स्वाति शाकम्भरी
असम विधानसभा चुनाव के पहले चरण में 79.93 प्रतिशत मतदान हुआ। इसके बाद चुनाव में रुचि रखने वाले इस गुणा-भाग में लग गए कि इसका संदेश क्या है? हालांकि यह आंकड़ा पिछले विधानसभा चुनाव के औसत 84.49 प्रतिशत से कम है। पहले चरण में जिन सीटों पर मतदान हुआ, वहां किसी भी हालत में भाजपा गठबंधन के सामने विपक्ष का कोई अस्तित्व नहीं दिखता। राजनीतिक पंडित इसका अर्थ यह निकाल रहे हैं कि असम में भाजपा एक बार फिर से सत्ता संभालने जा रही है।
जिन 47 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान हुआ, उन पर गत विधानसभा चुनावों के दौरान भी इसी तरह मतदान प्रतिशत ऊंचा रहा था। तब 87 प्रतिशत से अधिक मतदान का इतिहास रचा गया था। इस लिहाज से देखें तो इस बार का मतदान प्रतिशत अपेक्षाकृत कम ही रहा है।
गत विधानसभा चुनाव में इन 47 में से 35 सीटों पर भाजपा या असम गण परिषद के प्रत्याशी जीते थे। इस बार भी तमाम सर्वेक्षणों में कमोबेश ऐसा ही अनुमान जताया जा रहा है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी 47 में से 37 सीट जीतने का दावा ठोक दिया है। ये दावे निर्मूल नहीं हैं। इसकी कई वजहें हैं। पहली बड़ी वजह यह है कि कमोबेश इस पूरे क्षेत्र में हिंदुओं, खासकर ‘भूमिपुत्र’ असमिया अर्थात् ‘अहोम’ लोगों का आधिक्य है। दूसरे, इन 47 में से 27 क्षेत्रों में चाय बागान श्रमिक भी एक ठोस वोट बैंक के रूप में स्थापित हैं। इन सभी समुदायों में भाजपा के प्रति दृढ़ विश्वास है। कांग्रेस बागान के इन्हीं मतदाताओं की बदौलत अब तक राज करती आई थी। इन बागानों में अब उसके प्रति विश्वास नहीं रह गया है। एनआरसी पर कांग्रेस के मुखर विरोध ने ‘अहोम’ समुदाय में भी उसकी विश्वसनीयता को घटाया है। विदेशी लोगों की पहचान और उनका बहिष्कार इस क्षेत्र का मुख्य मुद्दा है। स्वयं मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल इसके पैरोकार रहे हैं और सर्वोच्च न्यायालय तक इसके लिए लड़ाई लड़ चुके हैं। इस कारण ‘अहोम’ न होते हुए भी इस समुदाय में उनकी व्यापक स्वीकार्यता है। उधर महाजोट के अन्य मुख्य घटक एआईयूडीएफ का अस्तित्व कुछेक मुस्लिम बहुल सीटों तक ही सीमित हैै। इस कारण इस इलाके में भाजपा का कोई विकल्प नहीं दिख रहा। भाजपा के बाद इन क्षेत्रों में सबसे बड़ी ताकत असम गण परिषद ही है और वह भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल है। अखिल गोगोई के राइजोर दल और उसकी साथी असम जातीय परिषद की उपस्थिति से कुछ सीटों पर गणित में बदलाव जरूर हो सकता है मगर वह इतना बड़ा तो नहीं ही होगा कि अंतिम रूप से परिणामों को प्रभावित करे। इस समाचार के छपने तक दूसरे चरण में भी 39 सीटों पर मतदान हो चुका होगा। इनमें से बराक घाटी की 15 सीटों को छोड़ दें तो बाकी पर भाजपा आसान स्थिति में दिख रही है। बराक घाटी की लड़ाई किस करवट बैठेगी, यह कहना मुश्किल है। फिलहाल पार्टी के पास इन 15 में से आठ सीटें हैं। इस गिनती को आगे बढ़ाना पार्टी के लिए जरूरी है। मतदान का दिन आते-आते भाजपा एक बार फिर से बढ़त लेती दिख रही है।
गत 31 मार्च को चिरांग में एक बड़ी जनसभा को संबोधित करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जो तेवर दिखाए, उसकी चारों ओर चर्चा है। उन्होंने साफ कहा कि भाजपा ही असम को बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों से बचा सकती है। इसके साथ ही उन्होेंने एआईयूडीएफ के प्रमुख अजमल बदरुद्दीन को चेताते हुए कहा, ‘‘कान खोलकर सुन लो बदरुद्दीन, असम को घुसपैठियों का अड्डा नहीं बनने देंगे। आपको उखाड़ कर फेंकने का काम भाजपा करेगी।’’ उल्लेखनीय है कि 30 मार्च को अजमल ने एक रैली में कहा था, ‘‘सरकार की चाभी मेरे पास है। मैं जैसे चाहूंगा, सरकार चलाऊंगा, जिसको चाहूंगा उसको मंत्री बनाऊंगा।’’ अजमल ने यह बयान घुसपैठियों के संदर्भ में दिया था कि तुम्हें असम में डरने की जरूरत नहीं है। मेरी सरकार बनने पर तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अजमल के इस भाषण से भले ही मुस्लिम मतदाता प्रभावित हो जाएं और वे उनकी पार्टी को वोट दें, लेकिन उनकी सहयोगी कांग्रेस को इस बयान से भारी नुकसान होता दिख रहा है। चुनावी पंडित मानने लगे हैं कि कांग्रेस ने एआईयूडीएफ से गठबंधन करके बहुत बड़ी गलती की है। अजमल के बयानों से कांग्रेस के हिंदू मतदाता भी उससे दूर होने लगे हैं। कांग्रेस के नेताओं को जब इसका आभास हुआ तो राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को प्रचार में उतारा गया। (पहले चरण तक इन दोनों को एक तरह से प्रचार से दूर ही रखा गया था।) दोनों भाई-बहन ने कामख्या देवी मंदिर जाकर हिंदू मतदाताओं को यह बताने का प्रयास किया कि कांग्रेस हिंदू-विरोधी नहीं है। लेकिन असम के हिंदू मतदाता राहुल और प्रियंका के इस ‘मंदिर प्रेम’ को नकली कानते हैं। उनका कहना है कि असम को घुसपैठियों से भरने वाली कांग्रेस को अब सत्ता से दूर रखने में ही असम और असमिया संस्कृति की भलाई है।
असम के पर्वतीय जिलों में भी भाजपा मजबूत स्थिति में है। फिलहाल सभी पर्वतीय स्वायत्तशासी परिषदों में भाजपा और उसके सहयोगी सत्तासीन हैं। दूसरे और तीसरे चरण की सीटों पर प्रभाव रखने वाले बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) ने इस बार महाजोट का दामन थाम लिया है। हालांकि दिसंबर में हुए बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद के चुनाव में उसे सफलता नहीं मिली थी और इस कारण भाजपा ने यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) को अपने गठबंधन में जगह दी और परिषद में सत्तासीन भी हुई। तथापि, बीपीएफ को हल्के में नहीं लिया जा सकता है, वह विपक्ष में होते हुए भी सबसे बड़ी पार्टी है। परिषद में पहली बार भाजपा के 10 पार्षदों के चुने जाने से पार्टी का उत्साह बढ़ा हुआ है। बीपीएफ की असली ताकत का अंदाजा तीसरे चरण में मिलेगा जब कोकराझार, बाक्सा, बंगाइगांव व नलबाड़ी जैसे जिलों में मतदान होगा। इसी चरण में भाजपा को नलबाड़ी, बंगाइगांव, धुबरी, बारपेटा, ग्वालपाड़ा और दक्षिण सालमारा जैसे जिलों में विश्वास की लड़ाई लड़नी होगी। इन जिलों में मुस्लिम वोट औसतन 70 प्रतिशत के आसपास है और एआईयूडीएफ के सीधे प्रभाव में है। गत लोकसभा चुनाव में बदरुद्दीन अजमल ने धुबरी संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस के प्रत्याशी को 2,00,000 से ज्यादा मतों के अंतर से हराया था। इन दोनों के वोट मिला दें तो राजग उसका एक चौथाई भी हासिल नहीं कर पाया था। परिवर्तन की लहर वाले गत विधानसभा चुनाव में भी भाजपा इस संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत 10 विधानसभा सीटों में से केवल दो पर जीत पायी थी। इन जिलों के गणित को बोडो क्षेत्र से ही साधा जा सकता है, ऐसे में यूपीपीएल की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी। यूपीपीएल को राजग ने आठ सीटें ही दी हैं, ऐसे में बाकी सीटों पर जनजातीय मतों का भजपा के पक्ष में कितना झुकाव रहेगा, यह देखने वाली बात होगी। मुख्यमंत्री सोनोवाल का चेहरा इसमें मददगार साबित हो सकता है। दूसरी ओर, महाजोट में अजमल के बढ़ते प्रभाव और उस गठबंधन की नेतृत्वहीन लड़ाई भी भाजपा को फायदा ही देगी।
सीएए के पेंच में राहुल से कांग्रेस की दूरी
