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कब्जा नहीं स्वीकार

by WEB DESK
Apr 1, 2021, 03:05 pm IST
in संस्कृति
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गोपाल गोस्वामी
ओडिशा सरकार जगन्नाथ पुरी धाम की 35,000 एकड़ से अधिक भूमि बेचने की तैयारी कर रही है। इस मुद्दे को लेकर आजकल समाचार माध्यमों में जोरदार चर्चा है, विशेषकर सोशल मीडिया में इसको लेकर आक्रोश व्यक्त किया जा रहा है। ईशा फाउंडेशन के सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने तो मंदिरों को सरकारी कब्जे से मुक्त कराने के लिए एक अभियान छेड़ा हुआ है, जिसका जबरदस्त प्रतिसाद देखने को मिल रहा है। हैशटैग #ऋ१ीीऌ्रल्ल४िळीेस्र’ी२ लाखों ट्वीट के साथ प्रमुखता से चल रहा है। आखिर क्या कारण है कि हिन्दुओं द्वारा आजादी के 72 साल बाद पहली बार इतने बड़े पैमाने पर ऐसी मुहिम चलाई जा रही है? क्या अब तक सरकारों द्वारा मंदिरों में सब कुछ ठीक से चलाया जा रहा था?
विश्व हिन्दू परिषद के महासचिव श्री मिलिंद परांडे ने एक वक्तव्य में कहा है कि परिषद सरकार द्वारा नियंत्रित देश के चार लाख से भी अधिक मंदिरों को मुक्त कराने के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलाएगी। उन्होंने यह भी कहा कि सरकारी अधिकारी हिन्दू समाज के मंदिरों को दिए गए दान को व्यक्तिगत और इतर गतिविधियों के लिए उपयोग कर रहे हैं। संघ के सह प्रचार प्रमुख ठाकुर ने भी एक ट्वीट करके विहिप के इस कदम का समर्थन किया है।
आइये, हिन्दू समाज में उपजे इस आक्रोश और हिन्दू धर्मस्थलों की वर्तमान स्थिति पर एक नजर डालें हैं।

न जांच, न सवाल
क्या आप जानते हैं कि भारत में 2.3 प्रतिशत आबादी वाले ईसाई समुदाय के अलग-अलग चर्च सरकार के बाद सबसे अधिक जमीन के मालिक हैं? इन उपासना स्थलों पर न कोई टैक्स लगता है, न सरकार को उसका ब्योरा दिया जाता है। इन्हें दिया गया दान कहां से आता है, किस कार्य में लगता है, इसका कोई आॅडिट नहीं होता। यह ब्योरा केवल वेटिकन को दिया जाता है। प्रश्न यह नहीं है कि केवल 2.3 प्रतिशत लोगों के पास उनके उपासना स्थले की इतनी संपत्ति है आखिर सरकार क्यों जनकार्यों के लिए इसका उपयोग नहीं करती? ये भूखंड या तो अंग्रेजों ने राजाओं से हड़पे थे या चर्चों ने भोले हिन्दुओं का कन्वर्जन कर उनसे छीन लिए थे। कुल मिला कर इस अरबों रुपए की संपत्ति पर चर्चों का कब्जा है जिसका स्वामित्व वेटिकन के पास है, क्योंकि दुनियाभर में चर्च का प्रबंधन वहीं से चलाया जाता है। लेकिन भारत में सरकार का उन पर कोई नियंत्रण न होने से वह उनके मामलों में कोई दखल नहीं दे सकती। यह है अंग्रेजों की दूरदर्शिता और हिन्दुओं की उदारता का परिणाम।
अब मुस्लिम समुदाय की बात। देश भर में कुल 6.1 लाख सम्पत्ति वक्फ बोर्ड के अधीन हैं जिसका कुल मूल्य लाखों करोड़ रुपए है, जबकि स्वतंत्रता के समय मुस्लिम आबादी केवल 2-3 करोड़ थी। उसके मदरसों, मजारों, मस्जिदों व कब्रिस्तानों की संख्या भी लगभग नगण्य थी। ‘पीरों की मजारों’ व दरगाहों के नाम पर हर गांव, नगर, गली, चौराहे पर हरी चादर ओढ़ा कर उसे एक मजार जैसा चिनवाकर उसके आसपास की जमीन हथिया ली जाती है। एक आकलन के अनुसार भारत में अभी सात लाख से भी अधिक मस्जिदें हैं जिनकी संख्या 1947 में कुछ हजार ही थी। अजमेर, निजामुद्दीन, आला हजरत, हजरत बल आदि दरगाह में प्रतिवर्ष करोड़ों का चढ़ावा आता है परन्तु उसमें से एक नया पैसा सरकार को नहीं जाता। मुसलमानों या वक्फ बोर्ड की अधिकतर संपत्ति को अवैध कब्जा के जिरए या सुल्तानों ने जबरन उनकी मिल्कियत को हथियाकर बादशाहनामे के तहत उन पर कब्जा कर रखा है। ताजमहल को भी वक्फ बोर्ड ने हथियाने का प्रयत्न किया था, लेकिन शिया वक्फ बोर्ड ने इस पर यह कहकर आपत्ति जताई कि नूरजहां शिया थी इसलिए इस संपत्ति का हक उनको जाता है। पर न्यायालय ने इसको खारिज कर ताजमहल को राष्ट्रीय संपत्ति ही माना। वक्फ बोर्ड पर भी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है, वह किसी भारतीय कानून से नहीं अपितु मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से नियंत्रित होता है। इन कब्जाए गए स्थानों पर चल रहे मदरसे इस देश में इस्लामी कट्टरवाद की तालीम दे रहे हैं, दीनी शिक्षा के नाम पर मुसलमानों की नई पीढ़ी में मजहबी उन्माद भर रहे हैं। कई मौकों पर ऐसी खबरें आई हैं कि मदरसों के कई छात्रों को सीरिया व अफगानिस्तान में लड़ने भेजा गया या वे भारत में आतंक मचा रहे हैं। परन्तु आजादी के बाद से देश की किसी भी सरकार ने इन जबरन कब्जाई संपत्तियों को अपने अधिकार में लेने का प्रयत्न नहीं किया। 500 वर्ष लग गए रामजन्मभूमि को स्वतंत्र कराने में, जबकि मथुरा व काशी समेत हिन्दू समाज के हजारों प्रमुख आस्था केन्द्र अभी भी अवैध इस्लामी कब्जे में हैं।

