधिकार है, परंतु इससे उसकी दोषी पाए जाने की वर्तमान स्थिति नहीं बदलती है।”
जैसे की ग्रुप ऑफ इंटेलेक्चुअल्स एंड एकेडमिशन्स की अपील से स्पष्ट है कि एक ऐसे प्राध्यापक को दिल्ली विश्वविद्यालय में पुन: बहाल करने के लिए डूटा सक्रिय नजर आ रहा है, जो नक्सलियों से संबंध रखने का दोषी पाया गया है। लंबे समय तक दोषी पाए जाने की वजह से वह जेल में रहा और अब तक वह खुद को निर्दोष साबित नहीं कर पाया है। इस तरह नक्सलियों से संबंध रखने वाले एक दोषी को डूटा क्यों बहाल कराना चाहता है ?
इस संबंध में ग्रुप ऑफ इंटेलेक्चुअल्स एंड एकेडमिशन्स अपनी अपील में लिखता है, ‘जी.एन. साईबाबा के पक्ष में डूटा द्वारा चलाई जा रही मुहीम, चिन्ता में डालने वाली है। डूटा दिल्ली विश्वविद्यालय के सभी शिक्षकों का प्रतिनिधित्व करता है। इसने इस बात की परवाह नहीं की कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े राष्ट्रीय महत्व के इतने महत्वपूर्ण विषय पर विश्वविद्यालय के शिक्षकों की राय ली जाए। इसने खुले तौर पर राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने का दोषी ठहराए गए आरोपी के पक्ष में वैचारिक तरफदारी दिखाई है।’
ग्रुप ऑफ इंटेलेक्चुअल्स एंड एकेडमिशन्स ने आगे लिखा, ”कुलपति को पत्र लिखने के पहले डूटा ने इस मुद्दे पर मत संग्रह की कोई उचित प्रक्रिया नहीं अपनाई। दिल्ली विश्वविद्यालय के सभी शिक्षकों को इसमें स्वतः ही शामिल मान लिया गया। इस प्रकार, डूटा ने शिक्षकों के हितों के प्रतिनिधित्व और शिक्षा को प्रोत्साहन देने के अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है और दशकों से देश की प्रमुख आंतरिक सुरक्षा समस्या रहे नक्सलवाद के समर्थन में चरम वैचारिक रुख अपनाया है। दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी प्रतिष्ठित संस्था के लिए यह अपने आप में बहुत ही खेदजनक है।”
अपील की इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के अनुसार, विश्वविद्यालय विचारों पर मुक्त चर्चा के स्थान हैं और उन्हें वैचारिक रूप से बंद दायरों वाला स्थान नहीं होना चाहिए। विश्वविद्यालयों के शिक्षकों से उम्मीद की जाती है कि वे छात्रों को सकारात्मक दिशा में संचालित करेंगे ताकि वे भविष्य के राष्ट्र निर्माताओं के रूप में अपनी क्षमताओं को पहचान सकें। उनसे अपने वैचारिक उद्देश्यों के लिए छात्रों का इस्तेमाल करने या किसी प्रतिबंधित व गैरकानूनी घोषित आतंकी समूहों के लिए छात्रों की भर्ती करने वाले जीएन साईबाबा जैसा होने की उम्मीद नहीं की जाती।
ग्रुप ऑफ इंटेलेक्चुअल्स एंड एकेडमिशन्स उम्मीद करता है कि डूटा शिक्षक समुदाय के महत्वपूर्ण मुद्दों तथा शिक्षा को प्रोत्साहित करने जैसे मुख्य मुद्दों पर भविष्य में ध्यान केंद्रित करेगा। वह देश के न्याय तंत्र में हस्तक्षेप करने से बचने के साथ ही उन लोगों का समर्थन करने से भी बचेगा जिन्हें न्यायालय द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने वाली गतिविधियों को बढ़ावा देने का दोषी ठहराया गया हो। हम पूरी गंभीरता से उम्मीद करते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों को महत्वहीन नहीं समझा जाएगा और ऐसे मामलों, विशेष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों, में कोई कदम उठाने के पहले व्यापक परामर्श और रायशुमारी की प्रक्रिया अपनाई जाएगी।
डूटा का यह रवैया वास्तव में हैरान करने वाला है। जीएन साई बाबा दिल्ली विश्वविद्यालय में अकेला अर्बन नक्सली नहीं था। बताया जाता है कि इस विचारधारा से सहानुभूति रखने वाले प्राध्यापक बड़ी संख्या में डूटा से लेकर जेएनयू स्टाफ असोसिएशन तक में भरे हुए हैं।
ज्ञात हो कि कांग्रेसी नेता महेन्द्र कर्मा की हत्या नक्सलियों ने कर दी। महेन्द्र कर्मा कहा करते थे — ”नक्सलियों की ताकत बंदूक में नहीं, उनकी नेटवर्किंग में है। उन हत्यारों की छवि महानगरों रॉबिन हुड की बनाई गई है। वह कौन लोग हैं, पहले उनकी पहचान जरूरी है।”
ग्रुप ऑफ इंटेलेक्चुअल्स एंड एकेडमिशन्स जैसे संगठन हमारे बीच हैं, इससे विश्वास जगता है कि अर्बन नक्सलियों के लिए अब हमारे शैक्षणिक संस्थानों में सक्रिय रहना आसान नहीं होगा। लेकिन इनती बड़ी जिम्मेवारी हम एक संस्थान पर नहीं छोड़ सकते हैं। अभी ऐसे दर्जनों—सैकड़ों संगठनों की जरूरत है, जो देश भर में ऐसी गतिविधियों पर नजर रखें और समय रहते उसके खिलाफ आवाज उठाए।
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