हितेश शंकर
पश्चिम बंगाल में दूसरे चरण का मतदान हो चुका है। यहां परिवर्तन की पदचाप सुनी जा सकती है। बदलाव की यह बयार आमजन के सुदृढ़ हो चुके मानस, भाजपा की लोकप्रियता, भाजपा की मुद्दों को उठाने की तत्परता और रणनीति – इन सबके समन्वय के कारण दिख रही है। बदलाव का यह समीकरण कैसे बना और, यह कितना कारगर है, यदि इसे समझना हो तो कोलकाता, नंदीग्राम और बंगाल का कोई सुदूर क्षेत्र-जैसे सिलिगुड़ी, यह तीन नमूने उठा लें। निस्संदेह, आप किसी अन्य क्षेत्र में भी छानबीन कर सकते हैं। लेकिन कहीं भी, यह संदेश तो सतह पर ही नजर आ जाता है कि भाजपा अपनी रणनीति में सफल रही है।
यह समीकरण इतना प्रभावी कैसे बना? इसकी छानबीन करेंगे तो बहुत रोचक स्थिति सामने आती है। जो चुनाव पश्चिम बंगाल से इतर, और दिल्ली के, मीडिया के क्षेत्रों में बहुत तीक्ष्ण है, वास्तव में पश्चिम बंगाल में दूसरे चरण के मतदान तक राज्य के अन्य हिस्सों में उसका रंग नजर नहीं आ रहा है। सड़कों पर पोस्टर, झंडे, बैनर वैसे नहीं दिखाई दे रहे हैं, जैसे राज्य में दस वर्ष तक शासन करने वाले सत्ताधारी दल की ओर से सामान्य: लगाये गये दिखते हैं। ‘लोकतंत्र के रंग’ (कलर्स आॅफ डेमोक्रेसी) की जब बात करते हैं तो उसमें ‘चुनावों के रंग’ (कलर्स आॅफ इलेक्शंस) शामिल रहते हैं। यह चुनावी रंग नजर न आना तूफान से पहले की शांति जैसा है। सन्नाटे का स्वर सबसे गंभीर होता है। और ऐसा अनायास नहीं है। यदि हम थोड़ी गहराई से विश्लेषण करें, तो पाएंगे कि भाजपा की रणनीति ने भी तृणमूल कांग्रेस को मात्र राज्य की राजधानी तक या फिर नंदीग्राम तक समेट कर रख दिया है। राज्य की सत्ता वापस पाने की बात तो दूर, तृणमूल कांग्रेस की सारी चिंता अब पार्टी के प्रमुख चेहरों के गढ़ बचाने तक सीमित हो गयी है। इसमें सबसे बड़ा चेहरा ममता बनर्जी का ही है, वे अपने गढ़ में घिरी नजर आती हैं।
शायद इसका पूरा श्रेय भाजपा को देना ठीक नहीं है। यहां चुनाव जनता ही लड़ रही है। भाजपा साधन है, निमित्त है और साध्य है। वास्तव में इस बदलाव की बयार की पटकथा के पीछे समाज की ऐसी टीस और व्यथा साफ महसूस की जा सकती है, जिसे व्यक्त करने के लिए समाज सिर्फ मौके का इंतजार करता आ रहा है। यह व्यथा, यह टीस दशकों से समाज को लगते आ रहे सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आघातों के कारण है। पश्चिम बंगाल की जनता ने दस वर्ष पूर्व तृणमूल के मां-माटी-मानुष के नारे को बहुत उत्साह से स्वीकारा था। उस समय, यानी जब सिंगूर और नंदीग्राम कांड का दौर था, जनता को यह नारा बदलाव भरा लगा था। परंतु मां-माटी-मानुष का यह त्रिकोण क्या वास्तव में इसी तरह जमीन पर उतरा? क्या सरोकार वास्तव में वही थे, जैसे बताए गए थे? इसका उत्तर ना में है। ध्यान से देखें तो हमें राज्य में इस त्रिकोण को काटता हुआ एक अलग त्रिकोण दिखाई देता है जिसमें तोलाबाजी है, तुष्टीकरण है, तानाशाही है। इससे इतर, राज्य की पहचान का त्रिकोण कुछ और ही रहा है, उसमें ट्रेडिंग (व्यापार) है, टूरिज्म (पर्यटन) है और टी (चाय) है। परंतु इस ‘थ्री टी’ की जगह अब टेररिज्म ने ले ली है। यहां की जनता मां-माटी-मानुष, इस ट्रिपल एम का एक और अर्थ बताती है-माफिया, मुस्लिम और मनी। दस वर्ष के ममता के शासन में यही तीन कारक उभर कर सामने आए हैं।
यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि जब समाज राजनीति की कमजोर नब्ज को इतनी बारीकी से पकड़ लेता है तो राजनीति के लिए निकलने का रास्ता नहीं बचता। आखिर राजनीति समाज से है, समाज थोड़े ही राजनीति से है। इस कारण राजनीतिकों में छटपटाहट दिखाई देती है और पश्चिम बंगाल में ये छटपटाहट बहुत स्पष्ट है, जिसे कोई भी महसूस कर सकता है, समझ सकता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण नंदीग्राम कांड पर ममता का बदला हुआ पैंतरा है। मार्च, 2007 में जब उक्त कांड हुआ और आंदोलन चला, तब ममता बनर्जी के साथ लोगों की सहानुभूति थी, संवेदनाएं थीं, लोग बदलाव की उम्मीदों के साथ ममता की ओर देख रहे थे। तब ममता ने उस हत्याकांड के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और वामपंथी नेता लक्ष्मण सेठ को जिम्मेदार ठहराया था। परंतु अब बीते दिनों ममता ने नंदीग्राम हत्याकांड के लिए सुवेंदु अधिकारी और उनके पिता शिशिर अधिकारी को जिम्मेदार ठहरा दिया। राजनीति में आपका निशाना चूक जाएं, यह हो सकता है, यह गफलत हो सकती है, परंतु आप अपना लक्ष्य ही बदल दें, तो यह सिर्फ एक अजीब बात नहीं होती। बदलते लक्ष्य यह बताते हैं कि या तो वह ड्रामा था, या यह ड्रामा है, या दोनों ही ड्रामा हैं। ममता ने उक्त हत्याकांड के लिए 14 वर्ष तक वामपंथी नेता लक्ष्मण सेठ को कोसा और अब अचानक अधिकारी परिवार पर निशाना? ये क्या बताता है? ये बताता है कि ममता या तो उस समय झूठ बोल रही थीं या आज झूठ बोल रही हैं।
मजेदार बात यह है कि बेहद साधारण लोग भी बड़ी सरलता से इसकी व्याख्या कर पा रहे हैं। इसका श्रेय निश्चित रूप से भाजपा को जाता है, जो अपनी बात जनता तक बहुत प्रभावी ढंग से पहुंचाने में सफल रही है। इस व्याख्या में निशाना बदलने के पीछे मुख्यमंत्री की हताशा सर्वाधिक रेखांकित करने वाली है। इस हताशा और उसकी दर्जनों अभिव्यक्तियों पर समाज की प्रतिक्रिया, जो दो चरणों के मतदान के रूप में सामने आई है, वह नए पश्चिम बंगाल की पटकथा लिख रही है। इन परिस्थितियों और इस वातावरण से यही लगता है कि बंगाली समाज आज आंसू पोंछकर फिर उठ खड़े हो सकने की अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहा है, सकारात्मकता का प्रदर्शन कर रहा है, सामंजस्य का प्रदर्शन कर रहा है और ये प्रदर्शन वह अपनी सांस्कृतिक पहचान को पुन: पाने के लिए कर रहा है।
और राजनीतिक तौर पर ममता बनर्जी की, दीदी की, पिशी की- नैया क्यों डूब रही है? ममता बनर्जी ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा में कम्युनिस्टों को हराने के लिए कम्युनिस्टों से ज्यादा प्याज खाकर दिखाने का और कांग्रेस को मात देने के लिए कांग्रेस से ज्यादा कांग्रेस बनकर दिखाने का रास्ता अपनाया था। यह दोनों मॉडल अब डूब चुके हैं। और चूंकि ममता बनर्जी उनसे दोहरे पापों के बोझ की मालकिन हैं, इसलिए उनकी डूबने की गति भी दुगुनी है। लंका कोटि समुद्र सी खाई…। @hiteshshankar
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