मंदिरों पर हमले और कब्जा
दूसरी ओर हिन्दू मंदिर हैं, जिनकी पुरातन काल से हिन्दुओं द्वारा देखरेख होती आ रही है। पुराने जमाने में हिन्दू मंदिर समाज के शक्ति स्थल होते थे जहां पूरे गांव के जरिए संस्कृति, धर्म व कला का संवर्धन होता था। मुगल आक्रांताओं के हमलों के बाद मंदिरों व अन्य धर्मस्थलों की दुर्दशा का काल आरम्भ हुआ। इन आक्रांताओं को मंदिरों की संपत्तियों का भान था, सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत पर उनकी तिरछी नजर थी। सिकंदर से पहले व बाद में भी हूण, कुषाण, शक आदि राजवंशों ने भारत की समृद्धि से आकर्षित होकर इस भूमि पर आक्रमण किये। लेकिन वे आक्रमण केवल धन-सम्पदा व साम्राज्य विस्तार के लिए ही थे। उनमें धर्म स्थलों को नष्ट करना व संस्कृति के साथ छेड़छाड़ का कोई हेतु नहीं था क्योंकि तब तक ‘अब्राह्मिक रिलिजन’ का उदय नहीं हुआ था। मुगल विस्तारवाद सिर्फ मजहबी वर्चस्व के लिए था। इस लूटी गयी संपत्ति का इसी मजहबी विस्तारवाद में उपयोग किया जाता था। भारत के मंदिरों की लूट के सहारे इस्लाम ने यूरोप में विस्तार किया। जिनके पास कभी खाने को कुछ नहीं था अब उनके पास घोड़े, तलवारें और रसद असीमित मात्रा में थी, जिससे वे महीनों-सालों तक युद्ध में डटे रह सकते थे।
भारत में दिल्ली पर मुगलों के आधिपत्य के बाद मुस्लिम शासकों ने मंदिरों की संपत्ति को हड़पकर उन पर अपने निशान लगा दिए। लाल किले के मुख्य द्वारों के ऊपर वराह की कलाकृतियां हैं। क्या कोई मुसलमान अपने बनाए द्वारों पर लगा सकता है? कुतुब मीनार पर वराह भगवान की छवि हिन्दू सनातन सभ्यता के चिन्ह आज भी देखे जा सकते हैं। मुगलों ने हिन्दू धर्म स्थलों को ध्वस्त कर उनके ऊपर अपनी इमारतें खड़ी कर, उनका नया नामकरण कर उन्हें इस्लामी संपत्ति घोषित कर दिया।

