पंजाब में कन्वर्जन का पुराना इतिहास है। हालांकि इसके विरुद्ध संघर्ष की गौरवशाली गाथाएं भी हैं, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। हिंदू समाज के हर धार्मिक कार्य एवं यज्ञ व पूजा-पाठ के दौरान अनिवार्यत: गाई जाने वाली आरती ‘ओम जय जगदीश हरे’ के रचयिता पं. श्रद्धाराम फिल्लौरी (1837-1881) जालंधर के निकट फिल्लौर के रहने वाले थे। उस समय कपूरथला रियासत को इंग्लैंड से काफी मदद मिलती थी। इसलिए ईसाई मिशनरियों ने यह कह कर महाराजा रणधीर सिंह पर कन्वर्जन का दबाव बनाया कि अगर वे ईसाई बन जाते हैं तो सहायता और बढ़ सकती है। महाराजा तैयार हो गए। पोप का भी दिल्ली आगमन हुआ। लेकिन पं. श्रद्धाराम को इसकी भनक लग गई। उन्होंने महाराजा को रोकने की ठानी। जब वे महाराजा से मिलने गए तो उन्हें रोक दिया गया। लिहाजा, वे महल के आगे ही भूख हड़ताल पर बैठ गए। राजकीय पुजारी ने महाराजा को समझाया कि भले ही वे पं. श्रद्धाराम की बात न मानें, पर उनसे एक बार अवश्य मिल लें। महाराजा तैयार हो गए। पंडित जी एक हफ्ते तक उनके साथ महल में रहे। उन्होंने कपूरथला नरेश को हिंदू-सिख धर्म की महानता व ईसाइयों के षड्यंत्र के बारे में विस्तार से समझाया। इसका यह असर हुआ कि महाराजा ने फैसला बदल दिया और पं. श्रद्धाराम को हाथी पर बैठा कर ससम्मान उनके गृह फिल्लौर तक छोड़ कर आए।
लुधियाना में छापाखाना खुलने के बाद तेजी से ईसाइयत का प्रचार-प्रसार हुआ। लेकिन पं. श्रद्धाराम ने इस चुनौती का सामना किया। वे हिंदू-सिख धर्मग्रंथों की अच्छी बातों और शिक्षाओं के पोस्टर बनवा कर आसपास गांवों में बांटते तथा लोगों को ईसाइयों के प्रपंच से सावधान करते थे। पं. श्रद्धाराम पर हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति डॉ. हरमंहिन्दर सिंह बेदी (हिंदी साहित्य सेवा पुरस्कार से सम्मानित) ने ‘पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी ग्रंथावली’ पुस्तक संपादित की है, जिसमें इस घटना का विस्तार से वर्णन किया गया है।
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