कांग्रेस ने अपनी पांच गारंटी में पहले स्थान पर नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को रद्द करने का उल्लेख तो कर दिया मगर यही वादा पार्टी के गले की हड्डी बन रहा है। शायद इसी कारण पार्टी अपने शीर्ष नेताओं से भी बचती दिखी, तो वहीं महाजोट के सबसे बड़े सहयोगी एआईयूडीएफ को लेकर भी उसका रुख ढुलमुल-सा रहा। जानकारों का मानना है कि यह कांग्रेस की सोची-समझी रणनीति है जिसके तहत वह पहले दो चरण में हिंदू मतदाताओं को और नाराज नहीं करना चाहती। चरम तो यह रहा कि कांग्रेस नेता राहुल या प्रियंका एक बार भी बराक घाटी की ओर नहीं आए। दबी जुबान खबर मिली कि स्थानीय नेता भी नहीं चाहते कि ये लोग प्रचार करें। एक प्रत्याशी ने तो औपचारिक रूप से यह निवेदन कर दिया था। दरअसल, कांग्रेसी नेताओं में यह डर बना रहा कि कहीं राहुल गांधी सीएए पर कुछ ऐसा न बोल दें कि जनता उलटा जवाब दे बैठे। इस डर की ठोस वजह है। राहुल की रैली में ‘नो सीएए’ लिखे असमिया गमछों को लेकर पार्टी में पहले ही विवाद हो चुका था। राहुल ही क्यों, अन्य वरिष्ठ नेता भी इस उलझन को सीधे समझ नहीं पा रहे। वास्तव में ब्रह्मपुत्र और बराक घाटियों में कांग्रेस का दोहरा रवैया भी इसके लिए जिम्मेदार है। सचिन पायलट जब सिल्चर और करीमगंज में प्रचार के लिए पहुंचे तो शायद उन्हें अंदाज नहीं रहा होगा कि बराक घाटी के लोग सीएए के समर्थक हैं। पायलट बोल उठे, ‘‘पांच साल भाजपा की सरकार असम में रही, सब कुछ देख लिया, सीएए देख लिया, एनआरसी देख ली, मंहगाई देख ली, बेरोजगारी देख ली..’’ इसी बीच शायद उन्हें कहीं से संकेत मिला कि भाषण में कुछ गड़बड़ है। साढ़े पांच मिनट में अपना भाषण निपटाते हुए वे ‘मुख्यमंत्री कौन होगा’ के सवाल पर जा पहुंचे। कांग्रेस में इसी तरह का असमंजस अजमल के भड़काऊ बयानों को लेकर है। पार्टी के कुछ नेता अजमल को संयमित रहने की सलाह देकर अपना कर्तव्य पूरा कर लेते हैं, फिर सब कुछ सामान्य चलता रहता है। माना जा रहा है, पार्टी तीसरे चरण में मुस्लिम कार्ड पर खुल कर खेलेगी ताकि मुस्लिम बहुल इलाकों में फायदा ले सके।
इसके बावजूद यह बात माननी पड़ेगी कि राज्य में कांग्रेस का गठबंधन पस्त होता दिख रहा है। अजमल के भड़काऊ भाषणों से कांग्रेस को ही ज्यादा नुकसान होता दिख रहा है।
बागान में सेंधमारी की कांग्रेसी छटपटाहट
महाजोट ने तिनसुकिया विधानसभा क्षेत्र राष्ट्रीय जनता दल को दिया है। इसकी पूरी कीमत लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी यादव से वसूली जा रही है। तेजस्वी ने तिनसुकिया सीट पर तो अपनी पार्टी के लिए 4-5 रैलियां की ही, हिंदी-भोजपुरी बोलने वाले लोगों के आधिक्य वाली अनेक सीटों पर उनका तूफानी दौरा कराया गया। इस बीच, तेजस्वी ठेठ भोजपुरिया अंदाज में हंसी-मजाक के साथ मतदाताओं को बहलाने की कोशिश में लगे रहे। उन्होंने एक दिन में ही करीमगंज के राताबाड़ी, कछार के ढोलाई और लाखीपुर, नगांव के राहा इत्यादि विधानसभा क्षेत्रों में प्रचार किया। वास्तव में यह चाय बागानों में भाजपा की लोकप्रियता से घबराई कांग्रेस की छटपटाहट का परिणाम है। महाजोट ने तेजस्वी के अलावा कन्हैया कुमार, कांग्रेस के शकील अहमद आदि नेताओं को इन क्षेत्रों में प्रचार में लगाया है। बराक घाटी में कांग्रेस ने अपने 11 में छह प्रत्याशी हिंदीभाषी समुदाय से दिए हैं। कांग्रेस की इस चाल को भाजपा बखूबी समझ रही है। इस कारण राज्य के वरिष्ठ नेता हिमंत बिस्व शर्मा को बागानी इलाकों में हिंदी मिश्रित असमिया बोलते देखा जा सकता है। यह असम की राजनीति में एक नई घटना मालूम पड़ती है। सांसद व अभिनेता मनोज तिवारी भी बागानों की कमान संभालते दिख रहे हैं।
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