राजीव रंजन प्रसाद
बस्तर में राजनीति की दिशा बदली तो नक्सल नीति भी बदल गयी। वर्तमान कांग्रेस सरकार को यह ठीक लगा कि आक्रामक रणनीति के स्थान पर बोलचाल की भाषा भी लाल हत्यारे समझ सकते हैं। नक्सल रणनीति को समझने वाला कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि शांतिकाल प्राप्त होते ही नक्सली क्षेत्र में अपनी ताकत बढ़ाते हैं और आक्रामक परिस्थितियों में वे इसी दौरान की गयी अपनी तैयारियों का लाभ लेते हैं। छत्तीसगढ़ में बनी नयी सरकार की नक्सलनीति ने व्यवस्था के विरुद्ध उठी बंदूखों को न केवल राहत प्रदान की, अपितु नक्सल समर्थक होने का आरोप झेल रहे साथ ही हत्या जैसे संगीन अपराध में नामजद अनेक “शहरी नक्सल सहानुभूति तंत्र” के प्रतिनिधियों को भी क्लीन चिट दी। यह सर्वविदित है कि बंदूख वाले नक्सल से हजार गुना घातक कलम वाले नक्सल हैं। कौन नहीं जानता कि ऐसी परिस्थितियों में बौद्धिक आतंकवाद पर नियंत्रण से सतत जारी वाम-हिंसा पर भी लगाम लगायी जा सकती है। लेकिन नक्सल क्षेत्रों की सरकारें गाहे-बगाहे अपनी इच्छाशक्ति का आत्म-समर्पण कथित मानव-अधिकार की दुकानों और अंतर्राष्ट्रीय दबावों के आगे करती रहती हैं। नक्सल अपनी उपस्थिति का अहसास कराते रहेंगे, यह उनके अस्तित्व और दबदबा बनाये रखने के लिये आवश्यक है। दो अप्रैल को घटी घटना को इसी रूप में देखना चाहिए।
बीजापुर के तर्रेम, उसूर, पामेड़ तथा सुकमा के मिनपा, नरसापुर क्षेत्रों में अभियान चल रहा था। चूंकि सुरक्षाबलों को यह जानकारी थी कि ईनामी नक्सली कमाण्डर हिडमा इन्हीं स्थानों में कहीं छिपा हुआ है। चूक कहां और कैसे हुई कि जवान नक्सली ट्रैप में आ गए। यह निश्चित ही जांच का विषय है, लेकिन इस जांच से हासिल क्या होगा। कार्रवाई के लिए निकली टीम की श्रेष्ठ से श्रेष्ठ योजना भी धराशायी हो सकती है। चूंकि जंगल ही ऐसे हैं। इसलिये आपको अपने सर्वश्रेष्ठ संसाधनों के साथ आगे बढ़ना होगा। किसी घटना के हो जाने के बाद श्रद्धांजलि देना औपचारिकता भर है। इस देश के एक वर्ग को जवानों की कितनी चिंता है, इसकी बानगी लेनी है तो देखें कि उसके अगले दिन के अधिकतर अखबारों के हेडलाईन बदल गईं और छत्तीसगढ़ में हुई वामपंथी हिंसा पर चर्चा दूसरे-तीसरे पन्ने पर सिमट गयी। शायद नक्सलियों का क्रूर चेहरा जितनी जल्दी हो सके लाल-मीडिया धो-पोंछ देना चाहती है। दुर्भाग्य तो यह भी है एक सरकार आती है तो नक्सल नीति कुछ और दूसरी आती है तो कुछ और…इसी रवैये से लाल-आतंकवाद के विरुद्ध लड़ने-भिड़ने का क्रम जारी है। विडम्बना यह भी है कि हटा देंगे-मिटा देंगे वाली “पंचवर्षीय घोषणायें” चलते—चलते लाल-आतंकवाद को अब पचास साल होने को आए, लेकिन उपलब्धि शून्य बटे सन्नाटा।
नक्सल जब सरकारों द्वारा बातचीत के प्रोपेगंडा वाले दौर में चुपचाप अपनी ताकत बढ़ाते रहते हैं तो उसे प्रशासनिक उपलब्धि माना जाता है। फिर वे मजबूत हो कर सामने आ जाते हैं। तब विफलता का श्रेय लेने वाले नदारद। मानव-अधिकार की दुकाने छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक अपने पावरपॉईंट प्रेजेंटेशन से हत्या से पहले बड़ी कार्रवाई की जमीन तैयार करती हैं और हत्याओं के बाद लाल-तंत्र को जस्टीफाई करने के लिये अपना हाड़-मांस तपाती हैं। यह सब कौन नहीं जानता ? केवल हिडमा क्यों, केवल हरी वर्दी पहने लाशों पर नाचने वाले ही दोषी क्यों ? उनके लिये बौद्धिक जमीन तैयार करने वाले भी हत्यारे क्यों नहीं ? एक आईएएस की तैयारी कराने वाला प्रसिद्ध चैनल है “स्डडी आई क्यू”। वहां इस माओवादी घटना का विश्लेषण सुना और निष्कर्ष यह कि नक्सली भी तो भारतीय हैं, इसलिये…”। यही “इसलिये करने वालों” में से कुछ लोग कल हमारे ब्यूरोक्रेट्स होंगे और ऐसी सभी हत्याओं पर सिर झुकाये खड़े रहेंगे ? क्या वियतनाम ने अपने माओवादियों पर काबू नहीं पाया ?