अंग्रेजों का षड्यंत्र
इन मंदिरों के पास विद्यालय, गोशाला, गोचर भूमि, धर्मशाला इत्यादि की सम्पूर्ण व्यवस्था थी। अंग्रेजों के आने के बाद उन्हें अपना विस्तार करने के लिए कन्वर्जन करना था, लिहाजा उन्होंने भी मंदिरों की संपत्ति हड़पने के लिए 1817 में मद्रास रेगुलेशन एक्ट लागू किया जिसके तहत मंदिरों का प्रबंधन अंग्रेजों के हाथ में चला गया। पर 1840 में इस पर आपत्ति के बाद इसको पुन: हिन्दू न्यासों को सौंप दिया गया। फिर 1925 में अंग्रेजों के ईसाई व मुस्लिम मजहबी स्थानों को इस एक्ट के अंतर्गत लाये जाने पर मुस्लिमों व ईसाइयों के भारी विरोध के बाद उसे वापस ले लिया गया और 1927 में बदलकर मद्रास हिन्दू रिलीजियस एंड एंडोमेंट एक्ट कर दिया गया। जैन, सिख व बौद्ध मंदिरों व संस्थाओं को जान-बूझकर इससे अलग रखा गया जिससे सनातन परंपरा के सभी पंथ मिलकर विद्रोह न करें। इस कालखंड में अंग्रेजों ने मंदिरों की जमीन हथियाई, क्योंकि न्यास का नियंत्रण उनके चहेते लोगों के हाथ में ही होता था, जिनके जरिए किसी न किसी बहाने से अंग्रेजी स्कूल, अस्पताल, क्लब, जिमखाना इत्यादि के नाम पर भूमि विधर्मियों को सौंप दी जाती थी।
स्वतंत्रता के बाद भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। हिन्दू धर्म स्थलों की संपत्ति आज भी उसी स्थिति में है। अंतर केवल इतना है कि मंदिरों के अधिकांश प्रशासक अब हिन्दू नामधारी हैं, पर यह भी सत्य है कि लोकसेवा से जुड़े अनेक सेकुलर अधिकारी कम्युनिस्ट झुकाव के हैं। हमारे मंदिर मुस्लिम सेवादारों को रखकर उन्हें वेतन दे रहे हैं। हिमाचल प्रदेश के ज्वालादेवी मंदिर की हाल की घटना है। वहां दो धर्मस्थलों के सेवादार मुस्लिम थे, जिन्हें श्रद्धालुओं के विरोध के बाद वहां से हटाकर जिलाधिकारी कार्यालय में स्थानांतरित कर दिया गया। एक रिपोर्ट के अनुसार तमिलनाडु सरकार अब तक मंदिरों की लाखों एकड़ जमीन बेच चुकी है और यह क्रम अब भी जारी है।
प्रश्न यह है कि सरकार स्थापित प्रशासनिक विभाग के अधिकारियों के भारी-भरकम वेतन को मंदिरों के दान से प्रत्येक मास की पहली तारीख को चुका दिया जाता है, परन्तु उस मंदिर के पुजारी को कोई राशि नहीं दी जाती। दूसरी तरफ, मस्जिदों के मुअज्जिनों और दूसरे कारिंदों को राज्य सरकारें मोटा वेतन देती हैं, जहां से अधिकांशत: देश विरोधी तकरीरों के अलावा कुछ नहीं मिलता! ईसाई व मुस्लिम स्कूलों को अनुदान दिए जाते हैं परन्तु मंदिरों को दिए गए दान से आज तक एक वेद पाठशाला नहीं खुली। क्यों नहीं मंदिरों की राशि का हिन्दू धर्म की शिक्षा व धर्म के प्रचार-प्रसार में उपयोग हो! क्यों न सनातन धर्म के मर्मज्ञ युवाओं को विदेश स्थित भारतीय दूतावासों में नियुक्त किया जाए जहां वे सनातन धर्म की शिक्षा व वेदों की वैज्ञानिकता का प्रसार करें, विश्व को आयुर्वेद से अवगत कराएं। यदि यह गलत है तो मदरसों में पढ़कर इस्लाम के प्रचार के लिए जाने वालों पर भी रोक लगे। आज विश्व में अधिकतर आतंकी देवबंदी तालीम से प्रेरित है। चर्चों के जरिए फैलाई जा रही देश विरोधी नक्सली प्रवृत्तियों पर रोक लगे जो देश के युवाओं को हथियार उठाने के लिए प्रेरित करती हैं।
समय आ गया है जब हिन्दुओं को संगठित होकर अपने मंदिरों को सरकारी चंगुल से मुक्त कराने के लिए आंदोलन करन होगा और ऐसे कानून बनवाने का दबाव बनाना होगा जिससे मंदिरों पर कोई तिरछी नजर न डाल सके।

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