बस्तर में नक्सल हमले के बाद गृहमंत्री का आवश्यक दौरा हुआ। कार्रवाई के जो निर्देश और घोषणाएं हुईं, उसके बाद एक नक्सल पर्चा बाहर आया है, जिसमें नृशंस हत्याओं के घिसे—पिटे जस्टीफिकेशन के अतिरिक्त एक वाक्य गौर करने योग्य है। नक्सल पर्चे में लिखा है कि अमित शाह देश के गृहमंत्री होने के बावजूद बीजापुर की तेर्रेम घटना पर बदला लेने की असंवैधानिक बात कहते हैं। इसका हम खण्डन करते हैं। यह उनकी बौखलाहट है और यह उनकी फासीवादी प्रवृत्ति को ही जाहिर कर रही है। बाकी पर्चे में क्या है, उसे छोड़ दीजिए। इन पंक्तियों में बहुत कुछ ऐसा है, जिस पर बात आवश्यक है। नक्सलियों ने तीन शब्द प्रयोग में लाए हैं। पहला, देश, दूसरा संविधान और तीसरा फासीवाद। क्रूर और नृशंस हत्यारे “फासीवाद” शब्द को ऐसे उछालते हैं मानो वे अहिंसा की प्रतिमूर्ति हैं। बस्तर अंचल में जवानों की हत्या का जो सिलसिला है, वह तो जारी है। लेकिन हर दिन मुखबिरी के नाम पर की जाने वाली ग्रामीण आदिवासियों की हत्या को फासीवाद नहीं कहते तो क्या इसे मार्क्सवाद-लेनिनवाद जैसे अलंकार मिले हुए है ? खैर वामपंथी शब्दावली पर चर्चा मेरा उद्देश्य नहीं। वे सिगरेट के छल्लों की तरह गोल—गोल शब्द गढ़ते हैं, जिनके अर्थ हवा में मिल कर बदबू-बीमारी ही फैलाते हैं। सार्थकता तो उनमें क्या खाक होगी।
अब नक्सल पर्चे के दूसरे शब्द देश पर आते हैं। किसका है यह देश ? नृशंस लाल-हत्यारों और उनके शहरी समर्थकों का ? यह देश पारिभाषित होता है, अपने संविधान से और उसी अनुसार चलेगा…अरे हां मैं तो भूल ही गया कि लाल-आतंकवादियों ने गृहमंत्री को संविधान के अनुसार चलने के लिये कहा है। उस संविधान के अनुसार जिसे लालकिले पर लाल निशान लगाने का शेखचिल्ली सपना देखने वाले हत्यारे मानते ही नहीं? संविधान में देश के विरुद्ध युद्ध करने वालों के लिये कुछ व्यवस्थाएं हैं, संविधान में उन नागरिकों को भी सांस लेने का अधिकार है जो हसिया—हथौड़ा वाली मध्यकालीन सोच से तंग आ चुके हैं। संविधान के पास अपनी न्याय व्यवस्था और अदालते हैं। वे राक्षसी जन-अदालत तंत्र से संचालित नहीं हैं। और संविधान हथियार ले कर हत्या करने वालों को क्रांतिकारी किस पृष्ठ संख्या में मानता है ? राज्य और केंद्र सरकार को एक पृष्ठ पर आकर इन वैचारिक रक्तबीजों का मुकाबला करना ही होगा। यही देश के संविधान से आम आदमी की अपेक्षा है। नक्सल और उनके शहरी तंत्र की शब्दावलियों की बारीक जांच कीजिये, इस बार “संविधान” शब्द का प्रयोग इसे न मानने वाले नक्सलियों ने अपनी ढाल बनाने के लिये किया है।
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